जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
जिसे भी देखती हूँ, उसी से कहती हूँ-अब, घर लौटूंगी, कोई नहीं समझता कि मैं क्या कहना चाहती हूँ। मैं लोगों से कहती हूँ। उड़ते हुए पक्षियों से कहती हूँ! भू-मध्यसागर के तट पर, उदास बैठी थी, सीगल, समुद्री-पंछी इधर-उधर उड़ानें भर रहे थे। पंछी उड़ रहे थे, लौट-लौट आते थे। ये सीगल पक्षी जहाँ-तहाँ उड़ सकते हैं, मैं नहीं! मेरा संसार इस छोटे से सीगल पक्षी से भी छोटा है।
पृथ्वी में सभी की होती है अपनी नदी और होता है समुद्र,
मेरे घर के बगल में है एक नदी,
और मेरे देश के दक्षिण में अभी भी है एक समुद्र,
अभी भी वे क्रोधित होती हैं, झपटती हैं, पालतू बनती हैं
और उस पालतू जल में वर्षा और बैसाख में धमाल मचाते हैं गाँव के किशोर।
भूमध्य सागर में तैरती हुई सीगलों को देखकर
पंछी बनने का बेहद मन करता है आजकल, इच्छा करती है तैरने की,
जल में, हवा में
तैरते-तैरते एक दिन ब्रह्मपुत्र के कीचड़ में मन करता है लोटने का,
कटी पतंग की तरह-
तिरते हुए पहुँचूँ अपने गोल पोखर तट वाले घर के नल के नीचे
सेमल की रूई की तरह एक दिन।
सीगल अपने पंखों पर मुझे सबार कराओगी?
उस पार है मेरा एक बेहद परिचित सागर
एक बेहद परिचित नदी भी।
मेरा बेहद परिचित जीवन है एक देश में
जहाँ अपना दिल में छोड़ आई हूँ वीरान मैदान में, आम-कटहल वन में,
लीची तला में।
छोड़ आई हूँ अपना दिल वस्ती, पोखर, सँकरी गली में,
जहाँ काले-काले बच्चे झपटते हैं कौओं की थाली पर
जहाँ के असंख्य लोगों के सीनों पर झुकी रहती है नीली मौत,
जहाँ पर फिर से खिलते हैं चंपा के फूल
मुर्दों की खोपड़ी से।
सीगल अपने पंखों पर सवार कराके एक दिन खूब तड़के,
चुपके से, बिना किसी को जताए,
भूमध्यसागर से मुझे पहुँचा दोगी मेरे बंगोपसागर में?
मैंने महसूस किया है कि असंख्य लोग हाथों में तलवार, छुरा, दाँव, कुल्हाड़ी उठाए, मेरी तरफ बढ़े आ रहे हैं। मैं दौड़कर भाग जाना चाहती हूँ मगर भाग नहीं पाती, क्योंकि उन लोगों ने मुझे दबोच लिया है। उन लोगों ने मुझे पकड़ लिया और पटक दिया है। मुझे चीर-फाड़कर चले गए।
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