कहानी संग्रह >> दो सखियाँ दो सखियाँशिवानी
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साइबेरिया के सीमांत पर बसे, चारों ओर सघन वन-अरण्य से घिरे, उस अज्ञात शहर में अपने किसी देशबंधु को ऐसे अचानक देखूँगी, यह मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था।
एक विराट पर्यंक पर, बित्तेभर की अस्थि-पंजर-सी देह, रक्तहीन चेहरे के गहन
गर्त में धंसी आँखें-अविचलित गांभीर्य से भिंचे सफेद पपड़ी पड़े ओंठ-कौन
कहेगा कि यह इंजीनियरी पास कर नौकरी भी कर चुका हैपन्द्रह-सोलह वर्ष का कोई
शापभ्रष्ट गंधर्व किन्नर ही था क्या वह? मेरे प्रतुल के चेहरे से उस
श्यामवर्णी चेहरे का कोई भी साम्य नहीं था, सहसा उसने आँखें खोलीं, उन रेशमी
पलकों की चिलमन से झाँकती उन प्रेमोज्ज्वल पुतलियों को मैंने पहचान लिया-एकदम
वही निर्दोष झलक और वैसी ही बालसुलभ हँसी-
"मैं जानता था तुम आओगी, थैंक्यू अप्पा।"
अप्रस्तुत होकर, मेरे पीछे खड़े दोनों मित्र बहाना बनाकर खिसक गए-"हम चाय बना
लाएँ तुम बहुत थकी होगी-"
मैं सिरहाने धरी कुर्सी पर बैठ गई।
"तुमने बड़ी देर कर दी"-उसका थका-टूटा स्वर जैसे मीलों दूर से आ रहा था-मैंने
कहा था ना तिला उन अभागे विदेशियों की भाँति मुझे भी अपनी धरणी में दो गज
जमीन नहीं जुटेगी-मैं रंगपुर कभी नहीं लौट पाऊँगा, वही हुआ-कर्क एण्ड टैप्ले
एंड प्रतुल भट्टाचार्य-
मैं काँप गई-कैसे जान गया था वह!
"तुम्हें याद है तिला, मेरा एक गाना तुम बार-बार सुनती थीं-"
तोर मनेर मानुष एलो द्वारे
मन जखन जागली नारे
-मैं तो कब से तुम्हारा दरवाजा खटखटा रहा था पर तुम तो सोती रहीं-अब आई भी हो
तो बहुत देर हो चुकी है।
मेरी आँखों से झर-झर आँसू बह रहे हैं, यह मुझे स्वयं पता नहीं लगा उसी ने
अपना दुर्बल हाथ, मेरे आँसू पोंछने ऊपर किया तो कलाई पर बँधी, उसकी घड़ी सर्र
से कुहनी तक खिसक गई-फिर, हमारे संक्षिप्त सुखद साहचर्य की वह एक-एक घटना
आश्चर्यजनक तत्परता से सनाता चला गया-मैंने उसके जाने के दिन, कौन-सी साड़ी
पहनी थी, कैसे रंग का शॉल, सबकुछ बताया, वह सहसा हँसने लगा-"और यह तिल" उसने
मेरे कपोल के तिल को चट से अपनी दुबली हथेली से ढाँप दिया, ठीक उसी तरह ओंठ
टेढ़े कर वह कहने लगा-“ईश्वर ने तुम्हें यह दिठौना दिया है तिला कि किसी की
नजर न लगे-"
ठीक ऐसे ही तो प्रतुल भी कहकर मुझे छेड़ता था-फिर तो वह एक-एक घटना सुनाता
मुझे स्तब्ध कर गया। आज तक जिस स्मृति मंजूषा की चाबी केवल मेरे पास थी,
मैंने कभी मुँह खोलकर किसी से कोई बात नहीं की थी, उसी को बड़ी दक्षता से खोल
उसने मेरी सारी निधि मेरे सामने बिखेर दी-मुझे पाकर वह अपनी मृत्युतुल्य
यंत्रणा को भी भूल गया था-दो वृद्धों की आश्चर्यचकित दृष्टि, हमें पर्दे की
दरार से देख रही हैं-उसका भी हमें ध्यान नहीं था-कभी किसी स्मृति का उल्लेख
उसे गुदगुदाता और कभी मुझे, कभी हम दोनों एकसाथ ठठाकर हँस पड़ते-बड़ी देर बाद
खाँसते-बँकारते दोनों मित्र, एकसाथ कमरे में आए, जैसे अकेले आने का साहस न हो
रहा हो-
"बड़ी रात हो गई है बेटी-अब तुम आराम करो, बगल के कमरे में हमने तुम्हारे
सोने का प्रबन्ध कर दिया है-अब हम दोनों इसे देखेंगे-"
"नहीं," उग्र स्वर में उनके बेटे ने उन्हें डपट दिया-"कोई नहीं सोएगा।
यहाँ-तिला ही मेरे पास सोएगी-क्यों है ना तिला?"
