जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
|
6 पाठकों को प्रिय 419 पाठक हैं |
औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
मसूदा भट्टी नामक उस बिना पहचान की लड़की ने भी मुझे फोन करके बताया कि वह मेरी रचनाओं की परम भक्त है।
उसने रोते-रोते कहा, "मुझे बचा लें!"
इसी तरह के ढेरों वाक्य, वह काफी देर तक दुहाराती रही!
मुझे झूठ बोलना ही पड़ा। जिस लड़की को न मैं पहचानती थी, न जानती थी, उसी के लिए मुझे लिखना पड़ा कि हाँ, मैं उसे पहचानती हूँ। मैंने ब्रिटिश सरकार को भी लिख दिया कि मसूदा भट्टी नामक लड़की को मैं पहचानती हूँ! मैं हूँ-तसलीमा! वह मेरी समर्थक है। बांग्लादेश में उसने मेरे पक्ष में आंदोलन किया है। अगर अब वह बांग्लादेश लौटकर गई, तो कट्टरवादी उसे मार डालेंगे।
बस! काम हो गया। उस पाकिस्तानी की पूर्व-पत्नी शान से लंदन में बहाल हो गई। उसके बाद गफ्फार चौधरी ने उसे पत्रकार बना दिया। और वही लड़की मेरे खिलाफ़ ज़हर उगलते हुए, वांग्लादेश के अखवारों में कॉलम लिख रही है। मेरी 'क' नामक आत्मकथा प्रकाशित होने के बाद, वांग्लादेश में जब मेरे बारे में गाली-गलौज बरसात हुए, लेख आदि लिखे जा रहे थे, उन दिनों सबसे ज़्यादा फूहड़ भाषा में, जिसने मेरे नाम पर गालियाँ चिपकाते हुए, जो लेख में लिखा कि मैं किसी बूढी वेश्या की तरह लैम्प पोस्ट की रोशनी तले वैठी-बैठी आत्मरति के किस्से लिखा करती हूँ। नहीं, उस लड़की को मैंने किसी दिन भी अपनी आँखों से नहीं देखा। मैंने तो सिर्फ सिर झुकाकर उसका प्रतिदान ग्रहण कर लिया। इसी बीच, फ्रांस की नागरिकता पाने के वाद विकास सरकार ने भी मुझे प्रतिदान दिया। पूरे साल-भर पैरिस में रहने के बाद, उस शहर को अलविदा कहकर जब मैं स्वीडन लौट रही थी, मैंने अपने ज़रूरी कागजात चंद बड़े-बड़े वक्सों में भरकर, उस पर सील-मुहर लगाकर, मैं फिलिप वेनोवा के घर पर छोड़ आई थी कि वाद में जब पैरिस आऊँगी तो ले लूँगी! लेकिन बाद में जंब जाकर वक्सा टटोला, उसमें कुछ भी नहीं था। अरे, उसमें के सारे सामान क्या हुए? पता चला, विकास सरकार वक्सा खोलकर, सारे सामान खुद इस्तेमाल करने लगा और वे सब कागजात, क्लिपिंग्स, कॉपियाँ-नोटबुक कहाँ गए? विकास को अब याद नहीं। उन सवका उसने क्या किया, वह नहीं बता सकता। क्यों बता नहीं सकता? इसलिए कि अब वह भूल चुका है कि उसने उन कागज़ात का क्या किया? नागरिकता पाने के बाद, इंसान शायद अपने बारे में काफी कुछ भूल जाता है। काफी देर तक असहाय मुद्रा में मैं विकास के सामने बेवकूफ की तरह खड़ी रही और फिर वहाँ से चली आई। बहरहाल और किसी ने चाहे जो भी हरकत की हो, चाहे जितनी भी अवहेलना, अपमान, किया हो, मसूदा भट्टी की दुश्मनी की कहीं, कोई तुलना नहीं है। अगर ये घटनाएँ नहीं घटतीं तो मैं 'कृतघ्न' शब्द के, सही मायने शायद नहीं जान पाती। मुझे पता ही नहीं चलता कि दूसरों का किया हुआ उपकार, इंसान को कितना तंगदिल बना देता है और इसीलिए अहसान करने वालों के अहसान से इंकार करने या