कहानी संग्रह >> दो सखियाँ दो सखियाँशिवानी
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साइबेरिया के सीमांत पर बसे, चारों ओर सघन वन-अरण्य से घिरे, उस अज्ञात शहर में अपने किसी देशबंधु को ऐसे अचानक देखूँगी, यह मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था।
" 'मैं उसके लिए सुकन्या संधान में जुटा हूँ, यह खबर उसे मेरे मित्र राघवन ने
दी तो वह उसी रात आकर मेरे बगल में लेट गया। अभी भी वह अपने बचपन के अभ्यास
से मुक्त नहीं हो पाया था। रात को एक बार अवश्य वह मेरे पास लेट, अपनी बाँहें
मेरे गले में डाल देता था-
" 'अप्पा, सुना आप मेरे लिए लड़की ढूँढ़ रहे हैं?'
" 'हाँ बेटा, चौबीस वर्ष के हो गए हो, अच्छी नौकरी पा गए हो-अब मैंने
तुम्हारी बहुत देखभाल कर दी-इस उम्र के बाद, पुत्र की देखभाल पिता को शोभा
नहीं देती।'
“ ‘पर मेरा विवाह तो हो चुका है अप्पा!'
" 'क्या? मेरी छाती में जैसे किसी ने कसकर मुक्का मार दिया-कहीं किसी विजातीय
लड़की से प्रेम-विवाह तो नहीं कर लिया! उसके दो मित्र तो ऐसा कर ही चुके थे-
" 'मुझे क्यों नहीं बताया बेटा, मैं क्या तुझे मना करता? कौन है वह ? हिन्दू
है ना?'
“ 'हिन्दू नहीं हुई तो क्या उसे निकाल दोगे अप्पा?' वह शैतानी से हँसा-
" 'मैं और भी भयभीत हो गया, निश्चय ही कोई विजातीय लड़की होगी-
" 'चुप क्यों हो गए अप्पा?' फिर वह उसी खिलवाड़ में उचककर बैठ गया और मेरे
हाथ थाम हँसने लगा-'बेहद डर गए ना अप्पा-हाँ हिन्दू ही है-ब्राह्मण-' मेरी
संस्कारशील छाती से जैसे पत्थर की शिला हट गई।
“ 'फिर चुपचाप क्यों शादी कर आया, मैं धूमधाम से तेरी शादी करता-अपने दिल के
सारे अरमान निकालता विनायक-'
“ 'विनायक नहीं प्रतुल कहो अप्पा।'
" 'मेरे हाथ-पैर ठण्डे पड़ गए, इतने वर्षों बाद क्या मेरा विनायक फिर मुझे
छोड़ने की धमकी दे रहा था-आज तो गुरुदेव भी नहीं रहे जो उनके पास भागूं-
“ तिला तिलोत्तमा है मेरी पत्नी।'
" 'पागल मत बनो विनायक, तुम पढ़े-लिखे वैज्ञानिक हो-फिर भी ऐसी मूर्ख बातें
कर रहे हो-ऐसा होता है कभी?'
" होता है, अप्पा, मेरे साथ हुआ है-इसी से कह रहा हूँ, आप मेरे विवाह की
चिन्ता छोड़ दें।'
'वह फिर भोले शिशु की-सी निर्दोष निद्रा में डूब गया-मैं ही अभागा रातभर
बेचैनी से छटपटाता रहा-पर वह दूसरे दिन एक बार फिर अपनी स्वाभाविकता पर लौट
आया-दूसरे ही दिन उसे नौकरी पर जाना था। मुझे लेकर दूर तक ड्राइव कर ले गया,
बाजार से ढेर सारा मक्खन, ब्रेड, चीज, अण्डे लेकर फ्रिज को भर गया-'
" 'मैं जानता हूँ, मेरे जाने के बाद तुम अपनी परवाह नहीं करते हो अप्पा।
थोड़े दिन की बात है, फ्लैट मिलते ही मैं तुम्हें अपने साथ ले जाऊँगा! अकेले
नहीं रहने दूंगा-"
" 'जाने से पहले, वह पिता को जीवितावस्था में ही एक-एक पिण्ड देकर पितृऋण से
मुक्त होना चाहता था शायद--
“ 'छह महीने बीत गए, उसके नियमित पत्र आते रहते, वह अपनी नई नौकरी से बहुत
प्रसन्न है, फ्लैट मिलने ही वाला है, वह देख ही नहीं आया, मापकर पर्दे भी
बनवा लिए हैं-अब जल्दी ही आकर मुझे ले जाएगा-यही लिखा था उसने अपने अन्तिम
पत्र में-
" 'पर वह मुझे लेने नहीं आया-
" 'मैं ही उसे लेने गया था-
" 'पहले कई दिनों तक हँसमुख पत्रों की मरीचिका में वह मुझे छलता रहा-फिर
अचानक उसके एक सहकर्मी मित्र का फोन आया-वह दो महीने से बीमार है और मुझे खबर
देने को उसी ने मना कर दिया था-मेरे पिता का दिल बहुत कमजोर है-घबड़ा जाएँगे
फिर टायफाइड ही तो है-किन्तु जिसे सन्निपात ज्वर समझा गया, वह था घातक कर्कट
का पंजा-पहले डॉक्टर भी नहीं समझ पाए-जब निदान हुआ तो शत्रु झण्डा गाड़ चुका
था-'आप फौरन चले आइए-ल्युकोमिया है, जल्दी ही किमोथैरेपी होगी-आपका उस समय
यहाँ होना जरूरी है-'
" 'मैं हवा के वेग से भागकर पहुँच गया-उसे देखा तो अपने ही बेटे को नहीं