सहसा दोनों वृद्धों की उपस्थिति मुझे यथार्थ के धरातल पर खींच लाई-मैं शर्म
से कट गई-क्या सोचते होंगे दोनों।
“आप दोनों सो जाएँ,” फिर मैंने ही स्थिति सम्हाल ली थी-"मैं बैठी रहूँगी,
मुझे रात जगने की आदत है। मुझे जगने में कोई कष्ट नहीं होगा।" दोनों सिर
झुकाकर चले गए।
बड़ी देर तक फिर वह थककर चुपचाप पड़ा रहा, किन्तु उसने मेरा हाथ, एक पल को भी
नहीं छोड़ा, कभी मेरे दोनों हाथ छाती पर धर लेता कभी अधरों पर-
"तिला," उसने पुकारा-इस बार मुझे उसकी बात सुनने, उसके ओंठों से कान सटाने
पड़े।
"कुछ रिश्ते जन्म-जन्मांतर के होते हैं, जानती हो ना?"
"जानती नहीं थी पर आज जान गई हूँ।"
"विश्वास करती हो ना अब?"
"हाँ।"
“तब आओ मेरे पास सो जाओ तिला," उसने अपनी दुर्बल सींक-सी बाँहें एक बार फिर
उसी तरह शून्य में फैला दीं।
“यहाँ आओ तिला, मेरे पास, मुझे कुछ नहीं दिख रहा है-तुम्हें एक बार छाती से
लगा लूँ-"
इस बार मैंने एक पल का भी विलम्ब नहीं किया-लज्जा, संकोच, भयमेरी सब भावनाएँ
एकसाथ मर गईं-मैं उसके पार्श्व में लेट गई।
द्वार खुला था, दोनों वृद्ध कभी भी उसे देखने आ सकते थे-पर चिन्ता ही किसे
थी?
पचास वर्ष की डॉ. तिलोत्तमा ठाकुर, जिसके अहंदीप्त सात्विकी व्यक्तित्व से
दाढ़ी-मूंछवाले शोधछात्र भी थरथर काँपते थे, वह बेहया बनी, एक अनजान मृत्युपथ
के यात्री को छाती से चिपटाए पड़ी थी-मेरा स्वयं कोई पुत्र होता तो शायद उसी
की उम्र का होता-मेरे निकट आकर उसने अपना माथा, मेरे स्कंधकोटर में छिपा लिया
जैसे बड़ी देर से माँ से अबोध शिशु अधैर्य से लिपटा जा रहा हो-
"तुम मुझे छोड़कर जाओगी तो नहीं तिला?"
"नहीं..." फिर वह मेरा उत्तर सुन, आश्वस्त होकर टुप्प से सो गया। प्रकृति
एकदम शान्त थी, बीच-बीच में झींगुर, ध्वनि झंकृत हो रही थी, जैसे कोई सिद्ध
सितारवादक, सितार के तारों पर मिजराब फेर रहा हो-
मैं साँस रोके चुपचाप पड़ी थी-न हिली, न डुली-इस भय से कि कहीं वह जग न
जाए-फिर वह तड़पकर चीखा-अप्पा अप्पा-
जाने में उसे तब भी देर नहीं लगी थी, आज भी नहीं लगी-पलक झपकाते ही वह मेरी
छाती पर माथा टिकाए अपनी यन्त्रणा से मुक्ति पा गया-क्या करूँ? उसके पिता को
बुलाऊँ, नहीं, पिता-पुत्र का बिछोह देखने की न मुझमें शक्ति थी न साहस! मैंने
एक बार उस हिमशीतल ललाट को चूमा, फिर उसी की चादर से उसका मुँह ढाँप, अपना
बैग लिए, चोर की भाँति निकल गई।
घर पहुँची तो मेरा चेहरा देख आनन्दी बौरा गई-क्या हो गया था मुझे, कहाँ गई थी
मैं? वह इशारों से पूछती ही रही-मैं ऐसी बुत बन गई जैसे कुछ समझ ही नहीं रही
हूँ। उस दिन लगा लूंगी-बहरी संगिनी जुटाकर, विधाता ने मेरा कितना बड़ा उपकार
किया था! कई रातों तक मैं फिर सो नहीं पाई। कायर की भाँति क्यों भाग आई थी
मैं? उस शोकविह्वल पिता के प्रति, क्या मेरा कोई कर्त्तव्य नहीं था? पूरे दस
दिनों तक, मैं अपनी देहरी पर दीया जलाकर रख आती थी-बहुत पहले मेरी विधवा ताई
हमारे साथ रहती थीं, जब उनकी मृत्यु हुई तो बाबा दस दिनों तक, रोज दीया जलाकर
रखते थे-“ऐसा क्यों करते हो बाबा?” मैंने पूछा था।
"इसे पाथेय श्राद्ध कहते हैं बेटा-यह प्रदीप मरनेवाले को यमद्वार तक प्रकाश
देता है-"
किन्तु पाथेय प्रदीप जलाकर भी मेरा अपराधी चित्त शान्त नहीं हुआ और फिर मैं
एक दिन जाकर, विनायक के पिता को अपने साथ ले ही आई।
"तुम तो मेरी कोई भी नहीं हो बेटी-क्यों ले जाना चाहती हो मुझे?"
