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नारी विमर्श >> प्यार का चेहरा

प्यार का चेहरा

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :102
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5135
आईएसबीएन :000

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नारी के जीवन पर केन्द्रित उपन्यास....

9

आज सागर उन सब झमेलों के बीच नहीं फंसेगा, यह तय कर पैट की कमर को टाइट कर उसने झुककरप्रणाम करना चाहा पर मां बोल उठी, “ए-ऐ, तेल मालिश कर रहे हैं, अभी प्रणाम नहीं करना चाहिए।'

खैर, जान बची बाबा।

वे बोले, “तेल मालिश करने के दौरान प्रणाम करने से क्या होता है?"

मां बोली, “परमायु का क्षय होता है।"

सुनकर वे कितना हंसने लगे !

एकबारगी ठठाकर।

इसी आदमी को उसकी पत्नी और लड़कों ने त्याग दिया है, यह सोचकर बड़ा ही आश्चर्य हुआसागर को।

"मैं तुम लोग का साहब दादू हूं, समझे? देखने में किस तरह लग रहा हूं? ठीक साहब की तरह?”

दुबारा हंसी का रेला।

उसके बाद तरह-तरह की पूछताछ करने लगे-

किस क्लास में पढ़ते हो? कौन-कौन से विषय हैं? कैसी पढ़ाई चल रही है?—यही सब।

मां बोली, “पहले पास कर जाए।"

साहब दादू ने डांटते हुए कहा, "तू चुप रह। भले आदमी का लड़का है, पास क्यों नहीं करेगा?तेरा बड़ा लड़का तो बहुत हो। इंटेलिजेन्ट दिखा।"

मां यों ही बोल पड़ी, "यह बड़े भाई के समान नहीं है। जरा भावुक है।"

उफ् ! इस तरह की बात बहुत ही बुरी लगती है।

उसके संबंध में कोई चर्चा छिड़े, सागर को यह पसंद नहीं। लेकिन उन्होंने उसके बारे में एकअच्छी बात कही। बोले, “सच? तो फिर तीसरे पहर मेरे पास चले आना, समझे? मैं तुम्हें एक जगह घुमाने ले जाऊंगा। सोचने की खुराक मिलेगी।"

वे लोग जब वहां से चलने को तैयार हो रहे थे, टिफिन कैरियर हाथ में लटकाए एक महिला नेप्रवेश किया।

छरहरे बदन, गोरी-चिट्टी और छोटे मुंह वाली इस विधवा महिला को सागर ने इसके पहले कभीनहीं देखा था।

ये ही शायद वह हैं।

लतू ने जिसका उल्लेख किया था।

कोई दिदा।

कौन दिदा, यह याद नहीं आ रहा था। मां के बोलते ही स्मरण हो आया। मां बोली, “अरे पटाईबुआ ! खैर, तुमसे भी मुलाकात हो गई।”

साहब दादू बोल पड़े, “यही भय हो रहा था।”

“क्या भय, सुनू?"

पटाई का चेहरा कौतुक से दीप्त हो उठा।

“यही कि पटेश्वरी देवी डिब्बा हाथ में लटकाए हाजिर हो जाएंगी। और मैं अब तक नहायाभी नहीं हूं।"

पटाई का अच्छा नाम 'पटेश्वरी' है, यह समझ में आया।

पटेश्वरी यानी पटाई हाथ के डिब्बे को नीचे रख उधर कहीं जाकर हाथ धो आयी और पल्लू सेचेहरे का पसीना पोंछती हुई बोलीं, “ऐसा कब हुआ है बिन दा कि मैंने कर देखा हो कि तुम नहीं चुके हो?"

“अहा, इतना बदनाम मत करो, कितने ही दिन...."

"फालतू बात पर यकीन मत करना, चिनु। हर रोज डेढ़-दो बजे इसी वक्त नहाना-धोना होता है।उसके बाद भोजन। बारह बजे भात पकाने से ठंडा हो जाता है। ऐसे में सेहत ठीक रह सकती है?"

विनू दा ने युवक की नाईं गर्वपूर्ण अदा के साथ दोनों बांहों को थपथपाते हुए कहा, “क्यों?देखने से सेहत क्या बिगड़ी हुई लगती है? क्यों, चिनु, तू ही बता।”

चिनु बोली, "रहने दो, मंगलवार की भरी दुपहरिया में अपने बारे में कुछ नहीं बोलनाचाहिए।"

"यह देख पटाई, चिनु भी तेरी ही तरह बातें कर रही है।

फिर हंसी का वही रेला।।

पटेश्वरी बिना किनारी की सफेद साड़ी का आंचल हिला-हिबाकर शरीर में हवा लगाते हुए कहतीहैं, “कहती क्या यों ही हूं? जानते नहीं, कहावत है-अहंकार मत करो जगत में भाई, नारायण का असली नाम है दर्पहारी।”

"लो, अब तेरे प्रवचन की शुरुआत हो गई।"

चिनु कहती हैं, “जाओ, तुम जाकर स्नान कर लो। मैं बल्कि इस बीच पटाई बुआ से गपशप करूं।

"कर।” बिनू दा कहते हैं, “आज उसके भाग्य से तू है, वरना हर रोज भात लेकर आने परबैठे-बैठे झपकियां लेती रहती है। उसे देखते ही मैं भय से भागे-भागे नहाने चला जाता हूं।"

"अहा, क्या कहने हैं ! मेरे भय से तुम चींटी के सुराख में घुस जाते हो।” पटेश्वरी खुशी कीअदा के साथ कहती हैं, 'सुन रही है न चिनु, बिनू दा की बातें। दो वक्त थोड़ा-सा खाकर मेरा उद्धार करते हैं, बस इतना ही। अनियम पराकाष्ठा तकपहुंच जाती है।”

साहब दादू हंसते हुए स्नान करने चले जाते हैं।''दोनों महिलाएं गपशप में मशगूल हो जाता हैं।

सागर सहसा अपने आपको अवान्तर जैसा महसूस करता है। बहां से चले जाने की इच्छा होती है उसे।इस पटेश्वरी नामक महिला ने एक बार ताककर भी नहीं देखा कि यहां कोई और भी आदमी है।

"मैं चलता हूं।"

सागर ने कहा।

मां बोली, "इस धूप में तू अकेले जाएगा? मैं भी तो जाऊंगी।"

"तुम जाओगी तो धूप कम हो जाएगी?"

भले ही न हो। तुझे क्या यहां कांटे चुभ रहे हैं?"

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