लोगों की राय

जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :360
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :9789352291526

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

419 पाठक हैं

औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


पुलिस ने दरयाफ्त किया, “अव तो घर चलें?"

"नहीं, मुझे घर नहीं जाना। कहीं खाने जाऊंगी।"

"खाने जाएँगी?"

हाँ, खाने जाने की वात नहीं थी। पुलिस वालों में फिर खलबली मच गयी। प्रोग्राम वदल गया है! कुछ और जुड़ गया है। हाँ, रेस्तरां जुड़ गया है। पुलिस के बड़े अधिकारी को सूचित कर दिया गया। अव लाव-लश्कर समंत खाने चलो। पुलिस की फौज मुझे लेकर मैकडोनाल्ड्स नामक सैंडविच की दुकान में दाखिल हुई। पीछे-पीछे सिमटे-सकुचाए ङ! मैंने गौर किया; ङ से मेरा संपर्क काफी तेजी से सदं पड़ता जा रहा था। उन्हें ज़रूर अंदाज़ा हो गया है। अतिशय ज़रूरत के अलावा मैं उनसे विल्कुल बात नहीं कर रही थी। अगर करती भी थी, तो मेरी आवाज़ या लहजा अव पहले जैसा नहीं रहा। अव मेरी आवाज़ बेहद उत्तापहीन होती थी। मेरी आवाज़ में विरक्ति होती थी; थकान होती थी! जाहिर था, ङ को अव मेरी मेहरवानी में दिन गुज़ारते हुए संकोच होने लगा था, लेकिन और कोई उपाय भी नहीं था। इस देश में उपासे मरना होगा। वह प्रवल भूख से बौखलाया हआ, वह गोग्रास की मद्रा में वर्गर. रोटी निगलने लगा। किसी बंगाली का ऐसा करुण दृश्य देखकर मैं मन-ही-मन दूर से देखू, मुझे इसकी भी फुर्सत नहीं थी। चाहे जैसे भी हो, सबसे पहले पेट में कुछ डालना होगा। हम ठहरे गरीब देश के इंसान! अगर खाना माँगें तो लोग समझेंगे, हम लोग बेहद खाँव-खाँव करते हैं। खैर, अगर सोचेंगे, तो सोचने दो। मुझे अपने को सख्त बनाना होगा। यहाँ एक ही चीज़ ने मुझे शांत बनाए रखा था। फ़िलहाल, इस घर में टेलीफोन तो था। वैसे मुझे कहीं फोन करने की मनाही थी क्योंकि मैं इन दिनों किसी गप्त जगह रह रही थी। सरक्षा कारणों से मेरे पता-ठिकाने के बारे में भूल से भी किसी को ख़बर न हो-यही शर्त थी! मेरे लिए इतनी मुश्किल शर्त मानना संभव नहीं था। मैंने नियम तोड़कर पहला फोन निखिल सरकार को किया। रात के अँधेरे में मुझे किस तरह अपने घर से निकलना पड़ा, विदेश-भुंई में कहाँ आ पड़ी हूँ, कितनी दूर पहुँची हूँ, मैं उन्हें एक साँस में बता गयी। बाहर से देखें, तो निखिल सरकार से मेरी दोस्ती गुरु-शिष्य जैसी है, लेकिन मैं गुरु-शिष्य के रिश्ते में विश्वास नहीं करती। निखिल दा को प्रणाम करना तो दूर की बात, मैंने कभी नमस्कार भी नहीं किया, लेकिन उनसे मेरे रिश्ते में अपार स्नेह और श्रद्धा मौजूद है। लेकिन इस वजह से इसे पिता-पुत्री का रिश्ता भी नहीं कहा जा सकता। मेरा रिश्ता औरत-मर्द का है। लेकिन यह किसी किस्म के प्यार-मुहब्बत या सेक्स का भी नहीं है। इसे आम दोस्ती की क़तार में भी शामिल नहीं किया जा सकता। यह रिश्ता इन सबसे ऊपर है। वैसे यह बहुत सारी भावनाओं के ऊपर है। यह रिश्ता सच्चे इंसान का सच्चे इंसान से है।

इस घर से फोन किया जा सकता है या किया जा सकेगा, यह ख़बर पाकर टु भी फोन पर हहाकर टूट पड़े। बेहद चिंतित लहजे में वे अपने परिवार के किसी वंद से बात कर रहे थे। क्या अपनी बीवी से? शायद!

