|
जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
|
419 पाठक हैं |
|||||||
औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
वहरहाल मेरे द्वीप-जीवन का आखिरकार अंत हुआ। स्टॉकहोम शहर के लिडिंगो नामक एक पॉश इलाके में एक सुसज्जित एपार्टमेंट किराए पर लिया गया। किराया था-तीन हज़ार क्रोनर! दो बेडरूम, एक ड्रॉइंगरूम ! एक अदद वालकोनी। बड़ी-सी किचन! किचन में ही खाने की मेज़! स्वीडन में आम तौर पर यही प्रचलन है। पकाने और खाने का एक ही कमरा! हमारे देश की तरह यहाँ पंहसुल से मछली के टुकड़े नहीं किए जाते या मिट्टी के चूल्हे पर खाना नहीं पकाया जाता या केरोसिन तेल के स्टोव पर भी खाना नहीं बनता। यहाँ के वावर्चीखाने में सारे मशीन-यन्त्र फिट होते हैं। चूल्हे में भी कई-कई तरह के चूल्हे! सारा कुछ एक बड़ी-सी मशीन के अंदर! वर्तन वगैरह धोने के लिए अलग मशीन! जूठी थाली, वर्तन, कप, गिलास सारा कुछ मशीन में घसाकर उसमें टैबलटनमा सावन डालकर, वस. मशीन चाल कर दें, सारा कुछ धुल-पुंछकर, चमचमाता हुआ, गरम-गरम वाहर निकल आएगा। चम्मच रखने की ड्रॉअर होती है। तरह-तरह के वर्तन रखने के लिए तरह-तरह के सामान। सव कुछ का नियम होता है। कोई भी किचन में आकर काम शुरू कर सकता है। चाहे कोई भी घर या कोई भी किचन हो! सभी लोगों को यह जानकारी होती है कि छुरी-काँटे किस ड्रॉअर में रहते हैं; चाय-कॉफी किस दराज में है। मसाले (इनके मसालों में काली मिर्च का पाउडर, लहसुन, नमक, प्यापिका पाउडर वगैरह होते हैं), छन्नी वगैरह कहाँ होंगे! साबुन का चूरा कहाँ है; तौलिए कहाँ हैं; कौन-से वर्तन कहाँ रखे हैं। सारा कुछ नियम से चलता है। स्वीडन-निवासी, चाहे जैसे भी हो, सारे नियमों का पालन करते हैं। ऐसा कहा जाता है कि स्वीडन का कोई निवासी अगर गलती से भी जेब्रा क्रॉसिंग पर अपनी गाड़ी रोक दे, फर्ज़ करें, किसी निर्जन इलाके में, जहाँ उस वक्त कोई राहगीर सड़क भी पार नहीं कर रहा होता, किसी को कोई नुकसान नहीं पहुँचा, लेकिन वह वंदा सीधे पुलिस-ऑफिस जाकर खुद कबूल करता है कि उसने नियम तोड़ा है और जुर्माने की रकम, अपनी जेब से चुकाकर आता है, कानून आखिर कानून होता है। स्वीडन की औरतें शिशु-जन्म देने के बाद उसे दूध कैसे पिलाया जाए, यह भी किताबें पढ़कर सीखती हैं। सारा कुछ ये लोग किताबें पढ़कर सीखते हैं, लेकिन सीखते ज़रूर हैं। कैसे कपड़े पहनकर घास काटना चाहिए कौन-से कपड़े पहनकर, घर पेंट करना चाहिए, किन कपड़ों में दावत में जाना चाहिए-सारा कुछ किताबें पढ़कर सीखते हैं। लोगों के सामने क्या बोलना चाहिए, क्या नहीं बोलना चाहिए-इसका ज्ञान भी कितावों से ही अर्जित करते हैं। जब ये लोग सिर हिला-हिलाकर 'धन्यवाद-धन्यवाद' कहते हैं, तब साफ पता चल जाता है कि 'धन्यवाद' शब्द उनके दिमाग से निकल रहा है! उसमें भी वही किताबी ज्ञान झलकता है यानी