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दो सखियाँ

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :124
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5215
आईएसबीएन :978-81-8361-131

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साइबेरिया के सीमांत पर बसे, चारों ओर सघन वन-अरण्य से घिरे, उस अज्ञात शहर में अपने किसी देशबंधु को ऐसे अचानक देखूँगी, यह मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था।



बन्द घड़ी

माया ने छाया जीजी को हरे पर्दे खिसकाकर देखा, दूर-दूर तक कोहरा फैल गया था। अँधेरे में चमकती-छिपती रोशनियाँ, जुगनू-सी दप-दप दमक रही थीं। गरजते मेघों का तर्जन सुनकर लगता था कि पानी बड़े वेग से बरसेगा। “अभी तक जीजी हॉस्पिटल के राउंड से नहीं लौटीं। क्या पता किसी कमबख्त को दर्द उठ आया हो? बच्चे कब के स्कूल से लौट आए होंगे।" झुंझलाकर माया ने छाता उठा लिया और जीजी के खानसामे से बोली, "जीजी से कहना, मैं आई थी। मैं बड़ी देर रुकी रही। कल फिर आऊँगी।" कोहरा चीरकर वह घर की ओर चल दी, “कितनी अच्छी पिक्चर आई थी : 'लव इन दी आफ्टरनून' और जीजी ने सब चौपट कर दिया-कल का दिन बीच में है, परसों फिर उसके पैरों में बेड़ियाँ पड़ जाएँगी। बुध को लौटेगा गिरीश। खैर, कल सही-कल जीजी को फिर कोई निगोड़ी मरीज न बाँध बैठे।"

घर पहुँची तो गोल कमरे की बत्ती जल रही थी। रानीखेत की हिमशीतल बयार और हृदय के आतंक ने उसे कँपा दिया-तो क्या लौट आए हैं? वह भीतर गई ही थी कि सोनिया भागती हुई उससे लिपट गई “मम्मी", वह फुसफुसाकर बोली, “पापा दौरे से लौट आए हैं, मूड बहुत खराब है। इत्ता खराब।" वह अपनी नन्ही-सी बाँहों को शून्य में फैलाकर पिता के भयंकर मूड का घनत्व बतलाने लगी। “बाई गॉड ममी, ड्राइवर से बोले, सूअर का बच्चा और..."

“अच्छा-अच्छा, बस कर।" माया ने झुंझलाकर उसे अपने से अलग कर कहा।

इसी बीच गुसलखाने का द्वार खुला, द्वार क्या खुला कि सर्कस के शेर का पिंजड़ा खुल गया, “अच्छा कहिए, घूम आईं। जानलेवा घाटियों पर जीप दौड़ाकर इंसान घर आता है तो एक प्याली चाय का ठिकाना नहीं-जाइए न, और घूम आइए।" गिरीश ने उसे क्रूर दृष्टि से चीरकर रख दिया।

अपनी शान्त दृष्टि से पति का व्यंग्य और क्रोध झेलकर माया बोली, “घूमने नहीं, छाया जीजी के यहाँ गई थी।"

"बड़ी कृपा की।" गिरीश ने स्वर का बाण मारा और अखबार उठाकर पढ़ने लगा।

डबडबाई आँखें पोंछकर माया चौके में जाने लगी तो 'ममी-ममी' कहता दो वर्ष का अतुल पैरों से लिपट गया। उसके पीछे कूदता-फाँदता ऐल्सेशियन रौस्ट्री आ गया। उसकी कूदाफाँदी से पीतल का फूलदान झन-झनकर गिरा। अखबार हटाकर गिरीश ने एक लात रौस्ट्री को जड़ दी और गरजकर बोला, "भाग जा हरामजादे, दो मिनट तो कहीं शान्ति से बैठने को मिले।"

सहमकर क्षणभर में पूरा परिवार बिखर गया। माया आकर अतुल बाबा को ले गई, 'बाप रे बाप! साहब हैं या बम का गोला।' वह मन-ही-मन बुदबुदाई। माया ने चट गुसलखाने में जाकर द्वार बन्द कर लिए। सहमी सोना अपनी होमवर्क की रफ कॉपी में भयंकर दैत्याकृतियाँ बनाकर लिखने लगी, 'पापा इज ए डेविल।' 'पापा भूत हैं।' 'पापा इज ए बिग फैट डेविल'। प्रतुल अपने मित्र के यहाँ अंग्रेजी गाने के रेकार्ड सुनने गया था, तंग मुहरे की पैंट की जेब में हाथ डालकर मस्तानी चाल से गुनगुनाता भीतर घुस आया, 'लिपस्टिक ऑन योर कालर' गिरी मेज और बिखरे फूलदान को बिना देखे ही कंठस्वर तीव्रतर करता वह बढ़ता गया। सहसा कोने की कुर्सी पर पापा को देखा तो साँप सूंघ गया।

"अक्खाह, आइए प्रिन्स ऑव वेल्स।" व्यंग्य के तीखे स्वर में पापा बोले, “कहिए, कितनी पिक्चर देखीं? यह लिपस्टिकवाला वाहियात गाना भी उसी पिक्चर का है क्या?"

