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तीस कहानियाँ

गोविन्द वल्लभ पंत

प्रकाशक : आर्य प्रकाशन मंडल प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :212
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5157
आईएसबीएन :0000

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गोविन्द वल्लभ पंत द्वारा लिखी पुराने साप्ताहिक और मासिक हिंदी पत्रों की रद्दी में खो गई कहानियों का संग्रह.

Tees Kahaniyan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दो शब्द

पैसठ साल से मैं हिन्दी में लिख रहा हूँ। मेरा पहला कहानी-संग्रह ‘एकादशी’ सन् 1922 में गल्पमाला कार्यालय, काशी ने छाप दिया था। दूसरा आठ वर्ष पश्चात् ‘संध्या-प्रदीप’ के नाम से गंगा-पुस्तकमाला कार्यालय, लखनऊ से प्रकाशित हुआ। दोनों अब दुष्प्राप्य हैं। तीसरा सन् 1981 में ‘सोने का देवता’ नामक प्रयाग से एक ठग प्रकाशक ने छाप लिया। ये सब मेरी प्रारंभिक रचनाएँ ही थीं। मैं अपना प्रतिनिधि कहानी-संग्रह अभी तक नहीं छपा सका, इसी से हिन्दी के कहानीकारों की पंक्ति में अभी तक नहीं आ सका हूँ।
पुराने साप्ताहिक और मासिक हिंदी पत्रों की रद्दी में खो गई इन कहानियों को आर्य बुक डिपो, नई दिल्ली ने छापकर हिंदी के नए पाठकों के लिए सुलभ कर दिया, लेखक उनका कृतज्ञ है।
पहली जनवरी, 1986
लखनऊ

गोविन्द वल्लभ पंत

एक भिखारी


चटर्जी दाम्पति जब बाजार का सौदा-पत्ता कर घर को लौट रहे थे तो ईगल सिनेमा के बाहर एक भिखारी ने अपना टीन का मग उनकी ओर बढ़ा कर कहा, ‘दया करो कुछ !’
श्रीमती चटर्जी उसकी ओर से मुँह फिराकर बोलीं, ‘ऐसे हट्टे-कट्टे को हाथ पसारते भीख माँगते हुए शरम नहीं आती !’
भिखारी ने अपनी कटी हुई टाँग उनकी दृष्टि के सामने बढाते हुए कहा, ‘अपाहिज हूँ, पैर कट गया !’
श्रीमती जी ने सकरुण होकर पूछा कैसे ?’
‘क्या बताऊँ ?’
चटर्जी बोले, ‘पैरा ही तो कटा है, हाथों से मजूरी कर सकते हो !’ श्रीमती ने पति के प्रस्ताव को सार्थकता दी, ‘हमारे यहाँ बर्तन मलो तो दोनों टाइम खाना हम खिला दें।’
‘तनखा कितनी मिलेगी ?’
‘अब तनखा का लालच बढ़ा दिया, वह किसलिए ?’

‘जिस रैनबसेरे में रात काटता हूँ उसका मुझे तीस पैसे रोज किराया देना होता है। इसके सिवा कपडे-लत्ते, पान-सिगरेट और आपके यहाँ तक आने-जाने का रिक्शा का किराया-वह कौन देगा ?’
हमारे यहाँ क्या तुम चौबीसों घंटे बंधक में रहोगे ! और कहीं काम ढ़ूँढ़ लेना। रिक्शा का किराया कुछ भी नहीं देना पड़ेगा तुम्हें।’
‘क्या कहीं पास ही में रहते हैं आप ?’
‘हाँ, वह जो सर्वोदय-रेस्तराँ है न, उसी की ऊपरी मंजिल में। बिल्कुल निकट, देख लिया ?
‘हाँ देख लिया वही सफेद इमारत ?’
‘तैयार हो ?’ श्रीमती ने आशा में भरकर पूछा।
‘कल जवाब दे दूँगा।’

