जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
मारिया सत्येनियूस इंटरव्यू लेकर चली गयी। मैं गैबी के फोन-फैक्स के उस विरामहीन उत्सव को विस्मित निगाहों से देखती रही।
गैबी ने हँसकर कहा, "पूरी दुनिया तुम्हारे लिए पगला गयी है। मुझे भी इन्हीं सव में व्यस्त रहना पड़ता है। अपने लिए तो मुझे फुर्सत ही नहीं है। उस पर भी मैं चुन-चुनकर लोगों से कह रहा हूँ कि वे पेन क्लब के समारोह में ज़रूर आएँ, लेकिन किसी को भी अलग से इंटरव्यू नहीं मिलेगा। इसके अलावा विभिन्न देशों से भी आपके लिए आमंत्रण आ रहे हैं।"
"कैसा आमंत्रण?" "सैकड़ों देश तुम्हें व्याख्यान देने के लिए बुला रहे हैं। इसके अलावा एक
वात और है...।" उसने ज़ोर का ठहाका लगाया।
"ऐसे हँस क्यों रहे हैं?"
"अनगिनत प्रकाशक तुम्हारी कितावं छापना चाहते हैं।''
"अच्छा, सच?"
जवाव में गैवी ने फिर ज़ोर का ठहाका लगाया।
''कौन-से देश? स्वीडन के देश?"
"सिर्फ स्वीडन? यूरोप के सभी देश! जर्मनी, इटली, स्पेन, नॉर्वे, डेनमार्क ।"
"यह तुम क्या कह रहे हो?' विश्वास और अविश्वास के बीच झूलती हुई मेरी आवाज़!
"जो कह रहा हूँ। ठीक कह रहा हूँ।"
"धत्! मुझे नहीं लगता कि किसी को मेरी कितावें छापने में दिलचस्पी होगी।"
गैवी हँस पड़ा।
"इनमें से यूरोप के नौ देश तुम्हारी किताब की माँग कर रहे हैं।"
"कहाँ? उनके ख़त कहाँ हैं?"
"पागल हुई हो? तुम्हें किसी को भी जवाब नहीं देना है।"
"क्यों? जवाव क्यों नहीं दूं?"
"इंतजार करो! आज ही नॉर्वे से ख़त आया है। नॉर्वे के दो-दो प्रकाशक तुम्हारी कितावें चाहते हैं। अब जो ज्यादा रुपए देगा. बस. उसी को अपनी किताब देना। पहले से ही किसी को भी जवाब देना ठीक नहीं होगा।"
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