“न पापा, यह तो बिनाका ‘टॉप हिट' है।" रुंआसा-सा होकर प्रतुल बोला।

"क्यों नहीं, क्यों नहीं! बाप साला हड्डियाँ तोड़कर पैसा कमाता है कि लाड़ले यही हिट सुनें। चल, ये जनानी चूड़ीदार-सी पैंट बदलकर आ। बेशरम जमाना बोल रहा है, बाप के सामने बेहूदे गाने गाए जाते हैं। चल, हिसाब की कॉपी लेकर बैठ। इनकी उमर में हमें चक्रवर्ती की अंकगणित जीभ की नोक पर थी, पर इनसे पूछिए सोलह का पहाड़ा, तो साफ। हरामी स्कूल के मास्टर और दो अंगुल बढ़कर ये छोकरे।" सहमकर प्रतुल पैंट बदलने चला गया।

गिरीशचन्द्र शर्मा अपने विभाग का सबसे सम्मानित एवं ख्यातिप्राप्त इंजीनियर था, दुर्गम पहाड़ों के वक्ष चीरकर नई-नई मोटर रोड बनाने का भार इसी से उसे सौंपा गया था किन्तु लोहे का पुल और बड़े-बड़े पहाड़ डायनामाइट से उड़ाकर चौड़ी सुगम सड़क बनाने की प्रणाली वह अपने व्यक्तिगत जीवन में भी खींचकर लाना चाहता था। कठोर अनुशासन ममता और वात्सल्य की डोर को चतुर चूहे की भाँति भीतर-ही-भीतर कुतरे जा रहा था, इसका उसे ध्यान ही नहीं था। इसी से वह दौरे पर जाता तो घर में शहनाइयाँ बजने लगतीं, अत्ती को आया को सौंप माया जीजी के यहाँ चली जाती। घंटों दोनों बहनें गप लड़ातीं और दिन डूबे माया घर लौट आती तो सोचती, 'हाय छाया जीजी, कितनी सुखी हैं! न बच्चों की चें-पें, न पति की झिड़कियाँ। काश, मैं छाया जीजी होती!' और छाया सोचती, 'हाय, माया कितनी सुखी है, फूल-से बच्चे और कार्तिकेय का-सा सुन्दर पति। काश, मैं माया होती!' छाया थी साँवली, देखने में अति सामान्य किन्तु पढ़ने में प्रखर बुद्धि। इसी से वह बन गई डॉक्टर और माया थी सुन्दरी, भावुक, शरीर और मन दोनों से दुर्बल। सिविल सर्जन पिता की लडैती पुत्रियाँ बड़े दुलार में पलकर बड़ी हुई थीं। माया नाजुक और छोटी होने के कारण पिता के बहुत मुँह लगी थी इसी से बड़े यत्न से उसके लिए वर-चयन किया गया था।

गिरीश रुड़की इंजीनियरिंग कॉलेज का मेधावी छात्र था। लाखों में एक जानकर ही उसके सम्पन्न श्वसुर ने उसे चुना है, यह वह जानता था। किन्तु उनका धन-वैभव उसके व्यक्तित्व को मोलतोल की डोर में कभी नहीं बाँध सकेगा, यह उसने एक प्रकार से स्पष्ट कर दिया। दोनों का व्यक्तित्व नहले पर दहला था, झड़प होती तो माया और गिरीश साँप और नेवले की भाँति आमने-सामने खड़े हो जाते। जय-पराजय का लेखा कब किसके पल्ले रहा, कोई जान भी न पाता। माया थी भावुक, गिरीश को भावुकता से चिढ़ थी। माया को शोख रंग की साड़ियाँ पसन्द थीं, कभी-कभी लिपस्टिक भी लगा लेती, तो गिरीश कहता, "चूहा मारकर खून लगा लो न ओठों पर, और अच्छी लगेगी।" माया जल-भुनकर रह जाती। माया को रोस्ट चिकन चिंचोड़ने में स्वर्गीय आनन्द आता और गिरीश को गोश्त देखकर उबकाइयाँ आती थीं।

