जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
रतन के वकील ने मुझे फोन किया।
मैंने उसे बता दिया, “मेरा ख्याल है कि रतन की कहानी मनढ़त है। उसने झूठमूठ गढ़ली है।"
"उसे क्या आप पहचानती हैं?"
“हाँ, पहचानती हूँ। बचपन में देखा है उसे! मेरे अब्बू के दोस्त का बेटा है।"
"उसकी हरकतों को क्या आप आंदोलन कहेंगी?''
"नही, उसके बारे में मैं कुछ भी नहीं जानती।''
"कट्टरवादी क्या वास्तव ही उसे ख़त्म करने का इरादा रखते हैं?"
"इन सब घटनाओं की मुझे कोई जानकारी नहीं है। और...अगर उसे मेरे समर्थन में सड़क पर जुलूस ही निकालना होता तो जब मैं देश में थी, तब तो उसने कभी मुझसे संपर्क तक नहीं किया। मुझे नहीं लगता कि यह कहानी सच है।"
मेरी इस अति सच्चाई ने रतन को राजनैतिक आश्रय नहीं मिला।
मैं जो, कभी किसी दिन झूठ नहीं बोली। मेरे जिस झूठ न बोलने की वजह से रतन को जर्मनी से खदेड़ दिया गया, वहीं मुझे, दो लोगों ने झूठ बोलने को लाचार कर दिया। एक मेरा फ्रेंच अनुवादक फिलिप वेनोवा, दूसरा अब्दुल गफ्फार चौधरी! फिलिप बेनोवा ने विकास सरकार नामक अपने एक बंगाली दोस्त के लिए राजनैतिक आश्रय के लिए आवेदन किया था। विकास ने फ्रांस से राजनैतिक आश्रय की माँग की थी, लेकिन उसे आश्रय नहीं मिला। अब फ्रेंच सरकार उसे खदेड़ने वाली है। फिलिप ने मेरे पास एक झूठ-मूठ की कहानी गढ़कर लिख भेजी और उसने मुझसे अनुरोध किया मैं उस पर दस्तखत कर दूँ! चूँकि वह कहानी फ्रेंच भाषा में लिखी गई थी,
इसलिए वह कहानी मेरी समझ से बाहर थी।
"फिलिप, आपने लिखा क्या है?''
"मैंने लिखा हैं, विकास आपका समर्थक था। आपके साथ रहकर उसने कट्टरवादियों के खिलाफ जंग की थी। इसलिए उसकी हत्या करने के लिए कट्टरवादी उसे ढूँढ़ रहे हैं। ऐसी स्थिति में अगर वह बांग्लादेश वापस जाएगा तो उसे अपनी जान से हाथ धोना पड़ेगा।"
"लेकिन, फिलिप, मैं तो विकास सरकार नामक किसी शख्स को पहचानती भी नहीं।"
वह फ्रेंच नौजवान फिक्-फिक् हँस पड़ा। भले ही मैं उसे न पहचानती होऊँ, लेकिन मुझे यही लिखना होगा कि मैं उसे जानती हूँ।
मैंने भी मन-ही-मन अपने को तर्क दिया कि अगर किसी के भले के लिए झूठ बोलने की ज़रूरत आन पड़े तो झूठ बोल देना चाहिए। इस झूठ से मेरा तो कोई नुकसान नहीं हो रहा है। यह झूठ तो इसलिए बोल रही हूँ क्योंकि यूरोप का वर्ण-विरोधी क़ानून ही ऐसा है। चूंकि यूरोप के देशों में, गरीब देश के लोगों का स्वागत नहीं किया जाता, इसलिए आँख में धूल झोंकने का सवाल उठता है, वर्ना ऐसा सवाल हरगिज नहीं उठता। हाँ, उन्नततर जीविका और जीवनयापन की ज़रूरत पर एक देश से दूसरे देश में जड़ें जमाने का क्रम तो दुनिया में हमेशा से ही जारी रहा है। अब इंसान का यह चरित्र अचानक बदला क्यों जाए? जब तक सारे देश, आर्थिक तौर पर बराबर नहीं हो जाते, तब तक यह माइग्रेशन, घुसपैठ, प्रवास चलता ही रहेगा। इससे इंकार करने का कोई उपाय नहीं है।
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