कहानी संग्रह >> दो सखियाँ दो सखियाँशिवानी
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साइबेरिया के सीमांत पर बसे, चारों ओर सघन वन-अरण्य से घिरे, उस अज्ञात शहर में अपने किसी देशबंधु को ऐसे अचानक देखूँगी, यह मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था।
हुँ, जाएँ भाड़ में सब! मान-अभिमान से माया की छाती फूल उठी। अपनी काल्पनिक
मृत्यु पर स्वयं ही उसकी रुलाई फूट पड़ी। सोनिया लौटेगी तो देखेगी नित्य की
भाँति ममी चाय की मेज पर नाश्ता सजाए खड़ी नहीं है! बड़ी-सी चादर से उसकी लाश
ढंक दी गई है। अपराधी गिरीश विषाद से काला चेहरा लिये कुरसी पर स्तब्ध बैठा
है। अतुल आकर माँ की लाश से चिपटकर कहता, 'ममी उतो' तभी अपने को रोक नहीं
सकता गिरीश! फुक्का फाड़कर रो उठता है, “माया इतनी बड़ी सजा क्यों दे गई?"
परम सन्तोष से माया ने मिट्टी-तेल की बोतल पकड़ ली। सहसा माया को याद आई,
छाया जीजी ने उसे नई आलिव ग्रीन साड़ी लेकर दी। एक दिन भी तो नहीं पहनी उसने!
क्यों न आज अन्तिम बार पहन ले? माया ने मुँह धोया, नई साड़ी पहनी, जूड़ा
बनाया, सफेद माथे पर बड़ी जतन से बिन्दी धरी और अन्तिम बार शहीद की करुण
दृष्टि से अपना मोहक प्रतिबिम्ब आईने में देखा। एक बार, केवल एक बार अतुल को
देखने की इच्छा बलवती हो उठी। धीरे-धीरे वह दबे पैरों से गोल कमरे तक गई।
अकेला बैठा अत्ती बूटपालिश की डिबिया को फर्श पर लुढ़का रहा था और भाग-भागकर
मुँह में दबाकर रौस्ट्री उसे फिर-फिर नन्हें मालिक के चरणों पर रख रहा था।
दोनों हाथों से तालियाँ बजाकर, किलकारियाँ मारता अतुल फिर उसे पहिए की भाँति
लुढ़का दे रहा था। पुत्र की क्रीड़ारत छवि को डबडबाई आँखों में भरकर माया
देहरी से ही लौट आई! घड़ी में दो बजे थे, तीन बजे बच्चे लौट आएँगे। इससे पहले
ही मन पक्का कर मुक्ति पा लेनी होगी उसे। मिट्टी-तेल की बोतल और दियासलाई
लेकर वह गुसलखाने में घुसने को ही थी कि सहसा स्मरण हो आया, प्रतुल सुबह कह
गया था, 'ममी, मेरी सफेद कमीज में बटन टाँक देना, मुझे डिबेट में जाना है।"
झुंझलाकर बाहर निकली और कमीज निकालकर बटन टाँकने बैठ गई। कभी याद करेगा, ममी
के हाथ का टँका आखिरी बटन। बेसमझ आँखें फिर बरसने लगीं। अतुल की किलकारियाँ
और नन्ही-सी हथेली की तालियाँ उसके हृदय पर घन की-सी चोटें कर रही थीं। पर अब
नहीं रुकेगी वह, बाथरूम में घुसकर कुंडी चढ़ाएगी, और...
पर क्या इतनी सुन्दर आलिवग्रीन कांजीवरम पर मिट्टी-तेल छिड़कना बुद्धिमानी
होगी? क्यों न कोई फटी-सी इकलाई पहन ले। “इसे कभी सोनिया पहनेगी।" एक लम्बी
साँस खींचकर उसने सोचा। वह सोच ही रही थी कि गिरीश का स्वर आया, “अरे दुष्ट,
यह क्या लंगूर-सी शकल बना ली है? ओ हो हो हो!" और पति का वही चिरपरिचित
उन्मुक्त हास्य जिसे वह प्रायः भूल ही गई थी। स्नेहमयी वात्सल्यपूर्ण झिड़की
ही थी, क्रोध का लेश भी न था उसमें, “हत् तेरी नानी की दुम! क्या चेहरा बना
लिया है रे भूत!"
"क्या किया पापा?" सोनिया और प्रतुल का स्वर था, साथ ही पिता और बालकों का
सम्मिलित राशिभूत अट्टहास! चट् मिट्टी-तेल की बोतल कोने में पटक वह बाहर निकल
आई! घड़ी में अब भी दो ही बजे थे। सर्वनाश! तो क्या घड़ी बन्द थी? कान के पास
घड़ी ले जाकर देखा तो सचमुच घड़ी बन्द थी। चाय का पानी भी तो नहीं चढ़ाया था
उसने! इतने में ही अतुल को कन्धे पर बिठाकर गिरीश आ गया, उसके पीछे प्रतुल,
सोनिया और सबके पीछे दुम हिला-हिलाकर नन्हें मालिक के अनुपम कला-चातुर्य की
दाद देता रौस्ट्री! . बादलों को चीरकर जैसे सहसा तरुण चन्द्र की धौत
चन्द्रिका म्लान वनवनान्त को रँग जाती है, ऐसे ही पुत्र को देख मधुर हास्य से
माया का वेदना-विकीर्ण म्लान-मुखमंडल उज्ज्वल हो उठा। पति के कन्धे पर बन्दर
का-सा चेहरा बनाए श्री अतुलचन्द्र शर्मा विराजमान थे-बूटपालिश की काली डिबिया
से उसने अपने चन्द्रमुख को नाना आकार के त्रिपुंडों से शोभित कर लिया था और
अपने दो दाँतों की अनुपम छटा बिखेरते फक-से मुस्करा रहे थे। पति की ओर देखकर
माया ने आँखों ही आँखों में सन्धिपत्र पर हस्ताक्षर कर दिए। माया को देखकर
अतुल उसकी गोद में आने को मचलने लगा। बाँहें फैलाकर माया उसे लेने लगी तो पति
के कन्धे से उसका हाथ छू गया। बच्चों की दृष्टि बचाकर गिरीश ने उसकी बाँह में
चिमटी काट दी। 'उफ' माया ने स्नेहपूर्ण कटाक्ष से गिरीश की ओर देखकर अतुल को
गोद में ले लिया और मन-ही-मन सोचने लगी, 'कैसी नासमझ हैं छाया जीजी! कहती थीं
तेरा पति कसाई है-कसाई भला ऐसी स्नेहभीनी हरकतें कर सकता है!'
"देख तो सोनी, घड़ी में क्या बजा है, सवा चार बजे मुझे एक मीटिंग में जाना
है।" गिरीश ने कहा।
भागकर सोनिया घड़ी देख आई, "हाय पापा, कैसी कनस्तर घड़ी है, जब देखो तब बन्द!
उसमें तो दो ही बजा है। यह देखिए।" सच घड़ी में अब भी दो ही बजे थे।।
माया ने कृतज्ञता-कातर दृष्टि से बन्द घड़ी को देखा। उसे लगा जैसे उस बन्द
निर्जीव घड़ी से सुन्दर अन्य कोई वस्तु संसार में हो ही नहीं सकती!
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