जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
बहरहाल, गैबी ग्लेइसमैन के पते पर या उसके फैक्स पर मेरे सारे पत्र वगैरह आ रहे थे। मुझे अंदाज़ा हो गया कि इस देश में स्वीडिश पेन क्लव ही मेरा पता-ठिकाना है। गैवी के अलावा पेन क्लब के और किसी को भले न पहचानती होऊँ, गैवी कोई लेखक है या कवि, मुझे भले ही इसकी जानकारी न हो, ‘एक्सप्रेशन' नामक टेब्लॉयड पत्रिका के पत्रकार के तौर पर वह पेन क्लव का सदस्य था और इन दिनों प्रेसीडेंट भी था तथा मेरा अभिभावकत्व फ़िलहाल उसी के हाथों में था, यह बात अगर मैं चाहूँ भी तो अस्वीकार नहीं कर सकती। कौन-सी सबसे बड़ी पत्रिका है या सवसे ज़्यादा लोकप्रिय है और सबसे ज़्यादा बिकती है-गैवी से जब भी मैंने सवाल किया, उसका जवाव होता था-एक्सप्रेशन! हालाँकि 'डगेनस नेइहेटर' नामक पत्रिका देखने के बाद मुझे पक्का विश्वास हो गया है कि यही पत्रिका बड़ी है! यह बात भी गैबी ने ही तय कर दी कि स्वीडन की किसी और पत्रिका में नहीं, सिर्फ ‘एक्सप्रेशन' में ही मेरा ‘एक्सक्लूसिव' इंटरव्यू जाएगा। मेरे ‘पब्लिक एपीयरेंस' के दिन अन्यान्य मीडिया मुझे सिर्फ दूर से देखेंगे।
"क्यों? अन्यान्य पत्रिकाओं ने क्या कसूर किया है, ज़रा बताओ?"
"अन्यान्य पत्रिकाओं के लिए तुम्हें फुर्सत नहीं है।"
"किसने कहा, फुर्सत नहीं है? मैं तो खामखाह घर में, खाली-खूली ही बैठी हूँ।"
गैबी मेरे सामने से उठ जाता था। दुनिया-भर की पत्रिकाओं की तरफ से मेरे साक्षात्कार के लिए फोन और फैक्स आते रहे। गैबी ही जवाव देता था कि मेरे पास
वक्त नहीं है। जिंदगी में इतनी सारी फुर्सत, मुझे पहले भी कभी मिली थी, मुझे याद नहीं पड़ता। यहाँ इस परदेस-भुंई में हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहने के अलावा मेरे पास और कुछ भी करने को नहीं था।
“तुम जो मीडिया को यूँ नाराज़ करते जा रहे हो, गैवी, इसका नतीजा क्या भला होगा?"
‘‘क्या होगा? क्या करेंगे वे लोग? कुछ भी नहीं कर सकते।"
साक्षात्कार देने या न देने के बारे में ख़ासकर इस परिस्थिति में, अपने शुभाकांक्षियों से बातचीत तो हो ही सकती है। लेकिन यह भी सच था कि मेरी साँसे अटकने लगी थीं। अपने ही मामले में फैसला मैं खुद न लूँ, कोई और ले, इस ख़याल से मेरा दम घुटने लगा। मैं इंटरव्यू दूं या न दूँ, इसका फैसला मुझे क्यों नहीं लेने दिया जा रहा है? मेरी आज़ादी को धर-पकड़कर यूँ वक्सावंद कर दिया गया था।
गैबी ने एक विशाल स्तूप पर से एक पत्रिका उठाकर दिखाई। मेरे बारे में उसका लिखा हुआ कोई लेख आज ही प्रकाशित हुआ था।
"क्या लिखा है तुमने?'' मेरा यह सवाल बेवकूफों की तरह एक कोने में पड़ा रहा।
गैवी ने मेरे कौतुहल की तरफ पलटकर भी नहीं देखा। उसने बताया भी नहीं कि उसमें क्या लिखा हुआ है।
कुछ देर बाद जब मेरा कौतूहल सड़-गलकर बिलकुल चिता पर बिछ गया, उसने कहा, "तुम्हारा लिखना-पढ़ना यहाँ नहीं हो रहा है, यही ख़बर लिखी है।"
"मेरा लिखना-पढ़ना नहीं हो रहा है, यह तुमने कैसे समझ लिया?" मैंने सवाल किया।
"तुम अपना टाइपराइटर भी लेकर नहीं आयीं, लिखना शुरू नहीं कर पा रही हो-यही लिखा है मैंने।"
"तुमसे किसने कहा कि मैं टाइपराइटर पर लिखती हूँ?"
“यही तो कहा था तुमने।"
"मैंने ऐसा कभी नहीं कहा, क्योंकि जिंदगी में मैंने कभी टाइपराइटर पर नहीं लिखा। टाइपराइटर पर लिखना मुझे आता ही नहीं। मैं कंप्यूटर पर लिखती हूँ।"
"कप्यूटर पर?" गैवी की आँखें सिकुड़ आईं। होंठों की कोरों में मुस्कान झलक उठी।
''हाँ। कंप्यूटर पर!"
“मतलब। जैसे हम लोग कंप्यूटर इस्तेमाल करते हैं, उस तरह?"
"हाँ, उसी तरह!”
"तुम्हारे मुल्क में लोग कंप्यूटर इस्तेमाल करते हैं?" गैबी की आँखों में संशय चमक उठा।
"बेशक करते हैं!"
"तुम कब से उस पर लिखती हो?"
"उस पर, मतलब? कंप्यूटर पर?"
"हाँ, उसी पर!"
"काफी सालों से लिखती आ रही हूँ। कंप्यूटर के बिना अब मुझे लिखने में परेशानी होती है।"
गैवी की आँखें सिकुड़ी की सिकुड़ी रह गयीं। नहीं, एक गरीव देश की लड़की कंप्यूटर पर लिखती है, उसे यह विश्वास योग्य वात नहीं लगी। इसीलिए कंप्यूटर की जगह टाइपराइटर लिखकर उसने इस मामले को शोभन या ग्रहणीय वना डाला था।
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