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नारी विमर्श >> प्यार का चेहरा

प्यार का चेहरा

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :102
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5135
आईएसबीएन :000

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नारी के जीवन पर केन्द्रित उपन्यास....

10

इतनी देर के बाद पटाई ने सागर के बारे में एक बात कही, "जरूर हो चुभ रहे होंगे। इस उम्र केलड़कों को औरताना गपशप के बीच बैठना पड़े तो कांटे ही बेधने लगते हैं। उसका पैर ठीक हो गया?"

सागर को फिर गुस्सा आ गया।

उसके पैर में मोच आने की बात पूरे मुल्क में प्रचारित कर दी गई है। ठीक हो गया है, इसकासबूत पेश करने के लिए सागर 'मैं जा रहा हूं' कहकर दनदनाता हुआ बाहर निकल गया।

गांठ के पास कसक जैसा महसूस हो रहा है। होने दो।

लतू ने जिसका उल्लेख किया था।

कोई दिदी।

कौन दिदा, यह याद नहीं आ रहा था। मां के बोलते ही स्मरण हो आया। मां बोली, "अरे पटाईबुआ ! खैर, तुमसे भी मुलाकात हो गई।

साहब दादू बोल पड़े, ''यही भय हो रहा था।"

"क्या भय, सुनू?"

पटाई का चेहरा कौतुक से दीप्त हो उठा।

"यही कि पटेश्वरी देवी डिब्बा हाथ में लटकाए हाजिर हो जाएंगी। और मैं अब तक नहायाभी नहीं हूं।"

पटाई का अच्छा नाम ‘पटेश्वरी' है, यह समझ में आया।

पटेश्वरी यानी पटाई हाथ के डिब्बे को नीचे रख उधर कहीं जाकर हाथ धो आयो और पल्लू सेचेहरे का पसीना पोंछती हुई बोलीं, ''ऐसा कब हुआ है बिनू दा कि मैंने आकर देखा हो कि तुम नहा चुके हो?"

"अहा, इतना बदनाम मत करो, कितने ही दिन...."

"फालतू बात पर यकीन मत करना, चिनु। हर रोज डेढ़-दो बजे इसी वक्त नहाना-धोना होता है।उसके बाद भोजन। बारह बजे भात पकाने से ठंडा हो जाता है। ऐसे में सेहत ठीक रह सकती है?"

विनू दा ने युवक की नाईं गर्वपूर्ण अदा के साथ दोनों बांहों को थपथपाते हुए कहा, "क्यों?देखने से सेहत क्या बिगड़ी हुई लगती है? क्यों, चिनु, तू ही बता।"

चिनु बोली, "रहने दो, मंगलवार की भरी दुपहरिया में अपने बारे में कुछ नहीं बोलनाचाहिए।"

"यह देख पटाई, चिनु भी तेरी ही तरह बातें कर रही है।"

फिर हंसी का वहीं रेला।

पटेश्वरी बिना किनारी की सफेद साड़ी का आंचल हिला-हिन्नाकर शरीर में हवा लगाते हुए कहतीहैं,'' कहती क्या यों ही हूँ? जानते नहीं, कहावत है-अहंकार मत करो जगत में भाई, नारायण का असली नाम हैं दर्पहारी।"

“लो, अब तेरे प्रवचन की शुरुआत हो गई।"

चिनु कहती है, "जाओ, तुम जाकर स्नान कर लो। मैं बल्कि इस बीच पटाई बुआ से गपशप करूं।”

"कर।" बिनू दा कहते हैं, "आज उसके भाग्य से तू है, वरना हर रोज भात लेकर आने परबैठे-बैठे झपकियां लेती रहती है। उसे देखते ही मैं भय से भागे-भागे नहाने चला जाता हूं।''

"अहो, क्या कहने हैं ! मेरे भय से तुम चींटी के सुराख में घुस जाते हो।" पटेश्वरी खुशी कीअदा के साथ कहती हैं, "सुन रही है न चिनु, बिनू दा की बातें। दो वक्त थोड़ा-सा खाकर मेरो उद्धार करते हैं, बस इतना ही। अनियम पराकाष्ठा तकपहुंच जाती है।"

साहब दादू हंसते हुए स्नान करने चले जाते हैं।....दोनों महिलाएं गपशप में मशगूल हो जातींहैं।

सागर सहसा अपने आपको अवान्तर जैसा महसूस करता है। वहां से चले जाने की इच्छा होती है उसे।इस पटेश्वरी नामक महिला ने एक बार ताककर भी नहीं देखा कि यहां कोई और भी आदमी है।

"मैं चलता हूं।"

सागर ने कहा।

मां बोली, "इस धूप में तू अकेले जाएगा? मैं भी तो जाऊंगी।"

“तुम जाओगी तो धूप कम हो जाएगी?"

"भले ही न हो। तुझे क्या यहां कांटे चुभ रहे हैं?”

इतनी देर के बाद पटाई ने सागर के बारे में एक बात कही, जरूर ही चुभ रहे होंगे। इस उम्र केलड़कों को औरताना गपशप के बीच बैठना पड़े तो कांटे ही बेधने लगते हैं। उसका पैर ठीक हो गया?''

सागर को फिर गुस्सा आ गया।

उसके पैर में मोच आने की बात पूरे मुल्क में प्रचारित कर दी गई है। ठीक हो गया है, इसकासबूत पेश करने के लिए सागर ‘मैं जा रहा हूं' कहकर दनदनाता हुआ बाहर निकल गया।

गांठ के पास कसक जैसा महसूस हो रहा है। होने दो।

लतू ने जिसका उल्लेख किया था।

कोई दिदी।

कौन दिदा, यह याद नहीं आ रहा था। मां के बोलते ही स्मरण हो आया। मां बोली, "अरे पटाईबुआ ! खैर, तुमसे भी मुलाकात हो गई।

साहब दादू बोल पड़े, ''यही भय हो रहा था।"

"क्या भय, सुनू?"

पटाई का चेहरा कौतुक से दीप्त हो उठा।

"यही कि पटेश्वरी देवी डिब्बा हाथ में लटकाए हाजिर हो जाएंगी। और मैं अब तक नहायाभी नहीं हूं।"

पटाई का अच्छा नाम ‘पटेश्वरी' है, यह समझ में आया।

पटेश्वरी यानी पटाई हाथ के डिब्बे को नीचे रख उधर कहीं जाकर हाथ धो आयो और पल्लू सेचेहरे का पसीना पोंछती हुई बोलीं, ''ऐसा कब हुआ है बिनू दा कि मैंने आकर देखा हो कि तुम नहा चुके हो?"

"अहा, इतना बदनाम मत करो, कितने ही दिन...."

"फालतू बात पर यकीन मत करना, चिनु। हर रोज डेढ़-दो बजे इसी वक्त नहाना-धोना होता है।उसके बाद भोजन। बारह बजे भात पकाने से ठंडा हो जाता है। ऐसे में सेहत ठीक रह सकती है?"

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