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दो सखियाँ

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :124
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5215
आईएसबीएन :978-81-8361-131

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साइबेरिया के सीमांत पर बसे, चारों ओर सघन वन-अरण्य से घिरे, उस अज्ञात शहर में अपने किसी देशबंधु को ऐसे अचानक देखूँगी, यह मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था।


माँ सहमकर चुप हो गई।

"तू चिंता मत कर खुकू, अभी तेरा बाप जिन्दा है-पढ़ा-लिखाकर तुझे स्वावलम्बी बना दूंगा।"

किन्तु, धीरे-धीरे मुझे लगने लगा कि बाबा का साहस भी चुक रहा है। घर गिरवी पड़ा था, माँ के गहने मेरे विवाह में ही बिक चुके थे-चाँदी के बर्तन, हाथी की अम्बारी, दुर्लभ बन्दूकें सब ही तो बिक गई थीं-आमदनी छल्ले-भर की नहीं थी उस पर हर पल, सर्वशक्तिमान शत्रुपक्ष का भय-पत्ता भी खड़कता तो बाबा चौकन्ने हो जाते-कहीं ससुराल का कोई पेशेदार तो मुझे लिवाने नहीं आ गया! मेरे ससुर कभी भी कानूनी मदद से मुझे अपने साथ खींचकर ले जा सकते थे-इसी से शायद उन्होंने रहे-सहे-आयुध भी डाल दिए।

“खुकू, सोचता हूँ, तुझे तेरी बुआ के पास भेज दूं, वह पहले भी कई बार तुझे माँग चुकी है-एक वही तुझे पढ़ा-लिखाकर योग्य बना सकती है और माधव बाबू की वहाँ दाल कभी नहीं गल सकती, बड़ी दबंग है वह-तुझे वहाँ भेज मैं और तेरी माँ पांडिचेरी चले जाएँगे-वैसे भी अगले वर्ष की अन्तिम अवधि तक मैं यह बन्धक पड़ी हवेली नहीं छुटा पाऊँगा।" मैं रोने लगी थी।

“रो मत खुकू"-मेरे सिर पर हाथ फेरकर बाबा कहने लगे थे-"तेरे ससुर की नीचता का कोई अन्त नहीं है, वह कभी भी नंगेपन पर उतर सकता है। तुम वहाँ से जब जी चाहे मिलने आ सकती हो-"

किन्तु, मैं फिर कहाँ जा पाई? वहाँ जाने के तीसरे ही महीने बाबा के दिमाग की नसें फट गईं, वे नसें पहले क्यों नहीं फट गईं, यही आश्चर्य थाउनके जाने के छः महीने बीतते. माँ भी चली गई। मेरे स्वर्णपुर की स्वर्णनगरी दो ही झटकों में, ऐसी भस्मीभूत हुई कि मैं राख भी नहीं छू पाई। अपनी निःसंतान बुआ से मुझे जो दुर्लभ दान मिला, उसी ने मुझे आज वह बना दिया जो तू देख रही है। मैंने एम.ए. किया, लन्दन युनिवर्सिटी से डाक्टरेट ली, वहीं ओरियंटल स्टडीज स्कूल में लेक्चरर रही और फिर बीमार अकेली बुआ की देखभाल करने भारत लौट आई। आज युनिवर्सिटी के इस उच्चतम पद पर हूँ-बुआ की बहुत इच्छा थी, मैं फिर विवाह कर लूँ-"तेरा रूप और यह कच्ची उम्र, कैसे काटेगी तू? मैं क्या अमरबूटी खाकर आई हूँ? मेरे बाद तेरा क्या होगा?"

"नहीं,” मैंने दृढ़ता से कहा था-"एक बार ही भर पाई, मैं अब कभी विवाह नहीं कर सकती-"

“पर तेरे पति ने तो तेरा स्पर्श भी नहीं किया," बुआ मुझसे सबकुछ सुन चुकी थीं।

"नहीं बुआ, मैं कभी विवाह नहीं करूँगी-" कैसे कर सकती थी मैं? तीन महीनों की स्मृतियों की जो अमूल्य सुवर्ण मुहरों की गागर छाती से लगाए घूम रही थी-कैसे भूल सकती थी मैं उस शून्य में फैली बाँहों का व्यर्थ आह्वान?

“तिला-तिला, एक बार तुझे छाती से लगा लूँ-"

यही मेरी कहानी का पूर्वार्ध है, क्यों उत्तरार्ध सुनने का धैर्य है अब?

