जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
लेकिन चाहकर भी मैं कहीं भी लौट नहीं पा रही हूँ। मैं अपने देश के करीब नहीं पहुंच पा रही हूँ। मुझे दहशत होती है। यह देश मुझसे इस क़दर दूर होता जा रहा है कि मुझे लगने लगा है कि मैं उसके आँचल का एक सूत भी स्पर्श नहीं कर पाऊँगी। शायद किसी दिन भी नहीं! देश दौड़ता जा रहा है, कहाँ, किधर, मैं नहीं जानती! देश के पीछे-पीछे मैं भी दौड़ रही हूँ! दौड़ती जा रही हूँ और आवाजें दिए जा रही हूँ! आवाजें महत्त्वहीन आवाजें-
प्रतीक्षा करना मेरी मधुपुर, नेत्र कोना
प्रतीक्षा करना जयदेवपुर के चौराहे
मैं वापस लौटूंगी।
लौटूंगी भीड़ में, शोरगुल में, सूखे में, बाढ़ में,
प्रतीक्षा करना मेरे चार छाजन वाले घर, आँगन, नीबू तला,
गोल्लाछूट के मैदान
मैं लौटूंगी।
पूर्णिमा के गीत गाने, झूला झूलने,
बाँसवन के ताल में मछली पकड़ने-
प्रतीक्षा करना मेरी अफजल हुसैन, खैरून्निसा
प्रतीक्षा करना इदुलआरा,
मैं लौटूंगी।
लौटूंगी प्रेम के लिए, हँसने के लिए, जीवन की डोर में फिर से
सपने गूंथने के लिए-
प्रतीक्षा करना मेरी मोतीझील, शांतिनगर,
प्रतीक्षा करना फरवरी के पुस्तक मेले,
मैं लौटूंगी।
उड़ रहे हैं बादल पश्चिम से पूर्व दिशा में
उन्हें सौंपती हूँ अपने आँसुओं की कुछ बूंदें,
कि वे जाकर बरस जाएँ गोल पोखर के घर की टीन की छाजन पर
एक बार।
जा रहे हैं जाड़े के पंछी पश्चिम से पूर्व दिशा की ओर
वे गिरा आएँ अपने एक-एक पंख,
सिवार भरे ताल में, शीतलक्षा में, बंगोपसागर में।
ब्रह्मपुत्र सुनो, मैं लौटूंगी।
सुनो शालवन बिहार, महास्थान गढ़, सीताकुंड पहाड़-
मैं वापस लौटूंगी।
अगर न लौट पाऊँ, मनुष्य के रूप में, लौटूंगी किसी दिन
पंछी ही बनकर।
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