“आपकी बहू हूँ मैं, अब आपको मेरे साथ चलना ही होगा-मन ऊबेगा तो चले
आइएगा-आपका फार्म हाउस तो है ही-"
किन्तु, वे वहाँ कभी लौट नहीं पाए-मैं जहाँ भी जाती, उन्हें अपने साथ खींच ले
जाती, उनका परिचय देती-"यह मेरे ससुर हैं।"
अच्छा ही हुआ जो उन्हें ले आई, बड़ा दुखद अन्त हुआ था उनका, वहाँ होते तो कौन
देखता उन्हें? मधुमेह के रोगी थे, पैर की एक सामान्य ठोकर, ग्रैंग्रीन में
परिणत हो गई, पूरी टाँग काटनी पड़ी, मैंने उनकी प्राणमन से सेवा की पर जहर
पूरे शरीर में फैल गया था-जाने से पहले वाणी चली गई थी पर मेरे दोनों हाथ
पकड़, आँखों में जो आशीर्वाद मुझे दे गए, वही मुझे कृतकृत्य कर गया।
मृत्यु से पहले, एक दिन जिद कर कचहरी जाकर अपना 'विल' बना गए थे, अपनी पूरी
सम्पत्ति, अपना फार्म हाउस, पत्नी के गहने--सबकुछ मेरे नाम कर गए थे। इतने
बड़े ऋण का बोझ मैं वहन नहीं कर सकती थी, पर उनसे कुछ कहती तो उन्हें दुख
होता। इसी से अभी जाकर, उनके फार्म हाउस की चावी, उनके विपत्ति के सखा राघवन
शास्त्री को सौंप आई हूँ-अब आप ही रहेंगे यहाँ। मैंने यह फार्म हाउस आपके नाम
ट्रांसफर कर दिया है।
उनके शेयर, बैंक की सम्पत्ति, यूनिट सबका ट्रस्ट बना, उसी हॉस्पिटल को दे
दिया जिस कुटिल रोग ने उनके इकलौते पुत्र के प्राण लिए, शायद उनका वैभव, किसी
ऐसे ही अभागे रोगी की यंत्रणा कुछ कम कर सके। उसी ट्रस्ट की कुछ औपचारिकताएँ
पूरी करने आई हूँ, कल लौट जाऊँगी-
तब ही ऐयर होस्टेस का तीखा स्वर हमें तटस्थ कर गया-
"हमारा विमान कुछ ही पलों में बम्बई उतरनेवाला है-कृपया अपनी कुर्सी की पेटी
बाँध लें और धूम्रपान न करें।" हम दोनों एकसाथ ही खड़ी हईं-एकसाथ ही उतरीं।
मैं अपना बैगेज लेने मुड़ी-यही सोचती रही कि वह तो पीछे-पीछे आ ही रही है,
किन्तु मैं तो भूल ही गई थी कि वह सर्वस्व त्यागिनी तो फालतू बैगेज से मुक्ति
पाने ही यहाँ उतरी है, कन्धे पर एक बैग लटकाए आई थी, वैसे ही चली गई-यह भी
कैसी विडम्बना थी कि न वह पूछ पाई मैं बम्बई में कहाँ रहती हूँ, न मैंने ही
पूछा कि किस शहर के. किस फ्लैट की देहरी पर तूने पाथेय प्रदीप जलाया तिला-
किन्तु इतना जानती हूँ कि किसी भी शहर की, किसी भी द्वार की देहरी पर उसने वह
दीया जलाया हो-उसकी निष्कम्प लौ, पिता-पुत्र दोनों के मृत्युपथ को अनन्तकाल
तक आलोकित करती रहेगी।
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