लोगों की राय

नारी विमर्श >> प्यार का चेहरा

प्यार का चेहरा

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :102
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5135
आईएसबीएन :000

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

223 पाठक हैं

नारी के जीवन पर केन्द्रित उपन्यास....

25

मृण्मयी देवी डिब्बे से रसगुल्ला निकाल थाल के स्पर्श से खुद को बचाते हुए नातियों कीथाली में डालते हुए कहती हैं, “सरकार भवन में लतू के बारे में कह रही हो? वह तो बीमार है।”

"बीमार ! कौन-सी बीमारी हुई है?"

‘मालूम नहीं। उसकी बुआ कहीं से किसी चीज़ की जड़ लाने जा रही है, यह बात उसने खुद हीबताई। लतू का सिर रात-दिन दर्द करता रहता है, जड़ पीसकर लगाएगी।”

"बुखार है?"

"नहीं, बुखार नहीं आया है। फिर तो सिर-दर्द का अर्थ समझ में

आ जाता। लेटकर पड़ी हुई है, कहती है, सिर उठा नहीं पा रही हूं।”  

प्रवाल गंभीरता के साथ गिलास का पानी खत्म कर उठकर खड़ा हो जाता है और कहता है, इसके मानीआंख खराब हो गई है, चश्मा बनवाना होगा।"

मां अपने बेटे के चिकित्सा-विज्ञान की जानकारी से द्रवित हुए बगैर बोली, “सचमुच एक भी आमनहीं खाया। तू कैसा है रे !"

"बताया न कि नहीं खाऊंगा।”

"अरे बाबा ! अनुरोध करने पर लोग तकलीफदेह काम भी कर लेते हैं..."

“वे लोग महान आदमी हैं, मां !"

मां क्षुब्ध स्वर में कहती है, "इतना मैं तुम लोगों के लिए कह रही हूँ। अबकी तुम लोगोंके लिए नानी ने आम के पूरे बगीचे को ठेके पर नहीं लगाया है। बस, यही कुछ दिन आम खाकर ही तुझे अरुचि हो गई? लतू अकसर आया करती थी, आते ही आम काटकरखिलाती थी मैं। अहा, बेचारी मातृहीन लड़की ! मगर वह भी नहीं आ रही है।"

सागर की मां सबके लिए 'अहा' कहा करती है।

इतनी देर तक साहब दादू की वजनदार बाते मन के अन्दर उमड़घुमड़ रही थीं, उन पर एक औरज्वार ने आकर पछाड़ खाया।

लतू।

लतू सिरदर्द से बेहाल हो तीन-चार दिनों से घर में पड़ी हुई है। और सागर को उसका स्मरण हीनहीं आया? क्यों नहीं सोचा कि जो इतना आती थी, क्यों नहीं आ रही है? सागर दूसरे ही सोच में डूबा रहा।

खाना खाने के बाद लेटने के बजाय सागर उसी खिड़की पर से गाल दबाए खड़ा हो गया।...सागरक्या नीचे के उस मैदान की। तरफ आंखें गड़ाए हुए है, जहां वह अधपगले चेहरावाला आदमी चहलकदमी करता है?

या फिर सागर अपने मन के अन्दर ही लोहे की सलाख पर गाल टिकाए देख रहा है?

शुरुआती दौर में लतू पर नजर पड़ते ही गुस्सा आता था। जिस दिन लतू के पीछे-पीछे मंत्रमुग्धकी तरह चला गया था, उस दिन भी लतू के प्रति ममता जगने के बजाय लतू उसे अपने आपसे ऊंचे स्तर की लगी थी।

तो फिर आज लतू के बारे में सोचकर इस तरह की ममता क्यों जग रही है? क्यों मन इस तरह छटपटारहा है? क्यों लग रहा है। कि काश, अभी रात का वक्त होने के बजाय दिन का वक्त होता !...

दिन का वक्त होता तो सागर चट से बाहर निकल सरकार भवन के बरामदे के उपरेल खिड़की सेपुकारता, "लतू दी !"

हालांकि अब सागर को लतु अपने आप से ऊंचे स्तर की नहीं लग रही है, लेकिन मां की तरह उसके मनमें भी वे शब्द धक्का मार रहे। हैं-अहा, मातृहीन लड़की !

मां के उस 'अहा' ने क्या लतू को सागर की नजरों में छोटी बच्ची बना दिया?

फिर भी सागर ‘लतू दी' कहकर ही पुकारेगा।

सागर को लगा, यही सभ्यता है।

सागर में रह-रहकर एक-पर-एक बोध-शक्ति जग रही हैं। हो सकता है कई दिन पहले सागर उससभ्यता के बारे में सोच भी नहीं सकता था। सागर के मन में किसी लड़की के प्रति अच्छा या बुरा सुलूक करने का प्रश्न पहली बार जगा है।

लेकिन लतू की याद आते ही सागर की आंखों के सामने लट बिखेरे हांफते-हांफते दौड़कर आतीहुई वह मूति क्यों तैरने लगती है? सागर ने लतू को और भी बहुतेरे चेहरों में देखा है।

निचले तल के दालान में बैठ मां के साथ बड़बड़ाते हुए देखा है। बैठकर तृप्ति के साथ आमखाते देखा है। गंगाजल से हाथ धो नानी के पूजाघर के लिए फूल लाते देखा है। नानी के रसोईघर में केले के फूल की पंखुड़ियां तोड़ते देखा हैं। साग चुनतेहुए देखा है।

लतू को रास्ते में तेज कदम से चलते भी देखा है। एक दिन तो देखा, लतू एक पेड़ की एक बहुतबड़ी साख तोड़ कंधे पर लिये चल रही हैं।

सागर दुमंजिले की खिड़की से चिल्लाया, “पेड़ ले जाकर क्या करना है?"

लतू ठीक से सुन नहीं सकी। इधर-उधर नजर दौड़ाकर चली गई।

सागर यदि ‘लतू दी' कहकर पुकारता तो अवश्य ही सुनाई पड़ जाता। अपना नाम आदमी अवश्य ही सुनलेता है, यहां तक कि नींद की हालत में भी। सागर ने ऐसा क्यों नहीं किया? सागर ने अपने मन के गाल पर खुद ही एक तमाचा मारा था।

फिर वही पिशाच की बुलाहट की चिन्ता !

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book