छाया जीजी कभी बड़ी चेष्टा और चातुर्य से छोटी बहन से बातें उगलवा ही "हद है यह गिरीश! अजब कसाई है, गोया बाप नहीं हौआ हो गया! कल ही कहूँगी में।" वह कहतीं, पर मन-ही-मन वह स्वयं उस मान-मनौवल के लिए तरसकर रह जातीं। कैसे अमूल्य होते होंगे वे मान-अभिमान के मधुर आण। वह रूठना, वह मनाना उसके जीवन में आकाश-कुसुम-चयन-सम रहेंगे।

उधर गिरीश उससे मन-ही-मन चिढ़ उठा। जब से छाया की बदली रानीखेत हो गई, माया एकदम ही पराई-सी हो गई थी। पति-पत्नी में बोलचाल 'हाँ-हैं' तक ही सीमित थी। निरंकुश स्वेच्छाचारी सम्राट् की भाँति गिरीश ने शासन की बागडोर, अव्यवस्था के भय से और कड़ी कर दी। खाने की मेज पर सब किलकते, पर गिरीश के आते ही अनुशासन का कठोर मेघ-सा छा जाता। यन्त्रवत् कौर निगलकर सब चुपचाप उठ जाते। मेज पर लगे कहकहे, चहलबाजियाँ जैसे सब भूल गए। ममी और पापा के सामान्य से झगड़े ने भीषण रूप धारण कर लिया। नन्हें मासूम भोले चेहरे बेरौनक हो गए, जैसे दकान पर सजे बहुत पुराने खिलौने हों। घर की झुंझलाहट बाहर निकलने लगी। मेमसाहब महरी और आया से बेमतलब उलझने लगीं। उधर दफ्तर के हेडक्लर्क और चपरासियों पर साहब जरा-जरा-सी बात पर बरसने लगे। एक तो मार्च का महीना, बिलों और फाइलों का अम्बार, उधर पत्नी और बच्चे मोर्चा बाँधकर अलग हो गए। ममी और पापा के झगड़े में बच्चों की सहानुभूति ममी के साथ देख गिरीश जलभुन बैठा। उसने अत्याचारों की झड़ी लगा दी, पराँठे बनते तो फुलके माँगता। पहले मूंग की दाल से कोसों दूर भागता, अब दिन-रात मूंग की दाल की फरमाइश होती। खाकर झनाक से थाली पटक देता, कभी झनक से गिलास! उधर क्रोध और झुंझलाहट से भरी माया चौके से ही चिमटे और सँड़सी का जलतरंग बजाकर प्रत्युत्तर देती। ऐसी बाढ़ आ गई, जिसका कूल-किनारा नजर नहीं आता था। लगता था, क्रोध की नदी हरी-भरी गृहस्थी को निगलकर ही मानेगी।

एक दिन माया हल्दी की पुड़िया खोलकर सँभाल रही थी कि पुड़िया के कागज पर दृष्टि दौड़ गई। फटे अखबार का पृष्ठ था : “बीस वर्षीया स्त्री की दुःखद मृत्यु। घर के झगड़े से ऊबकर बीस वर्षीया मिसेज खेर ने कल मिट्टी-तेल डालकर आत्महत्या कर ली।" डूबते को तिनका मिला, क्षणभर की यातना और वह सदा के लिए मुक्त हो जाएगी। आज ही वह यह संकल्प परा करेगी। माया की आँखें चमक उठीं। खूब सबक मिलेगा बच्चू को! अकल ठिकाने आ जाएगी। जरा रख तो लें धोबी और दूध का हिसाब! चला तो लें घर-खर्चा, जान लेंगे बच्चू कि कै बीसी सैकड़ा होते हैं! एक रात अतुल बीमार पड़ जाए तो छठी का दूध याद आ जाएगा! पर सहसा मातृहीन अतुल की काल्पनिक बीमारी की आशंका ने पति के प्रति प्रतिहिंसा की ज्वाला पर ठंडा पानी गिरा दिया। माँ के गले का हार पकड़े बिना अतुल दूध की बोतल मुँह में नहीं लेता। एक दिन उसे छाया के यहाँ से लौटने में देर हो गई थी, तो 'ममी ममी' चीखकर उसे बुखार हो आया था। सोनिया को स्कूल जाने से पूर्व, माँ से लिपटकर नित्य दो आने वसूल करने की कुटेव है। एक आने का वह आम का पापड़ लेती है और एक आने की खट्टी-मीठी गोली! और उसके सौ-सौ लाड़ों का लड़ाया प्रतुल! महीने में दस अंग्रेजी कॉमिक पढ़े बिना उसे पेचिश हो जाती है, घर के डेफिसिट बजट को खींच-खींचकर उसके पेचिश की दवा भी माया को ही जुटानी होती है। स्वयं गिरीश! कितना ही गरजे और तरजे, पर माया के बिना मणिहारा सर्प-सा व्याकुल हो उठता है सो?

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