पहचान पाया-कुछ महीने पहले तो हँसता-हँसता गया था और आज? चेहरा रक्तहीन,
आँखों के नीचे कालिमा, शरीर केवल अस्थिपिंजर किन्तु चेहरे पर लगी वही
चिरआनन्दी हँसी-हल्लो अप्पा-
" 'किसी अदृश्य पाश ने मेरा गला घोंट दिया पर मैं तो घर से दृढ़ निश्चय कर
चला था कि उसके सामने मैं टूगा नहीं-'
" 'देखा अप्पा, आपने कितने यल से चौबीस सालों तक मेरे खून को सींचा और साला
भगवान्, उसी खून में दिन-रात बेईमान ग्वाला बना, पानी मिला रहा है। वह हँसा।
" 'नहीं बेटा, भगवान् के लिए ऐसे अपशब्द मुँह से मत निकालो-'
" 'मैंने उसके सफेद ललाट को छुआ तो लगा फ्रिज से निकली बर्फ की ट्रे छू ली
है-एकदम ठण्डा, हिमशीतल-
"किमोथैरेपी के दो दिन तो वह चहकता ही रहा-डॉक्टर प्रसन्न थेही इज
रिस्पांडिंग वेरी वैल-किन्तु तीसरे दिन से ही वह असह्य यंत्रणा में 'छटपटाने
लगा-सारा दिन वमन कर वह निष्प्राण पड़ा था।'
" 'अप्पा, इनसे कहो, मुझे अब और न छेड़ें-घर ले चलो मुझे-'
" ‘पर एक बार डाक्टरों के चंगुल में फँसकर क्या अपनी इच्छा-अनिच्छा कुछ रह
जाती है? पन्द्रह दिन की जानलेवा कवायद के बाद ही डॉक्टरों ने मुक्त किया।
" 'अब आप चाहें तो घर ले जा सकते हैं, पर तीन महीने बाद फिर दिखाना होगा-'
" किन्तु स्वयं डॉक्टर और मैं दोनों उसी क्षण समझ गए थे कि वे तीन महीने,
उसके जीवन में कभी नहीं आएँगे।
" 'मैं उसे घर ले आया-दिन-रात उसकी एक ही रट है अब-'उसे ले आओ अप्पा-' "
'किसे?'
'अपनी बहू को, तिला को-जाने से पहले एक बार मिलना चाहता हूँ उससे। उसकी
अवस्था अब ऐसी है कि वह बिना सहारे के उठ-बैठ नहीं सकता-कैसे छोड़ता उसे और
कहाँ ढूँढ़ता उसकी तिला को...
“ 'फिर उसी ने कहा-अपने मित्र राघवन शास्त्री को छोड़ जाइए मेरे पास-पहले
रंगपुर जाइएगा फिर वहाँ पता न लगे तो स्वर्णपुर जाइएगा, वहीं मेरी ससुराल
है-सारा नक्शा बनाकर उसने मुझे थमा दिया था-कहाँ ट्रेन बदलनी होगी, कहाँ से
बस मिलेगी, एकदम ठीक बताया था, कहीं कोई चूक नहीं।
" 'फिर मैंने वही किया-पहले रंगपुर गया तो पता लगा, वहाँ अब कोई नहीं रहता,
लोग मुझे ऐसे देखने लगे जैसे मैं परलोक का कोई यात्री भटककर आ गया
हूँ-'वर्षों पहले एक माधव बाबू रहते अवश्य थे।' एक बुजुर्ग ने कहा-'अपनी साली
के साथ वे अपने इकलौते बेटे की मौत के बाद यहीं रहते थे, पर साली की मृत्यु
के बाद दिमाग फिर गया था उनका, एक दिन इसी हवेली में चूहामार विष खाकर
आत्महत्या कर ली तब से यह बन्द पड़ी है, कहते हैं अभी भी नित्य आधी रात को
उनका प्रेत यहाँ आकर महफिल जमाता है, खूब नाच-गाना होता है मौशाई, जान-जान
देखे आशून (जाइएजाइए देख आइए-)।'
“ 'स्वर्णपुर गया तो पता चला, तुम्हारे माता-पिता दोनों पाण्डिचेरी चले गए
थे। वहीं उनकी मृत्यु हो गई--तुम्हारे घर में अब लड़कियों का स्कूल है, वहीं
तुम्हारे एक पड़ोसी वृद्ध मिल गए हरिदास पाल, उनसे शायद तुम्हारा कभी
पत्र-व्यवहार होता था-उन्हीं से यह पता लिया-आज दस दिन से छोड़ा है उसे, पता
नहीं कैसा है पर इतना जानता हूँ-तुमसे मिले बिना वह जा नहीं सकता-चलोगी ना
बेटी, तुम नहीं गईं तो मैं भूखा-प्यासा तुम्हारे ही द्वार पर प्राण त्याग
दूंगा।' "
अब तू ही बता, मैं कैसे न आती?
बैंगलोर में, उनका फार्म हाउस एयरपोर्ट से चालीस मील दूर था। टैक्सी लेकर
पहुंचते-पहुँचते रात हो गई थी।
लुंगीधारी एक गंजे वृद्ध अधैर्य से बाहर चहलकदमी कर रहे थे, हमें देखते ही
लपककर बढ़ आए-
"आ गए तुम? मैं घबड़ा ही गया था-कैसा है विनायक?"
"जैसा तुम छोड़ गए थे, पत्ता भी खड़कता है तो मुझे बाहर ठेल देता है-देखिए तो
जाकर, कहीं आ तो नहीं गए?"
“आओ बेटी," मैं डरती-डरती भीतर गई।
"विनायक बेटा, आँखें खोलो, देखो कौन आया है..."
मेरा कलेजा बुरी तरह धड़क रहा था, कैसा पागलपन कर बैठी थी मैं, क्यों आ गई थी
यहाँ मरने?
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