जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
उन्होंने बेहद उदास लहजे में कहा, "मुझे लगता है, तुम्हारे कार्यक्रम तक मेरे रुकने की ज़रूरत नहीं है। मैंने सोचा था कि भाषा के मामले में मैं तुम्हारी मदद करूँगा। अव देख रहा हूँ, तुम आराम से चला सकती हो।"
मैंने सिर हिलाकर जवाब दिया, "नहीं, नहीं, मुझे कोई परेशानी नहीं है।"
ङ ने लंबी उसाँस छोड़ते हुए फिर कहा, “तब में चला ही जाऊँ। तुम क्या कहती हो?"
मैंने अपनी निरुतप्त निगाहें खिड़की पर गड़ा दीं। मैं मन-ही-मन चाहती थी कि ङ चले जाएँ। ङ के बारे में, मेरे मन में जो संशय जाग उठा था वह धीरे-धीरे मेरे अंदर, कहीं गहरे जड़ें जमाता जा रहा था।
रातें बेहद अजीव गुज़रती थीं। एक कमरे में ङ ! कहीं दूसरे कमरे में मैं! शब्दहीन! वेआवाज़ ! बीच में सुरक्षा-पुलिस की भीड़ का शोर! पुलिस मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है। इतनी सारी पुलिस लेकर चलने-फिरने की मुझे कोई ज़रूरत नहीं है। यह बात मैंने गैबी से भी कही। उसने पुलिस अफसरों को बतायी। उन लोगों ने अपने कार्यालय को सूचित किया। जवाब मिला, इसके अलावा और कोई उपाय नहीं है। मुझे पुलिस के पहरे में ही रहना होगा यानी एक अतिरिक्त उपद्रव मेरे तन-बदन से चिपका रहेगा। मेरे मन में सवाल जाग उठा और कितने दिन?
सुबह सबेरे गैबी हाथ में एक ख़त लेकर आ पहुँचा। कार्ल विल्ट का ख़त! कार्ल बिल्ट स्वीडन के प्रेसीडेंट थे। ख़त में लिखा था-प्रिय तसलीमा, आपको मुसीबत से निकालकर हम सब खश हैं। स्वीडन में आपका स्वागत है। उम्मीद है. इस मल्क में आपको सुरक्षा की कोई कमी नहीं होगी। यहाँ आप निश्चित मन से, निर्विघ्न अपना काम-काज जारी रख सकती हैं। आपसे आमने-सामने मिलने की इच्छा है... वगैरह-वगैरह!
वह ख़त मेरे लिए अन्य किसी भी आम ख़त की तरह ही था। मुझे इस किस्म का खत पाने की आदत है। हुँः देश के प्रेसीडेंट का ख़त! प्रेसीडेंट क्या जानते हैं कि मैं कहाँ, किसके घर में पड़ी हूँ? यान हेनरिक अपने बीवी-बच्चों के साथ, कहीं छुट्टी पर गया है। उसके लौटने के पहले मुझे यह घर छोड़ देना होगा और तब मैं कहाँ जाऊँगी? कहाँ रहँगी? यह सब देखने की जिम्मेदारी किसकी है? मैं अभी भी यह बात नहीं जानती। प्रेसीडेंट को क्या इस बात की जानकारी है? . इन सबके बीच अपना आपा बेहद बुद्ध-बुद्ध लगता है। मैंने वह ख़त मेज़ पर रख दिया और गैबी से जानना चाहा कि यहाँ मेरे रहने और खाने-पीने का क्या इंतज़ाम है? लेकिन उसे ये तमाम बातें कहीं से भी अहम नहीं लगतीं। उसने बताया कि खाने का सामान लाकर उसने रसोई में रख ही दिया है! कौन-सा खाना? प्लास्टिक के पैकेट में रखा, महज भाप और उमस से पकी हुई मछली? और उस टिन के डिब्बे में प्रिज़र्वेटिव में डूबे हुए चंद गाजर और बरबटी? इसके अलावा दुर्गन्ध भरी समुद्री मछली? दो साल पहले प्रिज़र्वेटिव के पानी में प्रोसेस की गयी मछलियाँ? घर में कुछ भी नहीं है, यह खयाल आते ही उसने अतिरिक्त ज़ोर देकर मुझे शाम को अपने घर आने का आमंत्रण दिया। उसने बताया कि वहाँ रात के डिनर का इंतजाम वह खुद करेगा। ङ ने स्वीडन छोड़कर जाने का फैसला किया है, जबकि वे जाने की निर्धारित तारीख से पहले जा रहे हैं। इसके अलावा वे सीधे ढाका जाने के बजाय फ़िलहाल लंदन जाएँगे। उन्हें टिकट बनवाने के लिए बाहर जाना होगा। लेकिन छ अकेले ही वाहर गए या कोई पुलिसवाला उन्हें ले गया, मुझे नहीं मालम! मैंने दरवाजा अंदर से उढ़का दिया और विस्तर पर चित लेट गयी। सच पूछा जाए, तो मेरे दिमाग में कोई सोच नहीं थी! कुछ भी नहीं था! दिमाग बिल्कुल खाली था!
शाम को मुझे और ङ को गैवी ग्लेइसमैन के कैटरीना वांगाटोर अपार्टमेंट में ले जाया गया। वहाँ ‘एक्सप्रेशन' पत्रिका के साहित्य-संस्कृति विभाग की संपादिका सत्येनियूस मेरा इंटरव्यू लेने वाली थी। कोई फोटो पत्रकार तस्वीरें लेने वाला था। गैवी ग्लेइसमैन खुद लेखक या कवि है। इस बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं थी।
मैंने उसी से पूछा, “तुमने कितनी किताबें लिखी हैं?"
"लिखी हैं! काफी सारी।"
प्रबल उत्साह से भरकर मैंने गैबी की किताबें देखनी चाहीं। मंद-मंद मुस्कुराते हए गैवी किताबें दिखाने की बात टाल गया। गैवी ने बताया, वह 'एक्सप्रेशन' पत्रिका का सम्पादक है। उसी पत्रिका के साहित्य-विभाग में है। अपने बारे में गैवी कभी ज्यादा वात नहीं करता। अगर कुछ जानना भी चाहो, तो बस, थोडा-बहत ही बताता था। उसकी त्वचा का रंग यूरोपवासियों की तरह गोरा-चिट्टा नहीं था! कैसा तो पीलापन लिए हुए! ऐसा था गैबी! गैवी के कमरे में लगातार फोन बजता हुआ! हर पल फैक्स घनघनाता हुआ! जितने भी फोन-फैक्स आ रहे थे, सब मेरे बारे में! दुनिया भर में ऐसा कोई भी समाचार माध्यम नहीं था, जिसने फोन न किया हो, फैक्स न भेजा हो। उन सभी लोगों का एक ही अनुरोध था-तसलीमा का इंटरव्यू चाहिए। गैबी का एक ही जवाब था-'संभव नहीं है!' हाँ, गैवी इसी में व्यस्त था। जहाँ कहीं, जो भी इंटरव्यू देना होता था, सब गैबी ही देता था। तसलीमा कैसे आयी, इस वक्त कहाँ है, क्या कर रही है, क्या सोच रही है, उससे भेंट हो सकती है या नहीं-इन सभी सवालों का जवाब गैबी ही दे रहा था। अन्य कोई भी नहीं। उसने अपने दफ्तर से लम्बी छुट्टी ले ली थी। आजकल यही उसका सबसे बड़ा काम था।
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