चटर्जी ने पत्नी को कोहनी में चुटकी काटकर जल्दी-जल्दी आगे बढ़ जाने का इशारा किया और स्वयं ही लंबे-लंबे कदम रख दिए। पत्नी को अनुसरण करना पड़ा। उनकी बास्केट से जो कुछ गिर पड़ा, उसकी उन्हें सुधि ही नहीं रही।
घर आकर चटर्जी बोले, ‘सुनो उपमा मुझे वह लंगड़ा बड़ा ही लोफड़ जान पड़ता है, उसे घर के भीतर नियुक्ति दे देना संकट को निमंत्रण है। तुम तो उस पर बिल्कुल ही टूट पड़ीं।’
‘इस महँगाई में इतने सस्ते कौन चाकर मिल जाता है ? इसके ऊपर क्या हम एक भिखारी का आत्मसम्मान न जगा देंगे ?’
‘और वह किसी दिन तुम्हारे बर्तन धोते-धोते तुम्हारे आभूषणों की संदूकची को भी साफ कर ले भागा तो ?’
‘वह डेढ़ पैर का जानवर भागकर जाएगा कहाँ ? अपना इतना स्पष्ट हुलिया वह कहाँ छिपा सकेगा ?’ उपमा ने उत्तर में कहा अपने हाथ की बास्केट संभालते हुए।

‘तुम्हारे बर्तन को धोने की समस्या मेरे मन में अवश्य चुभती है। लकड़ी-कोयले से काले हुए बर्तनों की सफाई कठिन है। गैस का प्रचार अभी यहाँ तक पहुँच नहीं सका तो क्या हम पाषाण-युग तक नहीं लौट सकते ?’
‘पाषाण-युग कैसे ?’
‘जब अग्नि प्रकट नहीं हुई थी और हमारे पूर्वज कच्चा ही खाते थे !’
उपमा हँसने लगी।
‘इसमें हँसने की क्या बात है ? ईंधन की कमी तो बढ़ती ही जा रही है। सारे-के-सारे जंगल काटकर कुछ हमारे चूल्हों में झोंक दिए गए हैं और शेष इमारतों में, फर्नीचर में, रेलों के नीचे और कागज की मिलों की भेंट हो गए हैं। सुनो, आग में हमारे भोजन के पोषक तत्वों का अधिकांश स्वाहा हो जाता है। हम जीभ के एक बनावटी स्वाद के लोलुप हो गए हैं और...’
चटर्जी अपना वाक्य पूरा भी न कर पाए थे कि सीढ़ियों पर बैसाखी की खट्-खट् ऊपर चढ़ती सुन पड़ी। पति और पत्नी के कान उधर खड़े हो गए और द्वार को उसने अपनी टीन के मग से खटखटाया, ‘बाबूजी !’

चटर्जी फुसफुसाए, ‘यह तो वही है। शायद अभी राजी होकर आ गया। खबरदार, बिना द्वार खोले ही इससे कह दो कि हमें किसी बर्तन मलने वाले की जरूरत नहीं। लो, ये पच्चीस पैसे बंद द्वार से ही उसके मग में डाल दो, वह चला जाए।’
‘मैं नहीं जाती तुम्हीं जाकर कह दो ।’
‘यहाँ तक आकर्षित कर उसे ले आई हो तुम। फटकारने को कहती हो मुझसे !’ चटर्जी, उपमा की रंगीन और तीखे नाखूनों वाली हथेली पर से चवन्नी उठाकर दरवाजे की ओर बढ़े।
उसने फिर एक थपकी बजाकर कहा, ‘अरे बाबूजी क्या अभी सरे-साँझ ही सो गए ?’
‘कौन हो जी तुम ऐसे बद्तमीज ?’
‘बुलाकर अब बद्तमीजी कहते हो ? मैं वही लँगड़ा हूँ, जिसे आपने बर्तन मलने की नौकरी देने को कहा था अभी थोड़ी देर पहले। द्वार खोलो !’
‘नहीं, जी नहीं, हमें किसी नौकर की जरूरत नहीं’ चटर्जी के हाथ की चवन्नी नीचे गिर पड़ी।
‘फिर कहा क्यों था ?’
‘जल्दी में मुँह से निकल गया, हम अपने शब्द वापस  लेते हैं।’
‘लफ्ज तो बंद दरवाजे से भी वापस ले सकते हो, लेकिन यह...’