इतनी रात के वक्त भी कोई आकर मुझसे रेस्तरां में मिलेगा, मेरी यह उम्मीद मुझे दगा दे गयी। नहीं, कोई नहीं आया। अव अगर मैं कहीं जाना चाहूँ, तो पलिस का सायरन बज उठेगा। घर में जो पुलिस मौजूद रहती है, वह उसी घर में रहती है। एक दल जाता है, एक दल आ पहुँचता है। ड्यूटी ही इसी तरह की है और जव घर से बाहर जाती हूँ, तो भायूं बजाकर पुलिस की दस-दस गाड़ियाँ आगे-पीछे जाती हैं। बीच वाली गाड़ी में मुझे बिठाया जाता है। चूंकि गैबी ने पुलिस-फौज को कुछ भी नहीं बताया था, इसलिए वे लोग मुझे लेने भी नहीं आएँगे और पुलिस के विना मुझे कहीं जाने भी नहीं दिया जाएगा। घर में जो पुलिस मौजूद है, वह इस वात पर नज़र रखती है कि बाहर से कोई आततायी अंदर न घुसने पाए और अंदर जो 'माल' है, वह बाहर की तरफ क़दम न बढ़ाए। हाँ, वे लोग स्वीडिश पुलिसिया जुबान में, मुझे 'माल' या 'ऑब्जेक्ट' बुलाते हैं। सुना है, यहा नाम लेना भी सुरक्षा के लिए एक धमकी है। अस्त, जिंदगी बचाने के लिए जिस किसी भी परिस्थिति में जीना या रहना, शुभ-बुद्धि का लक्षण है। मैं अक्सर किचन में घुसकर बैठी रहती हूँ। फोन किचन की मेज़ पर ही रखा है। यह किचन हम इस्तेमाल कर सकते हैं या नहीं, हमें बताया नहीं गया है। पुलिस वाले अपने ढंग से कॉफी बनाकर पीते हैं, लेकिन उस किचन का ओना-कोना छानने पर खाने की जो चीजें मिलीं, उनमें से अधिकांश चीजें में नहीं पहचानती। पहचानी हुई चीज़ है मछली! लेकिन मछली भी पैकेट बंद! मछली का पैकेट भी अब लाल हो चुका है। यह क्या अच्छी है? पकायी हुई या सिर्फ उबाली हुई? ना, यह समझने का कोई उपाय नहीं है बात यह है कि इसे खाया कैसे जाता है, मुझे नहीं मालूम! इसे क्या कच्चा ही खा लूँ या तेल-मसाले में पकाकर खाऊँ! पकाने के लिए यहाँ तेल-मसाला भी नहीं है। कुछेक पल, उस पैकेट को हिलाते-डुलाते रहने के बाद मैंने उसे फ्रिज के दूसरे दराज में रख दिया, जहाँ वह पहले रखा हुआ था। फ्रिज में दो अंडे भी पड़े हुए थे, लेकिन यहाँ रांधने-पकाने का कोई उपाय नहीं था। तेल-मसाले का ही पता नहीं था। पागलों की तरह मैं चावल खोजती रही। कम-से-कम चावल ही उबालकर खा सकती थी। मैंने वहाँ पड़े हुए सारे डिब्बे चुपचाप, बड़ी सावधानी से खोल-खोलकर देखे। चावल कहीं नहीं थे। साग-सब्जी का भी पता नहीं था। अगर साग-सब्जी ही होती, तो कम-से-कम नमक में तो उबालकर खाई जा सकती थी। काफी देर तक खोजने-टटोलने के बाद एक सफेद लिफाफे में सफेद पाउडर जैसा कुछ हाथ लगा। यह क्या गेहूँ का चरा हे या और कछ? फ़िलहाल कछ भी खाकर अगर जिंदा रहा जा सके! जो काम मैंने कभी नहीं किया, उस वक़्त वही कर डाला। उस अचीन्हे सफेद चूरे को पानी में घोलकर, गोला बना लिया और हथेली पर रखकर उसे पतला किया तथा सॉसपैन में डालकर उसे गर्मागर्म सेंक लिया। जो खाना मैंने कभी मुँह में नहीं डाला, उस वक्त वही खा लिया। उबले हुए अंडे और सेंकी हुई कोई अचीन्ही चीज़! वही  सब ऊ ने भी खाया।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book