लोगों की राय

कविता संग्रह >> वासन्ती मन

वासन्ती मन

उषा यादव

प्रकाशक : इम्प्रैशन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :80
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5203
आईएसबीएन :978-81-904831-1

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

387 पाठक हैं

श्रेष्ठ कविता-संग्रह...

Vasanti Man

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

जल पर बिखर गया है सोना

जल पर बिखर गया है सोना।
नभ के स्वर्ण-कलश से छलका,
रंजित हुआ ताल का कोना।

बँधे हुए या बहते जल में,
लहरों की वर्तुल हलचल में,
किसके कर्णफूल ने गिरकर,
दृश्य रचा है सुभग सलोना।
जल पर बिखर गया है सोना।।

इस सोने से अंजुरी भर लूँ,
मन की मंजूषा में धर लूँ,
सोऊँ चैन से, डर किसका है,
कैसी चोरी, कैसा खोना ?
जल पर बिखर गया है सोना।।

स्वर्ण जलपरी परम मौज में,
अपने जल से भरे हौज में,
निपट अकेली, हाथ-पाँव मल,
करती विहँस नहाना-धोना।
जल पर बिखर गया है सोना।।


वासन्ती मन बौराया है



वासन्ती मन बौराया है।
पंख उधार लिए तितली से, फूल-फूल पर मँडराया है।
वासन्ती मन बौराया है।।

उड़कर कभी गगन पर जाता,
व्योम-पटी पर चित्र बनाता।
सागर का विस्तार नाप कर,
खुश-खुश लौट धरा पर आता।
मानस का यह हंस निराला, लहरों पर नाचा गाया है।
वासन्ती मन बौराया है।।

बनकर कभी पवन मदमाता,
अल्हड़ अति उत्पात मचाता।
इसे छेड़ता, उसे सताता,
बस धमाल करता, इतराता।
कितना भी मैं सिखा-पढ़ा लूँ, नटखट ने सब बिसराया है।
वासन्ती मन बौराया है।।

कभी गीत बन गुंजन करता,
कभी चाँदनी बनकर झरता।
कभी थिरकते पाँवों से यह,
पीली सरसों बीच विचरता।
नशा चढ़ रहा आज अनोखा, इस पगले ने क्या खाया है।
वासन्ती मन बौराया है।।


अपनों से दंशित होकर जब



अपनों से दंशित होकर जब,
मन बेबस, लाचार हो गया
जीवन ही तब भार हो गया।

कन-कन करके जोड़ा था मन
चाँदनिया उतरी थी आँगन।
भरे जेठ की दोपहरी में,
महसूसा था रसमय सावन।

किंतु मलय का अंगराग ही
जब दहका अंगार हो गया,
जीवन ही तब भार हो गया।

अनायास कुछ हाथ न आया,
बहुत जूझकर थोड़ा पाया।
श्रम करके बीने कुछ तिनके,
चुन-चुन तिनके नीड़ बसाया।

सारी क्षमता चुकी अचानक
विजय पर्व जब हार हो गया,
जीवन ही तब भार हो गया।

गैर,गैर ही कहलाए हैं,
अपने उनसे भी सवाए हैं।
अचक पीठ में छुरा भोंककर
औ तड़पाकर मुस्कराए हैं।

सीपी का संरक्षित मोती,
रूप बदल असिधार हो गया,
जीवन ही तब भार हो गया।

आँखें भूल गईं नम होना।


आँखें भूल गईं नम होना।
जैसे पिछला जनम भूलता
नवजन्मा शिशु कोई सलोना।

पर पीड़ा को लखकर आँखें
पहले बनती थीं सावन-घन।
अब अपनी तकलीफों पर भी
बस घुटकर रह जाता है मन।
ऐसा पाहन बना कलेजा
हुआ बराबर पाना-खोना।
आँखें भूल गईं नम होना।।

पल में पलकें नम हो जातीं
झर-झर मोती चूने लगते।
मन की अँजुरी में सहेजकर
धर लेने से दूने लगते।
पानी का क्या काम, उसी से
हो जाता था मुखड़ा धोना।
आँखें भूल गईं नम होना।।

पुरइन पातों पर जल के कण
पल भर टिकते, फिर गिर जाते।
वे भी दिन थे बिना बात ही
नयन कटोरे थे भर आते।
सूखे अधर-कपोल अयाचित
कुघड़ी किया किसी ने टोना।
आँखें भूल गईं नम होना।।

कौतुक ही था खिली धूप में
तब अक्सर होती बरसातें।
उमस बनी रहती अब हरदम
मौसम ऐसी चला कुघातें।
एक शून्य बस व्याप गया है
ढूँढ़-ढाँढ़ कर अंतरा-कोना।
आँखें भूल गईं नम होना।।


चाँदी का पाजेब छनकती



चाँदी की पाजेब छनकती
मुख पर घूँघट आधा।
बरसाने की गली-गली में,
है राधा ही राधा।

सरर-सरर चूनरिया सर से,
सरक गई अनजाने।
कान्हा की रसवंती वंशी
के जादू ने बाँधा।

सौ-सौ करे बहाने,
निकले सांझ ढले पौरी से।
हिरनी-सी वह टुक-टुक ताके,
कहाँ श्याम का काँधा ?