‘यह क्या ? लो, नौकरी के बदले तुम यह भीख ही ले जाओ, हाथ बढ़ाओ। मैं इस दरवाजे के छेद से तुम्हें एक चवन्नी दे दूँगा।’ चटर्जी चवन्नी ढ़ूँढ़ने लगे।
‘चवन्नी अपने पास ही रखिए और अपनी नौकरी भी चाहे तो वह भी। पर दरवाजा तो खोलना ही पड़ेगा, बिना उसके खुले काम नहीं चलेगा।’
भिखारी को नौकरी से विरत पाकर चटर्जी आश्वास्त हो गए। उन्होंने दरवाजा खोल दिया, ‘क्या है ?’ उपमा भी वहाँ पर आ गई।
भिखारी एक तरफ पैर और एक कोख में बैसाखी खोंसे खड़ा था। उसने अपने मग में हाथ डालकर एक छोटा-सा गत्ते का डिब्बा निकाला और चटर्जी की ओर बढ़ाते हुए बोला, ‘सा, ब, जल्दी में आपकी बास्केट से यह डिब्बा जमीन पर गिर पड़ा। इसमें क्या बैलून हैं ?’

‘नहीं, इधर लाओ।’ चटर्जी ने वह पैकेट उसके हाथ से छीन लिया और जल्दी में पत्नी की ओर मुस्काते हुए अपनी जेब में रख लिया।
भिखारी कहने लगा, ‘माफ कीजिएगा, यह डिब्बा मैंने खोल लिया था गलती से सिगरेट की डिबिया समझकर !’
‘थैंक यू ! अब तुम चल दो। हमने नौकर रखने का विचार छोड़ दिया है। हम अपना काम खुद ही कर लेंगे।’ कहते हुए चटर्जी द्वार बंद करने लगे। 
भिखारी ने द्वार को पकड़ बाधा पहुँचा दी। उनके कंधे पर उपमा धीरे-धीरे कहने लगी, ‘चवन्नी तो दे दो बेचारे को !’
चटर्जी को चवन्नी के गिर जाने का होश भी नहीं था। उन्होंने निरूपाय हो अपनी वास्कट की दोनों जेबों में हाथ डाला। कुछ न मिला।

भिखारी हँसते हुए बोला, ‘अजी मेम साब, आप तो मुझसे पीछा छुड़ा दौड़ कर चली आई थीं ! जल्दी में ही आपकी बास्केट से यह गिर पड़ा !’ वह फिर अपने मग में हाथ डालकर कुछ निकालते हुए बोला, ‘अब मैं इतना तो बता दूँ आपको, जल्दी अच्छी चीज नहीं। उसी में मैं अपना यह पैर रेल की पटरी में कटाकर फेंक आया कि उसने फिर लौटने का नाम ही नहीं लिया।’ उसने मग में से एक गोल टीन की डिबिया निकाल कर उपमा की ओर बढ़ाई।
उपमा ने उदारता दिखाई, ‘इसे तुम ही रख लो।’
‘मेम साब, यह खूब कही आपने। मैं क्यों रखूँ ? एक तो मेरे पास पहनने को कोई दूसरा जूता ही नहीं, एक पैर ही नदारत है !’
वह बूट-पालिस की डिबिया थी। चटर्जी ने अपनी पत्नी की बास्केट में से एक नया खरीदा हुआ पालिस करने का ब्रश भी निकालकर उसे दे दिया, ‘लो, इसे भी रख लो।’
‘मेरे पैर और जूते की गैरहाजिरी आपने नहीं देखी-सुनी क्या ?’
‘क्यों नहीं ? यह तुम्हें दूसरों के जूतों में पालिश करने के लिए दिया गया है कि तुम्हारा ग्राहक भी टिप-टाप बने और तुम्हें भी स्वावलंबन की चमक प्राप्त हो।’
भिखारी सोच-विचार में पड़ गया। उपमा ने पति के वाक्य को समर्थन दिया, ‘बर्तनों की कारिख छुड़ाने से, जूतों में कारिख चढ़ाना क्या बुरा है ?’