उपकार के वदले निन्दा करने के लिए वह बागल हो उठता है। मेरे तजुर्बो को समृद्ध करने के लिए, मैं इन लोगों की अहसानमंद अपने निर्वासित जीवन में, मैं उंगलियों पर गिनने लायक बंगालियों के संस्पर्श में आई हूँ। इधर पश्चिमी लोगों की श्रद्धा, प्यार, अनवरत मुझे मिल रहा है। लेकिन जो चीज़ मुझे नहीं मिली, उस चीज़ के प्रति मेरा गहरा आकर्पण होना स्वाभाविक है। जिन कट्टरपंथी बंगालियों ने मुझे देश छोड़ने को लाचार कर दिया, उन्हीं बंगालियों का प्यार क्या, मुझे मिल पाएगा? अधिकांश लोग मुझे इस्लाम-विरोधी, मदों की दुश्मन के तौर पर जानते हैं और नाक-भौं सिकोड़ते हैं। मुझे उन लोगों से अपने को बचा-बचाकर चलना पड़ता है। इन पश्चिमी देशों में जहाँ तक मैंने देखा है और सुना है, जो वंगाली यहाँ निवास करते हैं, वे लोग बांग्लादेश के बंगालियों से भी कहीं ज़्यादा पुरातनपंथी हैं! लंदन इंटरनेशनल पेन क्लव की सेक्रेटरी, सारा व्हाइट ने अपनी गाड़ी से मुझे लंदन टावर हमलेट की सैर कराई थी। मुझे घुमा-फिराकर सारा कुछ दिखाया था। लंदन टावर हेमलेट में अनगिनत बंगाली लोग रहते हैं। उसने गाड़ी कहीं रोकी नहीं। उसे डर था कि फिर कोई दवांच न ले या मार न डाले! लंदन के उसी रास्ते पर बंगालियों की बच्चियों को झंड वाँधकर स्कूल जाते हुए देखा। सवकं सिर दुपट्टे से ढंके हए। वांग्लादेश में किसी भी स्कूल की तरफ इतनी सारी लड़कियाँ सिर ढककर जाती हुई नज़र नहीं आतीं। वहाँ यह चलन ही नहीं है। हुँहः देश छोड़कर विदेश आ गए और ज़्यादा विशाल परिसर में आ पहुँचे, कहाँ अपने मन को उदार वनाएंगे, बड़ा बनाएँगे, लेकिन, नहीं, इसका उलटा ही करेंगे। इंसान कहाँ, विदेशी संस्कृतियों की भली-भली वातें ग्रहण करके, अपने विचारों को समृद्ध करंगे, लेकिन नहीं, अपनी भी अच्छी-अच्छी बातें त्यागकर, रोशनी बुझकार, अँधे कुएँ में समाएँ रहते हैं। कलकत्ता में मुझे एक हिंदू सज्जन के घर जाना पड़ा था। वहाँ उनके और वच्चों के कमरे के बाहर और एक कमरा था! बेहद सजा-संवरा! वह उन लोगों का पूजाघर था। विदेशों में काफी धूम-धाम से पूजा होती है, ईद मनाई जाती है। बड़े जोर-शोर से विविध अंधविश्वासों का पालन किया जाता है। इन लोगों को देखकर मुझे तो ऐसा लगता है कि अपने-अपने देशों से यूरोप, अमेरिका तक आकर जैसे वापिस रपट जाते हैं और हजारों साल पीछे चले जाते हैं। मुमकिन है, बंगाल या बंग्लादेश में विवर्तन घटता हो, लेकिन, जो लोग विदेश की धरती पर मिनी-बांग्लादेश या पश्चिम बंगाल गढ़ लेते हैं, उन सब मिनी-मुहल्लों में कभी, कोई विवर्तन नहीं घटता। सन् साठ के दशक में लोग जिस बुद्धि और दिमाग के साथ यूरोप-सफर पर निकले थे, आज भी वहीं-के-वहीं रह गए हैं। भेजे में कुछ भी टस-से-मस नहीं हुआ। महज् सीलन-भरे अंधेरे में पड़े-पड़े, उन लोगों में जैसे फफूंद लग चुका है!
|
- जंजीर
- दूरदीपवासिनी
- खुली चिट्टी
- दुनिया के सफ़र पर
- भूमध्य सागर के तट पर
- दाह...
- देह-रक्षा
- एकाकी जीवन
- निर्वासित नारी की कविता
- मैं सकुशल नहीं हूँ