उनके दिल से कम ही बातें निकलती हैं। दिल से जो बातें निकलती हैं, वे समझना बेहद मुश्किल है। लोगों से किस ढंग से बातें की जाएँ, कैसे चलना-फिरना चाहिए, शराफत कैसे दिखानी चाहिए, पेड़-पौधे मिट्टी में कैसे लगाने चाहिए, दुःख-शोक कैसे संयत करना चाहिए,खुशी का जश्न कैसे मनाना चाहिए-वे लोग सारा कुछ किताबें पढ़कर सीखते हैं। कोई भी बात आसानी से उनके दिमाग से नहीं निकलती। वैसे मैं सभी लोगों को एक ही कतार में खड़ा नहीं करना चाहती। मुझे यह भी नहीं लगता कि किसी एक जाति का अपना कोई निजी चरित्र होता है। यह सब व्यक्ति-चरित्र का मामला है। लेकिन यहाँ अधिकांश लोगों के बारे में ही चर्चा की जा रही है। ये लोग इन सब बातों में अपनी बुद्धि क्यों नहीं लगाते, यह मेरी समझ से बाहर है। वैसे इन लोगों में बुद्धि की तो कहीं कोई कमी नहीं है। ये लोग जो भी चीज़ ख़रीदते हैं,
पहले उसके साथ प्राप्त कागज़ पढ़ते हैं। कागज पढ़कर पूरी तरह यह समझ लेते हैं कि उस चीज़ से कौन-कौन-सा काम किया जा सकता है, तब जाकर, उस चीज़ को हाथ लगाते हैं। फर्ज़ करें, अगर वह मेज़ है तो वे मेज़ में जोड़ लगाते हैं, अगर मशीन हे तो उसमें नट-वोल्ट फिट करते हैं। एक हम लोग हैं, सबसे पहले हम उस मशीन को उलट-पलटकर, हिला-डुलाकर देखते हैं, आँखें जहाँ, जो घुसेड़ने को कहती हैं, घुसा देते हैं और वस, बटन दबाना शुरू कर देते हैं, उसे चालू करने की कोशिश में जुट जाते हैं। नियमावली को मारो गोली! अरे, नट-बोल्ट या खंड-खंड टुकड़े, इधर-उधर घुसाने-फिट करने की कोशिश करें तो कोई न कोई तुक्का ता भिड़ ही जाएगा। एक-दो नम्बर मुताविक पहले यह करें, उसके बाद ऐसा करें, बंगाली लोग, यह सब कुछ भी नहीं मानते। कागज पढ़कर या हिदायत मानकर कुछ करना बंगालियों का स्वभाव ही नहीं है। इन पश्चिमी लोगों की कुछेक बातें मुझे बेहद पसंद हैं, कुछ निरी बकवास लगती हैं। लेकिन जो बातें मुझे पसंद हैं, सभी लोग वैसा ही करते हैं, ऐसा भी नहीं हैं। इसके बावजूद, अधिकांश लोगों में यही रुझान नज़र आती है। ये लोग झूठ बहुत कम बोलते हैं, दूसरे लोगों को परेशान नहीं करना चाहते, जिससे प्यार करते हैं, उसे छोड़कर किसी और से इश्क नहीं फ़रमाते। औरतों को वे दूसरे दर्जे का प्राणी या कमज़ोर जीव नहीं मानते। बहुत-सी बातों पर कोफ़्त भी होती है। इन लोगों में बनावटीपन बहुत ज़्यादा है। ये लोग अंतरंग भी नहीं होते। वेहद-वेहद हिसाबी-किताबी होते हैं। पता नहीं, इंसान इतने हिसाबी ढंग से अपनी जिंदगी कैसे बसर कर सकता है? कोई अगर अच्छा लगता है तो उसका सब कुछ अच्छा लगता है। कोई अगर नापसंद है तो उसका सारा कुछ बुरा लगता है।
|
|||||
- जंजीर
- दूरदीपवासिनी
- खुली चिट्टी
- दुनिया के सफ़र पर
- भूमध्य सागर के तट पर
- दाह...
- देह-रक्षा
- एकाकी जीवन
- निर्वासित नारी की कविता
- मैं सकुशल नहीं हूँ











