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नारी विमर्श >> प्यार का चेहरा

प्यार का चेहरा

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :102
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5135
आईएसबीएन :000

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नारी के जीवन पर केन्द्रित उपन्यास....

26

तुझे क्या हुआ, सागर?

लेकिन उसके बाद क्या लतू से फिर मुलाकात हुई ही नहीं? मुलाकात होगी तो पूछेगा, “लतू, पेड़की इतनी बड़ी साख कंधे पर रख तुम कहां जा रही थीं?”

सवेरा होते हीं सागर लतू को देखने जायेगा और कहेगा, "लतु, साहब दादू जैसे व्यक्ति केसंसर्ग में रहने के बावजूद तुम इतने कुसंस्कार से ग्रसित हो?'' और कहेगा, “अचानक तुम्हें क्या हो गया? सिर-दर्द के कारण उठ नहीं पा रही हो?'

सोच के सागर तले देर रात धंसते हुए सागर न मालूम कब नींद की बांहों में खो गया।

हो सकता है और कुछ साल बाद ही सागर अपने इस सरल, आग्नशील और विश्वासी मन को खो बैठेगा।सागर अपने आज के चिन्तन को सोचकर हंस पड़ेगा। इस बेवकूफ लड़के के प्रति करुणा जगेगी। कहेगा, “ऐ बालक, आदर्शवाद के इन नारों को लगाकर हमारी पिछलीपीढ़ी ने देश को पंगु बना दिया है। आकाश ! वायु ! प्रकाश ! धरती ! ये सब शब्द कविता में ही शोभा पाते हैं या पाएंगे। वे जीना नहीं, मरना जानते थे।यही वजह है कि जीने की सीख नहीं, मरने की सीख देते थे।

यह सब होगा ही।

धय-संधि का चरण पार करने के बाद कठोर धरती पर कदम रखना ही होगा। अभी इस उम्र में सभीबातें नयी लगती हैं। सभी रंग आश्चर्यजनक लगते हैं।

अभी सिर्फ विस्मय का काल है।

अभी साधारण ही असाधारण जैसा दिख रहा है।

किसी लड़की की हंसी, बातचीत, हाथ-मुंह नचाना, पलकें गिराना जैसे क्रिया-कलाप में ऐसा एकअलौकिक आकर्षण छिपा हुआ हो सकता है, इस तथ्य की जानकारी क्या होती है इस उम्र के पहले?

अच्छा लगना इतने भय की वस्तु है, इसका भी अन्दाजा इस उम्र में कदम रखने के पहले कौन लगापाता है?

सागर को जो अहसास हो रहा है कि लतू उसे अच्छी लगती है, लते के बारे में सोचने कीइच्छा होती है-इस पर ही सागर को भय जैसा लगता है। एक दूसरे प्रकार का भय, अपराध-बोध जैसा एक अजीब ही भय।

यह भय ही संभवतः अपराध का जन्मदाता है।

सागर जब लतु के घर की तरफ जा रहा था तो प्रवाल पर उसकी नजर पड़ी। यहां के नवयुवकों नेप्रवाल को अपने पॉकेट संस्करण लाइब्रेरी में पदार्पण करने का निमन्त्रण दिया है, क्योंकि वे लोग प्रवाल को एक नेता समझते हैं।

प्रवाल ने आश्वासन दिया है, कलकत्ता लौटने के बाद वह कुछ किताबों का जुगाड़ कर भेजदेगा। यही वजह है कि प्रवाल अभी उनके लिए हीरे जैसा मूल्यवान है। उन्हीं लोगों में से दो जने प्रवाल को लाइब्रेरी की ओर ले जा रहे थे।

सागर की नजर प्रवाल पर पड़ी और प्रवाल की सागर पर। सागर ने तत्क्षण अपने जाने केरास्ते को छोड़ दिया। सरकार भवन को पीछे छोड़ आगे बढ़ गया।

प्रवाल ने पुकारकर पूछा, “कहां जा रहा है?”

"साहब दादू के घर।”

"वे तो अभी खेत में हैं।"

सागर जो सो कुछ बोलकर तेज कदमों से आगे निकल गया। सागर साहब दादू के घर तक चला गया।

बहुत देर बाद सागर लौटकर आया और उसी बरामदे के किनारे खड़ा हो गया। लेकिन बरामदे परचढ़कर ‘लतू दी' कहकर पुकारना !

अरे बाप! असंभव हैं, असंभव।

जबकि रात के वक्त कितना सहज और सम्भव लग रहा था। उस समय लग रहा था, बस सुबह होने भर कीदेर है।

न, सागर को लौट ही जाना पड़ेगा।

हालांकि थोड़ा-सा ऊपर चढ़ उस खुली खिड़की के पास खड़ा होते ही दिखाई पड़ेगा कि लतूलेटी हुई है। दर्द के कारण लतू सिर नहीं उठा पा रही है। तो भी सागर ‘लतू दी' कहकर पुकारेगा तो निश्चय ही लतू आंख खोलकर देखेगी, उठकर चली आयेगी।

कहेगी, “अरे सागर, तू?"

सागर का भाग्य कम-से-कम आज सवेरे सोने से मढ़ा हुआ था, यही वजह है कि सागर को अपने पीछेसे वह प्रार्थित ध्वनि सुनाई पड़ी, "अरे सागर, तु यहां खड़ा है?"

“नहीं-नहीं, घर के अन्दर नहीं। आ, हम लोग नींबू के पेड़ के तले चलकर बैठे। बड़ेबड़े चकोतरे से भरे पेड़ के तले की जमीन लीपी-पुती जैसी है। बुआयहां धान सुखाती हैं।” लतू ने कहा।

उसके बाद सागर का हाथ पकड़कर खींचा, “आ इस तरफ, एक चीज़ दिखाती हूं।"

अच्छा, इसके पहले भी तो सागर का हाथ पकड़ा था लतू ने। शुरू दिन ही तो अमरूद देने केलिए आने पर हाथ पकड़कर खींचा था, “धत्त, अभी बैठे-बैठे महाभारत पढ़ रहा है। जितना भी लेटे रहेगा, पांव का दर्द कम होने में उतनी ही देर लगेगी।

लेकिन उस दिन बेहद गुस्सा आया था। आज कुछ और ही महसूस कर रहा है। आज सागर के पूरे शरीरमें बिजली की लहर-सी दौड़ गई। सागर ने टूटे स्वर में कहा, “क्या?”

"चल न, दिखाती हैं।"

लतू ने उसे ले जाकर एक पेड़ के नीचे का हिस्सा दिखाया।

"यह जो समतल की हुई जमीन देख रहे हो, यहीं मेरा खेलने का घर था। ये जो दो छोटे-छोटेचूल्हे हैं, वे ही उसके गवाह हैं। देखने पर अब भी मन कैसी-कैसा तो करने लगता है।

सागर की हालत ऐसी है जैसे वह और भी जानना चाहता है।

सागर को उसी भय ने दबोच लिया है।

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