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दो सखियाँ

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :124
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5215
आईएसबीएन :978-81-8361-131

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साइबेरिया के सीमांत पर बसे, चारों ओर सघन वन-अरण्य से घिरे, उस अज्ञात शहर में अपने किसी देशबंधु को ऐसे अचानक देखूँगी, यह मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था।


इतना नीच, इतना जघन्य, ऐसा पशु हो सकता है मानव? अभी इकलौते बेटे की चिता ठण्डी भी नहीं हुई और यह पशु, इस नीचता पर उतर आया-अपनी पूरी ताकत से मैंने वह भारी टार्च, उनके सिर पर दे मारी, वह एक दबी चीख के साथ, दोनों हाथों से सिर थामे जमीन पर बैठ गए और मैंने खिड़की से छलाँग लगा दी-लगता है, दयालु विधाता ने ही मुझे उस दिन गोद में उठा लिया होगा-क्योंकि उस ऊँचाई से कूदने पर भी मेरा न हाथ टूटा, न पैर-फिर मैं बदहवास भागने लगी-सड़क पर घटाटोप अंधकार था, नन्हीनन्ही बूंदें भी पड़ने लगी थीं-कड़ाके से बिजली बीच-बीच में चमक-चमककर मुझे पथनिर्देश दे रही थी, न मेरे पैरों में चप्पल थी, न साड़ी ही ठीक से बँधी थी-सहसा मुझे लगा, मैं किसी पेड़ से टकरा गई हूँ-फिर चेतना लौटी तो देखा, वह पेड़ नहीं, ओवरकोट पहने एक लम्बा व्यक्ति है।

“क्या बात है बेटी-क्यों भाग रही हो ऐसे, अभी तो पो भी नहीं फटी..."

“मुझे बचा लीजिए, प्लीज मुझे बचा लीजिए..."

मैं रोती-बिलखती उस अनजान व्यक्ति से लिपट गई।

“आओ मेरे साथ, मेरा घर अगले ही मोड़ पर है," अँधेरे में मुझे कुछ नहीं सूझ रहा था, मैं उसका चेहरा भी नहीं देख पा रही थी-वही फिर मेरा हाथ थाम, मुझे ले गया।

अब कभी सोचती हूँ, वह यदि कोई गुण्डा होता तब तो मैं खाई से निकल खंदक में ही गिरी होती, किन्तु विधाता तो एकसाथ सब द्वार बन्द नहीं करता-अगले ही मोड़ पर उसका बंगला था, "बड़ी जल्दी लौट आए जॉन, आज क्या पूरा राउण्ड घूमने नहीं गए?" किसी स्त्री के स्वर में पूछे गए प्रश्न का उत्तर दिये बिना ही, उसने मृदु स्वर में कहा-"बैठो, मैं मारिया से कह आऊँ-गर्म चाय पिलायें तुम्हें-" मैंने उसके जाते ही, कुर्सी पर गर्दन डाल आँखें मूंद लीं-भयभीत कपोती-सी, मैं अभी भी काँप रही थी, कुछ ही घण्टों में विधाता ने जैसे मेरा जीवन ही उलट दिया था।

बहुत छोटी थी, तब ही से बाबा पूजा करने बैठते तो मैं लपककर उनकी गोद में बैठ जाती कि कब उनका जपार्चन पूरा हो और कब बताशे मिलेंउनके साथ-साथ मैं भी उनके मंत्रपाठ में स्वर मिलाती-आज उस घोर विपत्ति के क्षणों में, इतने दिनों की वे ही विस्मृत पंक्तियाँ स्वयं मेरे ओंठों पर फिसल गईं-गँवार देहाती की भाँति, दोनों पैर कुर्सी पर उठा मैं आँखें बन्द किये ओंठों ही ओंठों में बुदबुदाने लगी थी-

न तातो न माता
न बंधुन दाता
न पुत्रो न पुत्री
न भयो न भर्ता
न जाया न विद्या
न वृत्तिममेव
गतिस्त्वं गतिस्त्वम्
त्वमेको भवानी-

पर्दा खोलकर वे दम्पती मुझे आश्चर्य से मुँह खोल देख रहे हैं, इसका मुझे ध्यान ही नहीं था। पागलों की तरह सड़क पर नंगे पैर, अधखुली साड़ी लपेटे बदहवास भागती और अकेली बैठी आँखें बन्द किए स्वगत बड़बड़ाती मैं उन्हें निश्चय ही किसी पागलखाने से भागी पगली लगी हूँगी।

फिर उनमें से किसी ने धीमे स्वर में पूछा- “हेलो, हाउ आर यू फीलिंगबैटर...?"