कान्हा के काँधे सिर धर के,
बरखा में जब भीगे।
लगें ठुमकने पाँव खुद-ब-खुद
टूटे सब कुल-बाधा।

घटा घिरे घनघोर, बिजुरिया चमके,
डरना कैसा ?
गोवर्धन को साधे जो,
उसने वह मोहन साधा।


मग-मग काँटे, पग-पग काँटे



मग-मग काँटे, पग-पग काँटे
बस काँटे-ही-काँटे हैं।
जो मौसम बागों में हँसता,
जाने किसके बाँटे हैं।

नहीं बचा अहसास चुभन का,
हाल हुआ है ऐसा मन का।
सभी सवालों के हल लिखकर
हमने खुद ही काटे हैं।

किसने लिखीं स्याह तकदीरें,
आड़ी-तिरछी-अजब लकीरें।
दूर तलक वीरान घाटियों
में मुखरित सन्नाटे हैं।

सर्द, भयावह, काली रातें,
उस पर आँसू की बरसातें।
यहाँ ज्वार ही ज्वार निरंतर
चिर प्रतीक्षित भाटे हैं।

करे समुन्दर अनगिन घातें,
अधरों तक आ लौटें बातें।
यह व्यापार छोड़ना बेहतर
जहाँ रोज ही घाटे हैं।

दुर्दिन की बाँहों में खेले,
रहे आए दिन नए झमेले।
सच, पीड़ा के वामन डग के
क्या अद्भुत सर्राटे हैं।


गोरी का मन फगुनाया है



गोरी का मन फगुनाया है।
घूँघट कहाँ, किधर है चुनरी,
इसका होश न रह पाया है।

माथे की बिंदिया मुसकाती।
बिखरी अलकों से बतियाती।
नथनी हालाडोल मचाती।
देह बिजुरिया देख, देवरों का
चित चंचल हो आया है।
गोरी का मन फगुनाया है

नहीं थम रही हँसी-ठिठोली।
झूम रही हुरियारा टोली।
है भौजी संग पहली होली।
दीठ बाँध क्यों देखे ननदी।
मौसम की सारी माया है।
गोरी का मन फगुनाया है।

लट्ठमार होली का रंग है।
मस्ती में नाचे अंग-अंग है।
लगे, कूप में पड़ी भंग है।
जल दो घूँट पिया गोरी ने,
नशा उसी का चढ़ आया है।
गोरी का मन फगुनाया है।


रतनारा फागुन आया है



रतनारा फागुन आया है।
हर घर-आँगन बरस रहा रस,
अरुण-कुम्भ ने छलकाया है।

पैजनिया की मीठी रुन-झुन,
फाग और रसिया की है धुन,
अंग-अंग में लास्य मनोरम
झाँझ-मृदंगों की माया है।
रतनारा फागुन आया है

नव कोमल किसलय हैं रक्तिम,
झूम रहे हैं मद्धिम-मद्धिम,
किसके उर का राग भाव यह
शाखा-पातों पर छाया है।
रतनारा फागुन आया है

ठिठक देखते पवन झकोरे,
गोरी के कपोल हैं कोरे,
किधर गए घनश्याम सलोने
ऋतु पैगाम न सुन पाया है।
रतनारा फागुन आया है


नन्दन वन भूतल पर आए



नंदन वन भूतल पर आए
मन वृंदावन बने, चित्त यदि
चित्रकूट बन जाए।

सपनों की कोमल स्वरलहरी
पलकों का सम्भार बने।
मधुर निनादित वेणु श्याम की,
अभिनव उर श्रृंगार बने।
मन का रस सरसाए।

सौरभ का छोटा-सा झोंका,
प्राणों में पुलकन भर दे।
औ लघु दीप आस्था का
चहुँदिशि आलोक सघन भर दे।
गहन तिमिर हर जाए।

अधरों की स्फटिक शिला पर,
राम-जानकी हों शोभित।
पावन भरत मिलाप नयन में,
बसा रहे करता पुलकित।
रोम-रोम हरषाए।

रम्य कल्पना निधिवन की हो,
या उदारता कामद की।
लीला नित्य बिहारीजी की,
झाँकी सिया-राम पद की।
कभी न मन बिसराए।


यह संवलाई शाम धुल..



यह संवलाई शाम धुल-निखर जाएगी,
गुलमोहर-सी हँसी अगर तुम हँस दोगी।
मन की रीती गागर कुछ भर जाएगी,
पनघट पर ले प्रेम-रज्जु यदि पहुँचोगी।

सपनों की चूनर बुनकर रखते जाना,
हाथों को कर देता है कितना बोझिल !
हो बिछोह की अगर मिलन में आशंका
सुर में कैसे गा सकता है प्रणयी दिल ?
पल्लव-युत तन-शाख लचक, झुक जाएगी
प्रिये, कली बनकर यदि इस पर महकोगी।
यह संवलाई शाम धुल-निखर जाएगी,
गुलमोहर-सी हँसी अगर तुम हँस दोगी।

यायावर मन की भटकन का अंत भला
कौन मोड़ पर आएगा मालूम नहीं।
पर जो भी विधना ने मेरे हित सिरजी
होगी निश्चय आस-पास ही, यहीं कहीं।
तृषित अधर देंगे दुआएँ, गुन गाएँगे,
प्यासे चातक हित बादल बन बरसोगी,
यह संवलाई शाम धुल-निखर जाएगी,
गुलमोहर-सी हँसी अगर तुम हँस दोगी।





प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai