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दुनिया रंग-बिरंगी

विमल मित्र

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :72
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5132
आईएसबीएन :81-8112-014-0

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एक श्रेष्ठ उपन्यास

Duniya Rang-Birangi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अपने लेखक-जीवन में मैंने इतने आदमी देखे हैं और इतनी घटनाओं का मैं साक्षी हूं कि अगर मैं उन्हें लिखने बैठूं तो एक जन्म में तो हर्गिज पूरा नहीं कर सकूंगा और एक सौ उपन्यास लिखने पर भी घटनाएं शेष नहीं होंगी।
प्रत्येक कहानी का एक आरंभ होता है, एक मध्य होता है और एक अंत। अधिकांश कहानियों की शुरूआत बड़ी दिलचस्प होती है, पर आखिर एक पहुंचते-पहुंचते उनका दम टूट जाता है। बहुत-सी कहानियों के अंत में कोई क्लाईमेक्स ही नहीं मिलता। लेकिन जिस, कहानी की शुरूआत भी दिलचस्प होती है और जिसका अंत भी खूबसूरत होता है-वही कहानी पाठकों का मन छू जाती है।

किंतु शुरू से आखिर एक किसी कहानी या उपन्यास को दिलचस्प बनाने के लिए काफी समय देने की जरूरत होती है। वह समय कौन देता है ? बंगाल में पूजा-विशेषांकों के लिए उपन्यास लिखने के लिए संपादकगण पर्याप्त समय नहीं देते। यह उपन्यास भी पूजा-विशेषांक के लिए सम्पादक के तकादे पर लिखा गया है। उस पर मजा यह कि मेरे दिमाग में उपन्यास का कोई प्लॉट था ही नहीं। इसलिए मैंने अपने एक वकील-मित्र के पास जाकर उसको अपनी समस्या बतायी।
मेरी समस्या सुनकर मेरे मित्र ने कहा-क्यों, तुम्हारी वह मिठू दीदी जो है, उसी के बारे में लिखो न। उसका चरित्र  तो बड़ा ही अद्भुत था।

मैंने कहा-उसे तो मैंने कभी का लिख डाला है..।
मेरे दोस्त ने फिर कहा-तो फिर पटेश्वरी बहू रानी ? वहीं, तुम्हारे विद्यासागर कॉलेज में पढ़ने के समय....!
मैंने हंसते-हंसते कहा-उसके बारे में भी लिख डाला है भाई। मेरा उपन्यास ‘साहब बीवी गुलाम’ अगर तुम पढ़ते, तो वह चरित्र तुम्हें वहाँ मिल जाता...
तब मेरे देस्त ने कहा-तो फिर तुम्हारे गांव की उस नयनदारा का चरित्र अरे उसी चौधरी-बाड़ी की कहानी, जिसमें स्वयं गृहस्वामी अपनी पुत्रवधू के कमरे में रात के अंधेरे में चला जाता था। उसी के बारे में लिखो न...।
मैंने कहा-लगता है तुमने मेरी कोई भी किताब पढ़ी नहीं। मेरी किताब ‘मुजरिम हाजिर’ में ही तुम्हें वह चरित्र मिल जाएगा। मेरे दोस्त ने पूछा-तो फिर क्या करोगे ?

मैंने कहा-क्या करूं, यह तुम ही बताओ।
मेरा दोस्त काफी देर कर सोच-विचार में डूबा रहा।
आखिर उसने कहा-आज रहने दो। देखता हूं कि कल मैं तुम्हें कोई कहानी दे पाता हूं कि नहीं।
यह कहकर मैं अपने घर लौट आया।
मेरे जीवन में ऐसा कई बार हुआ है। इसके लिए बेशक और कोई दूसरा आदमी जिम्मेदार नहीं, जिम्मेदार खुद मैं ही हूं।
बहुत-से लोग समझते हैं कि जब मैंने इतनी मो़टी-मोटी किताबें लिख डाली हैं तो शायद कलम लेकर बैठने पर ही मेरी कलम से लेखन-धारा प्रवाहित होने लगेगी।