धैर्य भले ही हो तुझे, विश्वास कभी नहीं होगा, पर मैं सच कहती हूँ, जो कुछ तुझे सुनाने जा रही हूँ-उसमें केवल सच है, कल्पना या अतिशयोक्ति का स्पर्श भी नहीं है-"बुआ की मृत्यु के बाद मैं उन्हीं की कोठी में उनकी पुरानी गूंगी-बहरी-नौकरानी आनन्दी बाई के साथ अकेली रह रही थी-अपनी पूरी सम्पत्ति बुआ मेरे नाम कर गई थीं-नौकरी नहीं करती तो हाथ पर हाथ घरे, जीवन-भर किसी महारानी की ही भाँति मैं रह सकती थी-पर दौलत के सहारे ही तो जिन्दगी नहीं कटती! कभी-कभी हँसी भी आती थी, कि जब पूर्ण यौवना थी तब किसी ने मेरा हाथ नहीं माँगा, अब विरासत हाथ लगने का समाचार लोगों ने सुना, तो एक-से-एक रंगीन नौशों ने मुझे घेर लिया, कोई बत्तीस वर्ष का बिजनेस इक्जीक्यूटिव था, कोई चालीस वर्ष का सुदर्शन विधुर, कोई विदेश प्रवासी उद्योगपति और कोई विश्वविद्यालय का रजिस्ट्रार। पर मैंने भी दुनिया देखी थी, मैं अपने निश्चय पर अडिग, अटल जमी रही।

"एक दिन, बड़ी रात को घण्टी बजी। द्वार हमेशा मैं ही खोलती थी, क्योंकि मेरी बहरी-गूंगी नौकरानी न सुन ही सकती थी, न बोल ही पाती थी।

"द्वार पर एक दुबले-पतले, सन-से सफेद बालों पर काली टोपी लगाए, एक सौम्याकृति वृद्ध खड़े थे। हे भगवान, मैंने मन-ही-मन सोचा, क्या यह चिता में चढ़ने को तत्पर वृद्ध भी अब मेरा हाथ माँगेगा!

" 'क्षमा कीजिएगा, पर क्या आप ही डॉ. तिलोत्तमा ठाकुर हैं?'
" 'जी हाँ-कहिए-'
" 'आपसे एक जरूरी काम है, क्या मैं अन्दर आ सकता हूँ?'
" और कोई होता तो मैं भगा देती, यह कोई वक्त था आने का? उस पर मैं कुछ ही घण्टे पहले, हैदराबाद की एक सेमिनार से लौटी थी, बेहद थक गई थी-किन्तु उस शान्त सौम्य चेहरे की विनम्रता में कुछ ऐसी बात थी कि मैंने द्वार पूरा खोलकर कहा-आइए-

“आनन्दी बाई, कौतूहली दृष्टि से आगंतुक को देख रही थी, क्योंकि एक तो मुझसे कोई पुरुष कभी मिलने आता ही नहीं था, उस पर इतनी रात को!

“मैंने देखा, वृद्ध के हाथ में एक स्काई बैग था जिसे वह बैठने पर भी छाती से सटाए था, जैसे उसमें कोई दामी वस्तु धरी हो और नीचे रखने में भी वह शंकित हो रहा हो।

“ 'देखिए, इतनी दूर से एक अनुरोध करने आया हूँ--आपको मेरे साथ चलना ही होगा-मैं ये दो एयर टिकट भी ले आया हूँ-कल सुबह पाँच बजे की फ्लाइट है।' बैग खोल उसने दो एयर टिकट मेज पर धर दिए।

“मैं आश्चर्य से उसे देख रही थी-पागल था क्या या किसी यूनिवर्सिटी के अचानक आयोजित किसी जलसे की मुख्य अतिथि बनने का पैगाम लेकर आया था-'कहिए।'

“ 'देखिए, मेरे पास समय बहुत कम है'-वह घबड़ाकर फिर ऐसी अप्रत्याशित हरकत कर बैठा कि मैं विचलित होकर खड़ी हो गई।

" 'आप क्या कर रहे हैं यह!' मेरा स्वर शायद झुंझलाहट में कुछ तीखा ही हो गया था-

“वह वृद्ध बुरी तरह सिसकता मेरे पैर पकड़ धम्म से जमीन पर बैठ गया था-'मेरा बेटा मृत्युशैया पर है, एक ही बेटा है मेरा-आप एक बार चलकर उसे देख लीजिए बस।

" ‘पर देखिए, आप शायद गलत घर में चले आए हैं-मैं चिकित्सक नहीं हूँ, पी.एच.डी. की डॉक्टर हूँ-युनिवर्सिटी में पढ़ाती हूँ-आप शायद डॉ. तिलोत्तमा गोखले का घर ढूँढ़ रहे हैं, वह उस चौथी गली में रहती हैं-'

“ 'नहीं-मैं आप ही को लेने आया हूँ। आप ही की रट लगाए है वह-उसे शान्ति से जाने दीजिए डॉक्टर-'

"तब, क्या अभागा कोई मेरा पुराना छात्र था?
" 'क्या नाम है आपके पुत्र का?'
“ 'प्रतुल, प्रतुल मुंडककुर, कोंणी हैं हम-'
“ 'प्रतुल?' मेरा हृत्पिड सहसा पेंडुलम-सा डोलने लगा-प्रतुल, प्रतुलइस नाम के प्रति अभी भी मेरी आशक्ति गई नहीं थी।
“ 'पहले आप मेरी पूरी बात सुन लीजिए-कैसा मूर्ख हूँ मैं-बिना भूमिका के आप समझेंगी ही कैसे?

