जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
मेरे लिए उस दिन भी इंकार करने का कोई रास्ता नहीं था. जब अब्दल गफ्फर चौधरी ने मुझे लंदन से फोन किया और अनुरोध किया कि मुझे एक लड़की को बचाना ही होगा। जिसे मैं जिंदगी में पहचानती तक नहीं, उसे जानती तक नहीं, उसके बारे में मुझे यह कहना होगा कि वह मेरी सहकर्मी थी या उसने मेरी किताब छपवाई थी। उसने मेरे लिए मौत का जोखिम मोल लिया, मेरे लिए आंदोलन किया और फतवे की शिकार होकर अपनी जान बचाने के लिए उस देश से भाग आई है।
गफ्फार चौधरी ने कहा, "हमने काफी कोशिशें कीं कि वह लंदन में ही रह जाए. लेकिन हमारी कोई कोशिश कामयाब नहीं हई। ब्रिटिश सरकार उसे खदेड देगी। यहाँ से उसे देश-निकाला दिया जा रहा है। तुम ही आखिरी आसरा-भरोसा हो। हम जानते हैं, तुम्हारे कहने-भर से काम हो जाएगा। वह बच जाएगी। वह लड़की बेचारी बेहद असहाय है। किसी पाकिस्तानी से निकाह किया था उसने! अब छुट्टा-छुट्टी हो गई है। तुम बचा लो उसे।"
"मैं कैसे बचा सकती हूँ?"
"तुम लिख दो कि तुम मसूदा भट्टी को जानती हो! उसका नाम मसूदा भट्टी है! कह दो, तुम उसे पहचानती हो। उसने तुम्हारी वह किताब-विताब छपवाई है। इसके बाद से ही देश में मुल्ले, उसका खून करने के लिए पगलाएँ घूम रहे हैं। अब अगर वह देश लौटकर जाती है तो उसकी मौत निश्चित है।"
"लेकिन, गफ्फार भाई, मैं तो उसे पहचानती तक नहीं। उसने मेरी कोई किताब भी नहीं छपवाई मुल्ले उसे मारेंगे भी नहीं! फिर में झूठ क्यों बोलूँ?"
जब तक मैं बांग्लादेश में थी, गफ्फार चौधरी से मेरी कभी भेंट नहीं हुई। उन्होंने बांग्लादेश के अखबारों में, मेरी तारीफ में कुछेक लेख लिखे थे। खासकर ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में मेरे भाषण के बाद ! सिर्फ मेरा व्याख्यान सुनने के लिए. वे नंदन से ऑक्सफोर्ड आए थे, लेकिन उन्हें अंदर नहीं दाखिल होने दिया गया। सुरक्षाकर्मियों ने वादामी आदमी को अंदर नहीं जाने दिया था अंदर बैठने की शायद जगह नहीं थी, शायद इसीलिए उन्हें अंदर नहीं जाने दिया। वे वाहर ही खड़े रहे।
कुछ ही दिनों बाद गफ्फार चौधरी, जर्मनी में अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ घूमने गए थे। उन दिनों में भी जर्मनी में ही थी। उन्होंने मुझसे मिलने की इच्छा जाहिर की। मैंने उन्हें अपने 'विला वालवेर्ता' में कुछ दिनों के लिए मेहमान बना लिया। विला बालवेर्ता वहद खूबसूरत बंगला है। म्युनिख के करीव ही फल्डाफिंग नामक एक स्वप्निल गाँव में स्थित! किसी ज़माने में यह बंगला चाहे कुछ भी रहा हो, अव वह लेखक-कलाकारों के लिए एकान्त में अपना काम करने की जगह है। उस विला की तरफ से आमंत्रण पाकर मैं तीन महीनों के लिए वहीं पहुंच गई। मैं इस घर की ऊपरी मंजिल पर ठहरी हुई थी, नीचे की मंज़िल पर पूर्व जर्मनी की मशहूर लेखिका क्रिस्टा वुल्फ ठहरी हुई थीं। उन्हीं दिनों सुयेनसन भी उस बिला में घूमने आया हुआ था। गफ्फार चौधरी भी हमारे मेहमान थे सुयेनसन और मैं अपने मेहमान को घुमाते-फिराते रहे, दक्षिण-जर्मनी का प्राकृतिक सौंदर्य दिखाया! वे तमाम पहाड. पोखर और घने जंगलों की रहस्यमयता! प्रकति मझे हमेशा से बेहद खींचती रही। सच तो यह है कि अगर मैंने पश्चिमी देशों का चप्पा-चप्पा घूमकर न देखा होता तो मैं किसी दिन शायद समझ ही नहीं पाती कि प्रकृति का रूप किस क़दर अपूर्व और असाधारण है! गफ्फार चौधरी काफी बड़े इंसान है। उनका लिखा हुआ गीत- "मेरे भाइयों के खून में रंगी इक्कीस फरवरी...” मैं बचपन से लेकर आज तक गाती रही हूँ। जब से मैंने लिखना शुरू किया, उसके बाद, मुझे जिन लोगों से समर्थन और संवेदना मिलती रही है, उन लोगों को उंगलियों पर गिना जा सकता है। उन बुद्धिजीवी लोगों में वेशक़ गफ्फार साहब को भी शामिल किया जा सकता है! इसलिए नहीं कि वे मुझे प्यार करते हैं या मुझसे स्नेह करते हैं, बल्कि उनका खुलापन, स्वच्छ चिंता, उनके लेखन की गहराई की वजह से ही उनके प्रति मेरी अनन्त श्रद्धा है, लेकिन उनकी तरफ से झूठ बोलने की फर्माइश की मुझे बिल्कुल उम्मीद नहीं की थी। उन पलों में अपनी ही नज़र में मैं बेहद असहाय हो आई।
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