मैंने हड़बड़ाकर दोनों पैर नीचे कर लिए और उस व्यक्ति का, जो मुझे साथ लाया था, पहली बार मैंने चेहरा ठीक से देखा। एकदम स्याह रंग, चौड़ा माथा, घुघराले बाल और संत की-सी मधुर हँसी-“लो चाय पियो, मेरा नाम जॉन है-तुम मुझे अंकल जॉन कह सकती हो और यह है मेरी पत्नी मारिया-" दोनों मेरे पास धरी कुर्सियों पर बैठ गए। "मैं यहाँ के मिशन स्कूल का हेडमास्टर हूँ-तुम डरो नहीं बेटी, यहाँ तुम्हारा कोई अनिष्ट नहीं होगा-”

उस सर्वथा अनजान परिवेश में, दिलासे के वे शब्द, मुझे फिर दुर्बल बना गए-मैंने सिर झुका लिया और मैं निःशब्द रोने लगी।

“पुअर डियर"-मारिया ने बढ़कर मेरा माथा थपथपाया-"तुम चाय पीकर थोड़ा आराम कर लो, जॉन को परीक्षा लेने आज रानीखेत जाना है, शाम तक लौट आएगा-तब तक तुम्हें कोई परेशान नहीं करेगा-मैं खाना बनाकर तुम्हारे कमरे में रख जाऊँगी-जब भूख लगे, खा लेना।"

फिर दोनों मुझे एक छोटे-से स्वच्छ कमरे में पहुँचा, द्वार बन्द कर चले गए-कमरे से संलग्न बाँस की खपच्चियों से बना एक काठ का बरामदा था-जाफरी को प्रिमरोज की घनी बेल ने ऐसे ढाँप दिया था कि मुखर सड़क का कोलाहल ही सुनाई देता, राहगीर नहीं दिखते थे। मैं हाथ-मुँह धोकर उस छोटी-सी कैंपको पर लेटी तो मेरा अंग-अंग टूट रहा था, पिछले चौबीस घंटों में जो तूफान मेरे ऊपर होकर गजर गया था, उसने मेरे सोचने-समझने की पूरी शक्ति ही छीन ली थी-क्या करूँगी-अब कहाँ जाऊँगी मैं? और कैसे? बड़ी देर तक छटपटाती मैं न जाने कब गहरी नींद में ऐसी सोई कि आँखें खुली तो रात हो आई थी। एक क्षण को लगा, मैं अभी कल्याण हाउस में हा सा रही हूँ-वैसी ही गुलबनप्सी मदिर सुगन्ध और सिरहाने की मेज पर धरा, एकदम वैसा ही कैरोसीन का लैंप, जैसा हरिबाला हमारे सिरहाने धर जाया करती थी। लैंप की लौ शायद जानबूझकर ही कम कर दी गई थी कि कहीं तेज रोशनी मेरी नींद में व्याघात न डाले। दयालु गृहस्वामिनी प्लेट में ढककर खाना भी रख गई थीं। नये परिवेश को मेरी अर्धसुप्त चेतना स्वीकार ही कहाँ कर पाई थी? मुझे लग रहा था, अभी-अभी सोना मासी द्वार भड़भड़ाकर चिल्लाएँगी-“लज्जा नेई छूडी, दिन दुपूरे दरजा बंद करे जत सब नेकामी-छी छी-" ("शर्म नहीं आती छोकरी? भरी दुपहरी में द्वार बन्द कर-यह सब ढोंग-छि-छि!")

मैं हड़बड़ाकर बैठ गई। क्रमशः चैतन्य हो रही आँखों ने, फिर उन दोनों को द्वार पर खड़े देखा।

एक नीली छींट के फूलदार गाउन पर झकझक करते सफेद ऐप्रन से हाथ पोंछती मारिया मेरी पलँग पर बैठ गई, “कैसा जी है अब? जॉन, चाय बनाकर पैंट्री में रख आई हूँ, ले आओ तो डार्लिंग-" फिर उन्होंने कम्बल ओढ़ा मुझे जबरदस्ती लिटा दिया-"अब बताओ बेटी, कहाँ से झगड़कर भागी हो- मायके से या ससुराल से?"

चाय की ट्रे लेकर अंकल जॉन ने पत्नी को डपट दिया-“चाय तो पी लेने दो उसे क्यों परेशान कर रही हो-?"

कैसा आश्चर्य था कि मुझे एक ही साँस में उन्हें अपनी पूरी कहानी सुनाने में जरा भी संकोच नहीं हुआ-यहाँ तक कि अपने नरपिशाच ससुर की कामांधता की यवनिका भी मैंने निर्भीक, निःसंशय होकर उठा दी थी। एक पल को दोनों स्तब्ध रह गए फिर अंकल जॉन ने ही गंभीर-संयत स्वर में कहा"तुम अपने पिता का पता दे दो, मैं अभी तार कर उन्हें यहाँ बुला लेता हूँ।"

"नहीं, नहीं," मैंने अविवेकी उद्विग्नता से अंकल जॉन के दोनों हाथ पकड़ लिए-“प्लीज आप ही मुझे उनके पास ले चलिए, माँ-बाबा दोनों हार्ट के मरीज हैं-तार में क्या आप उन्हें पूरी बात बता पाएँगे? बौरा जाएँगे दोनों।"

"ठीक ही तो कह रही है जॉन? " मारिया ने कहा-“तुम खुद जाकर उसे पहुँचा आओ-"

एक क्षण को अंकल जॉन गहरे सोच में डूब गए-"मेरा जाना क्या ठीक होगा मारिया?" अल्मोड़ा छोटा-सा शहर है, किसी ने देख लिया तो लोग बीसियों बातें पूछेगे, कौन है यह? कहाँ से, कब से जानता हूँ, कहीं से भगाकर तो नहीं लाया? तुम तो जानती हो यहाँ आजकल कैसी-कैसी अफवाहें फैल रही हैं कि हम मिशनरी हिन्दू बच्चों को चुरा, अपने घरों में बंदी बना उन्हें ईसाई बना रहे हैं-" किन्तु मारिया को इसका कोई भय नहीं था-ऐसा नहीं था-“ऐसा ही है तो मैं चलूँगी साथ में, किसी ने पूछा भी तो कह देंगे-हमारे मिशनरी बंगाली मित्र की पुत्री है, हमसे मिलने आई थी, उसे ही पहुँचाने जा रहे हैं-देखो बेटी, तुम्हें यह माँग का सिन्दूर रगड़-रगड़कर मिटाना होगाकहीं से भी हिन्दू न लगो, समझीं?" उस दुःख की घड़ी में भी मेरे ओंठों पर हँसी आ गई-सिन्दूर तो स्वयं विधाता ही मिटा चुका था-मैं क्या मिटाऊँ! तीन दिन बाद तड़के ही हम चल दिए थे, मारिया आंटी अन्त तक नहीं गईं, "हम दोनों अचानक ऐसे घर बन्द कर चले जाएँगे तो पड़ोसियों को और सन्देह होगा-" तीन दिन के उस अनजान गृह के स्नेहपूर्ण आतिथ्य ने मेरे ताजा खुले घाव पर जैसे शीतल पट्टी रख दी थी। कितनी लम्बी लगी थी वह यात्रा, प्रतुल के साथ वही यात्रा कितनी छोटी लगी थी, मेरा हाथ यात्रा-भर कसकर पकड़े रहना, शून्य दृष्टि से कम्पार्टमेन्ट की छत को एकटक देखनाएक-एक स्मृति का गहर मेरे कण्ठ में अटक रहा था।

बस-अड्डे से थोड़ी ही दूर पर मेरा पितृगृह था-वेणुवन की एक प्राकृतिक सुरम्य गैलरी को पार करते ही हमारी बरसाती थी-मेरे पैर सहसा काँपने लगे-कैसे देखूगी माँ, बाबा को-अभी तीन ही महीने पहले तो शहनाई की करुण गूंज के साथ यहाँ से विदा हुई थी। कैसी शोभा थी तब इस गृह की, रंगीन बंदनवार, लोगों की भीड़ और आज उसी गृह को मेरा वैधव्य, क्या मुझसे भी पहले पहुँच ऐसा श्रीहीन बना गया था? सूर्य ढल चुका था, प्रौढ़ संध्या के रक्तिम-आलोक में पितृगृह की अट्टालिका की पहली झलक ही मुझे जड़ बना गई-प्रहरी से कदम्ब-शिरीष-कटहल के वृक्ष पूर्ववत् खड़े थे, कामिनी, टगर, गोलोक, चम्पा, स्थल पदम, पारिजात की मदमस्त खुशबू ने सहसा मेरी स्मृति के नथुने फड़का दिए-मेरे लिए कभी यह धरणी भूतल का भूस्वर्ग थी, आज प्रकृति की यही निभृत गोद मुझे मसान-सी मनहूस लग रही थी।