" 'मैं अवकाश-प्राप्त चीफ इंजीनियर हूँ-शिवशंकर नाम है मेरा-बेंगलूर में बहुत बड़ा फार्म हाउस बनाकर, इसी बेटे के साथ रहता हूँ-मेरी पत्नी की मृत्यु, इसके जन्मते ही हो गई थी, इसी बेटे को छाती से लगाकर पाला है मैंने, माँ और बाप बनकर। इसी भय से दूसरा विवाह नहीं किया-सौतेली माँ इसे कष्ट देगी-मैं तब 26 वर्ष का ही था-बेहद मेधावी था यह बालक, मैंने विनायक नाम रखा था-पाँच वर्ष का हुआ तो बोला, अप्पा आप मुझे विनायक क्यों कहते हैं? मेरा नाम तो प्रतुल है-रंगपुर में मेरे पिता की बहुत बड़ी कोठी है, आपसे भी बड़ी-ले चलोगे ना मुझे रंगपुर? पहले मैंने अपने इस वाचाल बेटे की बात को गम्भीरता से नहीं लिया-एक नम्बर का गप्पी तो था ही-दिन-रात नई कहानी गढ़कर मुझे सुनाता रहता था पर फिर वह दिन-रात एक ही रट लगाने लगा-

" "मुझे ले चलो ना अप्पा, वहाँ मेरी तिला है तिलोत्तमा-'
" 'कौन तिला?' मैंने धड़कते हृदय से पूछा।
" 'क्यों तिला को भूल गए? मेरी पत्नी, तुम्हारी बहू-दूध-सा उजला रंग है उसका और अजगर से भी मोटी चोटी-ठीक ऐसी ही लगती है।' " कह उसने दीवार पर लगे मेनका विश्वामित्र की, रवि वर्मा की बनाई तस्वीर की ओर अँगुली उठा दी-

“ 'तब मेरा माथा ठनका-मायसोर में, मेरे गुरु थे जिन्होंने मुझे दीक्षा दी थी-मैं अपने पुत्र को लेकर, उन्हीं के पास भागा-महाराज, कैसी-कैसी बातें करता है यह मेरा तो एक यही है--कहीं यह भी रंगपुर भाग गया तो मेरी तो दुनिया ही उजड़ जाएगी गुरुदेव।' स्वामीजी का शांत चेहरा उद्वेगरहित रहा।

" 'आप कुछ करिए महाराज, इसे अतीत की स्मृतियों से स्मृतिभ्रष्ट कर दीजिए-जिससे इसे कुछ भी याद न रहे-'

“ 'चिन्ता मत करो शिवशंकर, जैसे-जैसे बड़ा होगा, इसकी पूर्वजन्म की स्मृतियाँ स्वयमेव विलुप्त हो जाएँगी।'

" 'न जाने उन्हीं की कृपा थी या बढ़ती वयस का प्रभाव, धीरे-धीरे प्रतुल ने फिर विनायक नाम स्वीकार कर लिया और कभी भूलकर भी रंगपुर का नाम नहीं लिया-मैं उसे एक पल को भी अपने से विलग नहीं होने देता, दौरे पर भी जाता तो वह मेरे साथ रहता पर कब तक? वह बड़ा हुआ, पहले स्कूल गया फिर कालेज-वह मेधावी तो था ही, कण्ठ भी था उतना ही मधुर-वादविवाद में उसे कोई कभी पराजित नहीं कर पाया, उस पर गणित में तो उसका लोहा, उसके अध्यापक भी मान गए थे, सरस्वती जैसे स्वयं प्रसन्न हो सदैव उसके जिह्वान पर बैठी रहती। उसके अध्यापक कहते-'दूसरे रामानुजम ने तुम्हारे घर में जन्म लिया है मुंडुकुर, बड़ी चेष्टा से इसका लालन-पालन करना-' मैं मन-ही-मन डरता भी रहता था, सुना तो यही था कि अत्यंत मेधावी बालक अल्प आय ही होता है। फिर वह आई.आई.टी. इंजीनियर बनते ही बिना कुछ प्रयास किए ही ऊँची फर्म की नौकरी पा गया। मुझे लगा मैं अब पिता का कर्तव्य पूरा कर चुका हूँ, अब एक ही कर्तव्य बाकी है, उसका विवाह कर वंशधर का मुँह देख लूँ-

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