लेकिन दरअसल यह बात नहीं है।
यह तो कोई जानता नहीं कि मेरी इन किताबों के पीछे किन अमानुषिक यंत्रणाओं का इतिहास छिपा हुआ है। दूसरे लोग जब सभा-समितियों में जाकर, फूलों की माला गले में डालकर आनंद मनाते हैं, उस समय मुझे विश्राम नहीं होता। मेरे मन-मस्तिष्क में तब कहानी को लेकर भारी यंत्रणा होती रहती है। लोगों ने मुझे जितना प्यार दिया है, उसकी दस-गुनी तकलीफें भी दी हैं उन्होंने।
जिन्होंने मुझसे जोर-जबर्दस्ती लिखवाया है, उन्होंने हमेशा स्नेहवश ही लिखवाया हो, ऐसी बात नहीं। लेकिन इसका परिणाम उल्टा हुआ है। वह सब लिखकर ही मैंने लोगों का प्यार पाया है। उसके साथ दस-गुना आघात पाने पर भी जन-साधारण के उस प्यार को ही मैंने अधिक प्रमुखता दी है।

किंतु उपन्यास लिखते-लिखते भला उसके बारे में इतनी बातें मैं आखिर क्यों लिख रहा हूं ?
कह सकते हैं कि यह भी कहानी की एक तरह की भूमिका ही है...।
गीत गाने के पहले जैसे गायक आलाप करता है तथा परिणाम के पहले जैसे पूर्व राग की रीति है.... यह भी बहुत कुछ वैसा ही है।
मैंने अपने जिस दोस्त का जिक्र किया है, वह बीच-बीच में मुझसे कहा करता-तुम खुद तो बहुत कम बोलने वाले हो। तो फिर तुम अपनी रचनाओं में इतने बातूनी क्यों बन जाते हो ?
मैं जवाब देता-इसीलिए कि अपने वास्तविक जीवन में मैं बहुत कम बोलता हूं...
मेरा दोस्त कहता- तुम्हारी बात समझ में नहीं आयी।

मैं विस्तारपूर्वक समझाते हुए कहता-फूलों के गुच्छे में क्या सिर्फ फूल ही रहते हैं, और कुछ भी नहीं ? तुम अगर भली-भाँति लक्ष्य करो तो देख पाओगे कि फूलों के गुच्छे में जितने फूल रहते हैं, उससे पांच गुना अधिक रहते हैं देवदारू के पत्ते। उन पत्तों से फूलों का सौन्दर्य घटता है या बढ़ता है, तुम्हीं बताओ !
दोस्त कहता-हम लोग इतना समझते नहीं भाई ! हमारा कहना यही है कि तुम्हें जो कुछ कहना हो, झट-पट कह डालो। हम भी झट-पट सुन लें...। बस, झंझट खत्म हो !
मैं कहता-तब तो कहानी लिखना बड़ा ही आसान काम हो जाता। तुम्हारी भी जान बचती और मेरी भी।
दोस्त कहता-सो तुम चाहे जो कहो। मैं तो भाई साहित्य-वाहित्य कुछ समझता नहीं। मैं तो जासूसी कहानी पढ़ाना पसंद करता हूं और उसे ही पढ़ता हूं।

सिर्फ मेरे दोस्त की ही बात नहीं है, पृथ्वी पर इस तरह के पाठकों की संख्या नगण्य नहीं। उसके पास मन जरूर है, लेकिन मनन नाम की जो चीज होती है, वह उनके पास नहीं। और वजह है कि जासूसी कहानियों के पाठकों की संख्या भी कम नहीं है।
कहानी लिखने से पहले उसका अस्तित्व लेखक के मस्तिष्क में छिपा रहता है। वह अस्तित्व निश्चय ही बड़ा सूक्ष्म होता है, लेकिन सर्वदा जाग्रत और भसमान रहने वाला। मनुष्य के अगोचर में ही उसका निवास है। उसे देखा नहीं जा सकता। उसे रूपायित करने के लिए प्रयास करना पड़ता है। विश्राम, निद्रा और विलास को तिलांजलि देनी पड़ती है। उसी तरह साधना द्वारा भी अशरीरी कहानी शारीरिक-रूप धारण करती है।
वे कहते हैं-कहानी दीजिए।

उनसे यदि कहा जाये कि समय चाहिए, तो वे नाराज हो जाते हैं। वे कहते हैं-यह सब हम कुछ भी नहीं जानते। समय देने की हमें जरूरत भी नहीं। हमें तो सिर्फ कहानी चाहिए। हमें अपनी कहानी दीजिए...
यह सतयुग तो है नहीं कि मैं क्रौंच-मिथुन की पीड़ा देखकर अधीर हो जाऊं और कलम की नोक से कल-कल करती कहानी बह निकले ! नहीं, यह तो होने का नहीं। यह कलियुग है। कलियुग में क्रौंच-मिथुन के दर्शन हो ही नहीं सकते। और वाल्मीकि ? वाल्मीकि तो इस युग में अदृश्य ही हो चुके हैं।
इस तरह की हालत में मैं और क्या करता ? इसीलिए मुझे अपने दोस्त के दरवाजे पर जाना पड़ा।
मेरे इस दोस्त को अगर लंगोटिया यार कहा जाये तो कुछ गलत नहीं होगा। कभी हम लोग साथ-साथ पढ़ा करते थे।
उस समय मेरा यह दोस्त मालदा में रहा करता था। वह अपने चाचा जी के घर में ही बड़ा हुआ है। मैं भी उस समय कुछ वर्षों तक मालदा के स्कूल में ही पढ़ा करता था।

उसी समय अपने इस दोस्त जहर के साथ मेरा परिचय हुआ था। जहर के पिता जी जहर के बचपन में मर चुके थे। विधवा मां थी। जहर के चाचा ने अपनी विधवा भाभी और भतीजे को अपने घर में आश्रय दिया था। उसके बदले जहर को घर का सारा काम-काज करना पड़ता। घर के सभी लोगों की फरमाइश उसे पूरी करनी होती।
जहर जानता था कि वे सब गरीब हैं, चाचा के टुकड़ों पर पलने वाले। इसलिए वह जी जान लगाकर पढ़ने-लिखने की कोशिश करता।
वह जानता था कि पढ़ाई में अव्वल आने पर ही उसकी और उसकी विधवा मां की इज्जत बचेगी। उस समय से ही मैंने देखा है कि हम लोगों की तरह न पान खाता और न ही चाय या सिगरेट पीता है।

वह कहता-नहीं भाई, इन चीजों का नशा-वशा करना हमारे जैसे लड़के के लिए ठीक नहीं। मैं तो यूं ही गरीब हूं और उसके ऊपर यदि मैं नशे का गुलाम भी बन जाऊंगा तो कौन मेरे नशे का खर्च जुटा कर देगा ? इसलिए तो मैं उस रास्ते पर जाता ही नहीं, भाई। हम लोग तो जहर की हालत से वाकिफ थे। इसलिए इस मामले में हमने उसे कभी तंग नहीं किया।
उसके बाद मैं मालदा छोड़कर अपने पिता जी के साथ कलकत्ता चला आया। पिता जी के दफ्तर के बदल जाने के साथ ही मेरा स्कूल भी बदल गया। उसके बाद से जहर के साथ मेरा सम्पर्क-सूत्र टूट गया था।

उसके बाद क्या से क्या हो गया, इसका मुझे कुछ भी ख्याल नहीं रहा। जो इस संसार का सृष्टिकर्ता है, हम लोग उसके हाथ की कठपुतलियां हैं। सच पूछिए तो हमारी कोई क्षमता है ही नहीं। मैं तो समझता हूं। कि पेड़ का एक पत्ता तक उस सर्व-शक्तिमान की इच्छा के बिना हिलता नहीं। मैं कह नहीं सकता कि मेरे ऐसा कहने पर कोई भाग्यवादी कहकर बदनाम करेगा या नहीं। लेकिन अगर मुझे बदनाम करे, तो मैं भी अपने विश्वास से तिल-भर भी टलूंगा नहीं।
हमारे देश में भर्तृहरि नाम के एक ऋषि कवि थे। उन्होंने कहा है- कोई तुम्हें साधु बोलेगा या मूर्ख। सभी तुम्हें नाना प्रकार से विभ्रान्त करने की कोशिश करेंगे। लेकिन तुम किसी की भी तरफ ध्यान मत देना, सिर्फ एकाग्र मन से अपना काम करते जाना।

यह बात कितनी सच है, उसे मैं अपने जीवन में जिस तरह समझ सका हूं, उस तरह और कभी भी कोई दूसरी बात मैंने नहीं समझी।
जब आखिरकार मेरा एक ठौर-ठिकाना हुआ, तब एक दिन रास्ते में जहर के साथ मुलाकात हो गयी। मैंने तो उसे पहचान लिया, लेकिन वह मुझे पहचान नहीं पाया।
मैंने पूछा-तुम जहर हो न ?
फिर मेरी ओर देखकर कुछ देर तक अवाक् रह गया। फिर वह कहने लगा-भाई, मैं तो आपको ठीक-ठीक पहचान नहीं पाया।
लेकिन जैसे ही मैंने अपना नाम बताया, जहर ने खुशी के मारे मुझे गले से लगा लिया....

उसके बाद उसे मैं अपने घर ले आया था। हमारा परिचय फिर से घनिष्ठ हो उठा। हम लोग फिर पहले की भांति एकाकार हो गये और फिर उसके बाद से हम लोग नियमित रूप से मिलने-जुलने लगे।
मेरा जो पेशा है, उसमें लोगों के साथ मिलना-जुलना और अड्डेबाजी करना अपरिहार्य है। अड्डेबाजी किए बिना भी लेखक जरूर बना जा सकता है, पर सुलेखक बना जा सकता है या नहीं, इस पर मुझे संदेह है।
मैं एक-एक किताब लिखता और उसके साथ सलाह-मशवरा करता। वह एक-एक पृष्ठ सुनता और अपना मतामत व्यक्त करता। कभी वह कहता-यह पृष्ठ ठीक नहीं बना। मैं पूछता-क्यों ?
जहर कहता-इस तरह कभी लड़के-लडकी में प्रेम नहीं होता। इस पृष्ठ को तुम फिर से लिखो।
उसकी राय सुनने के बाद कभी मैं अपना लेखन बदल देता कभी-कभी नहीं भी बदलता।

जहर मेरा ऐसा दोस्त है जो साहित्य के बारे में कुछ समझता ही नहीं। जो आदमी साहित्य के बारे में कुछ समझता नहीं, उसे मैं अधिक पसंद करता हूं। इसका कारण यह है कि उसके साथ दिल खोलकर बातें की जा सकती हैं। साहित्य बड़ी ही सूक्ष्म वस्तु है। जो आदमी सहित्य की समझ रखता है, उसके साथ उस सूक्ष्म वस्तु की आलोचना करते वक्त मुंह से कोई अप्रिय बात निकल जाने पर तो खुद अपनी रात की नींद और दिन की शांति गायब हो जा सकती है।
उसके बजाय तो मेरा असाहित्यिक दोस्त ही भला है। साहित्य के बारे में अगर वह कुछ विपरीत मंतव्य भी व्यक्त करे, तो भी उससे मेरे मन पर कोई आघात नहीं पहुंचेगा।

खैर जो भी हो..। अब जहर की ही बात कहता हूं। जहर मुझसे प्रायः ही कहता-भई, तुम बुरा मत मानना। तुम्हारे उपन्यास में कहानी बड़ी ही धीमी चाल से आगे बढ़ती है, तुम अपनी कहानी में खूब घोटते रहते हो। जो कुछ कहना है, उसे कुछ झट-पट नहीं कह सकते ?
मैं कहता-लेकिन भाई, आदमी का जीवन भी तो धीमी चाल से चलता है। जीवन और कहानी क्या अलग-अलग हैं ?
जहर कहता-लेकिन भाई, हम तो साधारण आदमी हैं। कहानी के आखिर में क्या हुआ, यही जानने का इंतजार करते रहते हैं। और तुम वही बात इस तरह घुमा-फिराकर कहते हो कि हमारा धीरज जल्दी ही टूटने लगता है।
मैं कहता-देखो, सिनेमा और साहित्य में एक बुनियादी फर्क है। वह यह कि उपन्यास जितनी धीमी चाल से चलेगा, वह उतना ही उत्तम होगा। लेकिन सिनेमा जितना ही गतिसम्पन्न हो सकेगा, वह उतना ही श्रेष्ठ माना जाएगा।

