जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
उन लोगों ने पहले, काटीं मेरी जाँघे,
मांस के लोथड़े के अलावा कुछ भी नहीं!
काटी हाथ और पाँवों की नसें,
फूट पड़ी हल्की-सी महज खून की चंद बूंदें!
खींचकर निकाल लीं आँखों की पुतली, पाकस्थली,
उलट-पुलटकर देखी यकृत, पित्त-थैली;
नोचकर निकाली योनि,
ना, कहीं कुछ भी नहीं!
कुछ भी नहीं दिमाग में, रीढ़ में, पीठ में, पेट में,
दो अदद आँतें पड़ी रहीं उदास, दोनों ओर,
उसे भी खोल-टटोलकर देखा गया,
सब खाली-बेकार!
लेकिन, दिल पर हाथ पड़ते ही,
हाँ, पड़ते ही हाथ, दिल पर,
उन लोगों को साफ़-साफ़ समझ में आ गया,
वाकई इसमें कुछ है!
राक्षसी दाँतों और नाखूनों से चीरकर देखा,
अन्दर वसा था, एक देश! वांग्लादेश!
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