 उपमा ने वह डिबिया नहीं ली और चटर्जी ने ब्रश भी उसके मग में डाल दिया, ‘यह तुम्हारे नए व्यवसाय की नई दिशा है। धीरे-धीरे आमदनी बड़ने पर और भी सामान जोड़ लेना।’
‘गाहक मिल जाएँगे ?’
ठहरो अभी।’ दोनों भीतर गए। उपमा ने एक बोरा लाकर उसके कंधे पर रख दिया, ‘लो, इसे बिछाकर जब भीख के बदले लोगों से काम माँगोगे तो तुम्हारे कटे पैर पर किसकी करुणा न जागेगी ! कौन नहीं तुम्हें अपने जूते दे देंगे ?’
और चटर्जी अपना एक जोड़ा जूता निकाल लाए। उसके सामने रख कर बोले, ‘लो पहला गाहक मैं  बन गया।’

‘अब बैठने की जगह ?’
‘नीचे जो सर्वोदय रेस्तराँ है न, उसके एक ओर पानवाला बैठता है। उसके दूसरी तरफ तुम बैठ जाना।
‘बैठने देंगे ?’
‘क्यों नहीं ? वे सर्वोदय चाहते हैं। तुम केवल इसी बात का ध्यान रखना, उनके विश्रांति-गृह का मार्ग न रुकने पावे, बस !’
भिखारी को तत्व समझ में आ गया। उसने बैसाखी कोख में जमाई, कंधे पर के झोले में पालिश की डिबिया, ब्रश, दोनों जूते और मग भी डाल दिया। खटाखट सीढ़ियों पर से उतरकर नीचे विश्रांति-गृह के सामने पहुँच गया। इस समय अधिक भीड़ नहीं थी वहाँ। पनवारी का एक ग्राहक बिजली के लाइटर से सिगरेट सुलगाकर आगे बढ़ गया था।

पानवाले की दूसरी तरफ, रेस्तराँ का काँच जड़ा शो-केस खड़ा था। उसके चारों खानों में भाँति-भाँति के भोज्य पदार्थ थे। एक में तरह-तरह के बिस्कुटों से भरी हुई बरनियाँ थी; एक में जैम, अचार और चटनियों की शीशियाँ; एक में चाकलेट, टाफियाँ और कई तरह के टिंड प्रोटीन फूड और दूध का पाउडर।

भिखारी ने उसी के आगे, कुछ दूरी पर बोरा डाल दिया। पनवारी चिल्लाया, ‘क्यों दोस्त, कल तक तो तुम कुछ देर यहाँ पर खड़े हो अपनी टाँग दिखाकर चेंज बटोर ले जाते थे, आज क्या अपना बोरा बिछाकर डेरा ही डाल देने की मंशा है ?’
‘नहीं भाई, मैंने भीख माँगना छोड़ दिया।’
‘तो क्या भूख हड़ताल करोगे यहाँ पर, सरकार से पेंशन लेने की इच्छा है क्या ?’
‘नहीं मेहनत की रोटी कमाऊँगा।’
‘इस थैले में क्या मूँगफली हैं ? बोरे में फैलाकर बेचोगे ? बिना तराजू के, क्या गिनती से’
‘तुम लाल धंधा करते हो मैं करूँगा काला धंधा।’
बड़ी सहज भावना से लँगड़े के मुँख से यह वाक्य निकला था। पर न जाने क्यों पनवारी को चुभ गया। वह उत्तेजना में भरकर स्थान से नीचे उतर आया। जल्दी में उसके पैर की ठेस से चूने की हाँडी सीमेंट के फर्श पर गिर कर टुकड़े-टुकड़े हो गई। लँगड़े का बोरा उठाकर दूर फेंकते हुए बोला, ‘साले, तेरे बाप की जगह है यह ? मैं कौन-सा काला धंधा करता हूँ ?’
 