अंकल जॉन ने शायद मेरे उद्वेलित चित्त की व्यथा भाँप ली थी, मेरी उत्साही चाल सहसा मंथर पड़ गई थी-उन्होंने मुझे गुदगुदाने की चेष्टा की-“अब समझ में आया, तुम क्यों बार-बार यहाँ आने की जल्दी कर रही थीं-मेरी उस झोंपड़ी में तुम दो दिन साँस भी ले सकीं, यही आश्चर्य हो रहा है मुझे-तुम्हारा घर तो महल है बेटी-"

'नहीं अंकल जॉन, आपके यहाँ मुझे जो मिला वह किसी भी महल में नहीं मिल सकता था। मैं कहना चाह रही थी पर कहाँ कह पाई? नियति ने तो मुझे गूंगी बना दिया था।

बरामदे में खड़ी हुई तो अस्वाभाविक सन्नाटा देख मेरा माथा ठनका-कहीं माँ, बाबा पाण्डिचेरी तो नहीं चले गए? तेरा ब्याह निबटा हम महर्षि के दर्शन करने जाएँगे-यही तो कहा था बाबा ने और फिर वे दोनों तो वहाँ प्रायः ही जाते रहते थे किन्तु निकट आने पर देखा, केवल द्वार बन्द था, ताला नहीं था। मैंने ही कुण्डी खटखटाई-

"कौन?"

"बाबा, मैं हूँ तिला-"

और फिर द्वार खोलते ही बाबा ने अविश्वास से मुझे देखा, फिर छाती से लगा लिया। “सोना रे माँ आमार, की होये गैलो रे-" (मेरी लाड़ो-यह क्या हो गया-)

तो मेरा अनुमान ठीक ही था। उन्हें मेरे वैधव्य का दुःसंवाद देने में मेरे ससुरालवालों ने विलम्ब नहीं किया था। “के गो? के कांदछे?" कौन है जी, कौन रो रहा है? फिर कोई उत्तर न पाकर माँ भागकर आई और मुझे देखते ही उसने मुझे छाती से लगा लिया और विह्वल हो, ऐसे चूमने लगी जैसे अपनी बिछुड़ी बछिया को गाय चूम-चाट रही हो।

अपने उस मिलन में, हम अक्षम्य स्वार्थपरता से, उस देवतुल्य व्यक्ति को भी भूल-बिसर गए, जिसने हमारे उस मिलन को ऐसे सहज बना दिया था। हम तटस्थ हुए तो वह किसी देवदूत-सा ही अपना कर्तव्य पूरा कर तिरोहित हो गया था। हम उसे कभी धन्यवाद भी नहीं दे पाए-पत्र भी लिखते तो किस पते पर? अल्मोड़ा की ईसाई बिरादरी में क्या वह एक ही जॉन होगा? माँ-बाबा ने मेरी कहानी सुनी तो स्तब्ध रह गए-

“यह तो तेरी विदा के तुरंत बाद ही हमें पता चल गया था कि हमारे साथ भयानक प्रवंचना की गई है-लड़का बी.ए. भी नहीं कर पाया था कि हॉस्टल ही में उसे यह बीमारी लग गई थी, उस पर वृद्ध उन्मादिनी तेरी सास, वर्षों से राँची के पागलखाने में है, यही नहीं, पागलपन उनके पूरे खानदान में है, लड़के के दोनों मामा भी पागल हैं-यह सब हमें बाद में पता लगा-तेरे मामा ने ही हमारा सर्वनाश किया बेटी-कहता था, आँखें बन्द कर निबटा दो कन्यादान, लड़की राजरानी बनकर रहेगी, गहनों से लाद देंगे माधव बाबू-और गहनों से कैसा लादा तुझे! गर्दन ही तोड़कर रख दी-" माँ फिर मुझे पकड़कर विलाप करने लगी-“यह कैसा दण्ड दिया ठाकुर-कैसा द्विरागमन किया था अभागिनी का।"

"तुम यह रोना-धोना बन्द करो तो," बाबा ने उस बेचारी को डपट दिया था-

“एक तो खुद ही अधमरी हो रही है वह बेचारी, उस पर तुम और घबड़ा रही हो उसे।"

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