जहर कहता-ये सब हुईं तत्त्व की बातें। हमारे जैसे साधारण आदमियों को यह सब जानकर कोई फायदा नहीं होगा।
जहर एक मामले में बढ़िया है। बढ़िया इसलिए है कि कुछ नहीं समझने पर भी बहुत कुछ समझने का ढोंग वह नहीं किया करता है।
सो आखिरकार मुझे इसी जगह की शरण में जाना पड़ा था। जहर दूसरे दिन फिर आया। मेरी समस्या की बात उसे याद थी ?
जहर ने पूछा-क्या हुआ ? क्या तुम्हारी समस्या का कोई हल निकला ?

मैंने कहा-नहीं भाई। इतनी जल्दी अगर समस्या मिट जाती तो फिक्र ही किस बात की थी ? और फिर हाथ में ज्यादा समय भी नहीं है। ये लोग तो बस ऐन मौके पर हड़बड़ी मचाते हैं। थोड़ा समय मिलता तो कुछ सोचता भी... ये लोग समय भी कम देंगे और बढ़िया रचनाएं भी मागेंगे। यह तो बहुत मुश्किल बात है। यह कोई बिजली का बल्ब तो है नहीं कि स्विच दबाते ही जल उठेगा। यह शायद सम्पादक और प्रकाशक का भी दोष नहीं है। यह दोष है इस व्यस्त युग का ही। स्पीड, और स्पीड...। इसलिए इस युग में कोई महान् सृष्टि नहीं हो रही। जो कुछ सृष्टि हो रही है उसे मध्यम दर्जे का ही कहना शायद ठीक होगा। यदि किसी महान् स्रष्टा के जन्म होने की संभावना हो भी, तो वह इस चक्की के पाटों के बीच में पड़कर पिस जाएगा-चूर-चूर हो जाएगा।

जहर के पास यह सब समझने लायक है ही नहीं या फिर वह कभी इन्हें समझने की इच्छा भी नहीं रखता। मेरी कुछ किताबों को उसने मजबूर होकर पढ़ा है, तभी उसे साहित्य के संबंध में सामान्य ज्ञान हुआ है।
मैंने इसलिए पूछा- क्या तुमने मेरे लिए कुछ सोचा है ? जहर ने कहा-जरूर सोचा है। कल रात बिछौने पर पड़े-पड़े मैं काफी देर तक तुम्हारे बारे में ही सोचता रहा हूं। आखिरकार जब कोई कूल-किनारा नहीं मिला तो मैंने सोचा कि अगर मैं अपनी ही कहानी तुमसे लिखवाऊं तो कैसा रहे ?
मैंने पूछा-तुम्हारी कहानी का मतलब ? क्या तुम्हारी अपनी जिंदगी से संबंधित कहानी  ?

जहर ने कहा-हां....! बिलकुल पर्सनल लाइफ की कहानी। बिलकुल सच्ची घटना। न तो यह कानों से सुनी हुई कहानी है और न ही आँखों से देखी हुई यह तो खुद मेरी आप बीती है।
मैंने कहा-सुनाओ तो, कैसी है तुम्हारी कहानी !
जहर कहने लगा-तुम तो जानते हो कि मैं अपनी विधवा मां के साथ अपने चाचा जी के घर पर उनके टुकड़ों पर पल रहा था। छोटी उम्र में पिता जी के गुजर जाने पर अपने रिशतेदार के घर पर विधवा मां को लेकर उनका आश्रित होकर रहना क्या चीज है, वह तुम सब कोई नहीं समझ सकते। पूरे साल-भर की स्कूल की फीस मेरे चाचा जी ही चुकाते। और फिर मां का और मेरे खाने और रहने का खर्च भी था ही। इस दया के विनमय में घर का सारा काम-काज मुझे और मेरी मां को ही करना पड़ता।

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