‘नहीं मालिक, मैं क्यों कहूँगा ऐसा ? मैंने तो कहा तुम लाल धंधा करते हो, मैं करूँगा काला धंधा। जल्दी में तुम्हारे सुनने में फरक पड़ गया।’ उसने अपने थैले में से बूट-पालिश की डिबिया निकालकर उसे दिखाई।
फिर भी उसका बुखार उतरा नहीं। थैला भी उठाकर दूर फेंक दिया।
अब तो कुछ राह चलते वहाँ पर जमा हो गए। कुछ विश्रांति-गृह से आधी चाय वहीं छोड़ कर तमाशा देखने लगे। भिखरी ने उनमें से किसी को भी अपना मददगार न पाकर बैसाखी उठाई और चटर्जी की सीढ़ियों पर बजाते हुए चिल्लाने लगा, ‘अजी बाबूजी, ओ बंगाली बाबूजी !’
पनवारी पीठ फिरा कर चला। हाँडी के टुकड़ों को लात मारकर उसने नाली में फेंक दिया और बड़बड़ाता हुआ अपनी दुकान पर चढ़ गया, ‘तेरा बंगाली बाबू क्या कर लेगा मेरा ?’
दुकान क्या थी, एक छोटी-सी, गाहक की औसत ऊँचाई पर एक मचान। उसके दोनों तरफ आलों में उसने कई तरह की सिगरेट के पैकेट, दियासलाई की डिबियाँ, बीड़ी के बंडल, सुरती की शीशियाँ सजा रखी थीं। बाईं तरफ कत्थे का लोटा और चूने की हाँडी, वहीं पर कटी सुपारी, पान का तम्बाकू था। सामने संगमरमर की चौकी में एक तरफ खाली पानों का ढेर और दूसरी तरफ लगे हुए पान। दाहिनी तरफ एक पीतल के चमकीले चौडे़ बर्तन में साफ पानी। वहीं ऊपर से बिजली के तार में लटकता लाइटर !

चटर्जी अपने चेले के संकट दूर करने फौरन ही नंगे पैर नीचे उतर आए और कहने लगे, ‘क्या है जी, क्या बात हो गई ?’
पनवारी अपनी दुकान में बैठे-बैठे बोला, ‘अच्छा चटर्जी महाशय, आपकी शह पाकर ही इस लँगडे की चाल बढ़ गई !’
भिखारी रुआँसा होकर बोला, ‘देखिए बाबू, आपका दिया हुआ बोरा भी फेंक दिया इन्होंने और मेरा थैला भी है। उसमें आपका दिया हुआ जूता भी है, बुरूश भी।’
पनवारी कहने लगा, ‘यह क्या इस भिखारी के बैठने की जगह है ?’
‘भिखारी नहीं है यह।’
‘मेरी चूने की हँडिया गिराकर तोड़ दी इसने, अब मैं कैसे चूना लगाऊँगा ?’
‘नहीं सा, ब, यह खुद इन्हीं की ठोकर से लुढ़क गई।’
‘तेरे ही तो सबब तो उठना पड़ा मुझे दुकान छोड़कर।’
काउण्टर पर से रेस्तराँ के मालिक चड्ढा बाबू भी बाहर हवा में निकल आए और पतलून की जेब में हाथ खोंसकर बोले, ‘इधर-उधर की बातों की झड़ी लगा रहे हो। मतलब का कोई भी लफ्ज अभी तक किसी के मुँह से नहीं निकला। क्या है, क्या मामला है ? क्यों रे लँगड़े, बैसाखी लेकर इधर-उधर चल तो सकता ही है तू। फिर यहाँ पर क्या पत्थर का देवता बनकर जम जाएगा कि आते-जाते लोग तेरे ऊपर सिक्कों की भेंट चढाते जाएँ।’

चटर्जी बाबू बड़ी विनम्रता से बोले, ‘चड्ढा साहब, आपके इस विश्रांति-गृह का नाम रखा गया है...’
चड्ढा फौरन ही बोल उठे, ‘सर्बोदे रेस्टोराँ ! छिपाकर थोड़े रखा है। बड़े-बड़े हरूफों में बाहर साइनबोर्ड में लिखा है।’
‘इसके माने तो बताइए।’
‘इसके माने हैं सर्बोदे ! यानी सब को दे ! सभी हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई, जिसका जी चाहे, वह मेरे होटल में आकर खा-पी सकता है। अगर इसकी जेब में पैसा है तो क्यों मैं इसकी आधी टाँग से नफरत करूँगा।’
भीड़ में एक-दो दर्शक हँसने लगे थे। चड्ढा त्योरियाँ चढ़ाकर कहने लगा, ‘क्या मैं झूठ बोल रहा हूँ ?’
चटर्जी बोले, ‘नहीं आप झूठ कहेंगे ही क्यों ? इस लफ्ज का एक और भी अर्थ लगाया जा सकता है। सर्वोदय यानी सभी का उदय, सभी की तरक्की हो।’
चड्ढा फिर नाक निपोड़कर बोला, ‘तो क्या तुम्हारे माने हैं, यह लँगड़ा मेरे रेस्तोराँ में खा-पी, सिंक में हाथ धो, काउंटर पर मुझे अँगूठा दिखा इक्जिट कर जाए !’

सब लोग ठहाका मारकर हँस पड़े। पनवारी फिर दूसरे बर्तन में चूना घोलते हुए बोला, ‘हँसने की क्या बात है। चड्ढा साहब ठीक ही तो कह रहे हैं। अगर यह अच्छा आदमी होता तो क्यों एक पैर से हाथ धोता। पुराना जेबकतरा जान पड़ता है।’
चटर्जी गंम्भीर होकर कहने लगे, ‘झूठ ही किसी को गाली देना ठीक नहीं। मेरे आग्रह पर इसने जब भीख माँगना बंद कर दिया और मजूरी की महिमा स्वीकार की है। यहाँ बोरा बिछा, यह लोगों के जूतों पर पालिश कर अपना पेट पालना चाहता है।’
एक सज्जन ने आपत्ति की, ‘करेगा भी यह ?’
दूसरों ने उसकी मदद कर दी, ‘करेगा कैसे नहीं ? पैर ही तो कटा है इसका हाथ तो दोनों ही समूचे हैं।’
चड्ढा और पनवारी का विरोध चुप पड़ गया। वह अपनी बैसाखी के सहारे फेंक दिया गया बोरा और थैला उठा लाया। चटर्जी ने उसके हाथ से बोरा लेकर एक ओर बिछा दिया, ‘यह बोरा यहाँ पर बिछाने के लिए मैंने दिया था।’ फिर बूट पालिश की डिबिया और ब्रश उस बोरे पर रखते हुए बोले, ‘ये पालिश के उपकरण भी। और इसकी पहली मजूरी को सार्थक करने के लिए अपना यह जूते का जोड़ा भी।’

चड्ढा जी आक्रोश पर परिहास बिछाकर बोले, ‘चटर्जी, तभी आप नंगे पैर...दूसरी कोई फटी चप्पल भी नहीं आपके पास ?’
‘जल्दी में नंगे पैर ही दौड़ा आया।’
कोई बोला, ‘जैसे गज की टाँग छुड़ाने के लिए भगवान दौड़े आए थे नंगे ही पैर !’
दूसरे ने कहा, ‘बैठ जाओ जी इस बोरे पर।’
तीसरा, ‘चड्ढा सा, ब, सभी जगहें आपकी नहीं। सुबह सूर्योदय के समय इस पर आपके विश्रांति-गृह की छाया पड़ती है तो उससे क्या ?’
चौथा, ‘एक भिखारी को मजदूर बनने दीजिए।’
फिर एक व्यक्ति ने सहारा देकर उसे बोरे पर बिठा दिया। दूसरे ने उसके हाथ में पालिश का ब्रश थमा दिया। चटर्जी का जूता उठाकर वह उसकी धूल झाड़ने लगा।
ऊपर से आधी सीढ़ियों तक आकर उपमा भी यह तमाशा देखने लगी थी। अब त्रासदी की जगह कामदी ने ले ली थी। जिन ग्राहकों ने बिल देने थे, वे वेटरों की निगाह में बंधे काउंटर पर जमा हो गए। चड्ढा भी वहाँ चला गया। पनवारी ने भी चूने की क्षति दूसरे बर्तन से पूरी कर ली। चटर्जी भी उपमा के संकेत पर उसके साथ सीढ़ियों का अतिक्रमण कर अपने कमरे में चले गए।
चटर्जी बोले, ‘सर्वोदय को अपने ही भीतर अस्त कर बैठे हैं। मैं छोड़ता क्यों ? मैंने लड़-झगड़कर बिचारे को जगह दिला ही दी वहाँ पर।’          
    
    

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