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चार दीवारों में

एम. टी. वासुदेवन नायर

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5266
आईएसबीएन :81-237-2162-5

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बेजान संबंधों की चारदीवारी में घिरे कुटुबिंयों की मनोदशा का आकलन....

Char Deewaro Mein

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भूमिका

अप्पू नेडुंगांडि का ‘कुंदलता’ (1887 ई॰) केरल की भाषा मलयालम में प्राकाशित सबसे पहला उपन्यास है। एक तरह से यह आरंभ गलत हुआ, क्योंकी उस का रूप नवीन होने पर भी कथावस्तु पुरानी दंतकथाओं और प्रेम-लीलाओं जैसी थी। वर्णन की क्षमता और उसमें सौंदर्य होने पर भी शेक्सपियर के ‘सिम्बेलिन’ और स्काट के ‘ऐवनहो’ से इसकी कथावस्तु ली गई थी और कहानी की घटनाएं अनिश्चित स्थान और अनिर्दिष्ट काल में घटित हुई हैं। वातावरण, घटनाएं और पात्र केरल के नहीं लगते।

यधपि सन् 1887 में लिखा गया ‘कुंदलता’ दंतकथाओं और प्रेम लीलाओं के नष्ट होते वातावरण की ओर घूम जाता है, तथापि केवल दो साल बाद लिखा चंतु मेनोन का ‘इंदुलेखा’ उसी समय ऐसे भावों और विचारों को लेकर आगे आया जो आज के लगते हैं। ऐसा इसलिए हुआ कि इसमें स्थान और घटनाओं में जरा भी संदिग्धता नहीं है। वातावरण, पात्र और घटनाएं उन्नीसवीं सदी के अंतिम काल के केरल से संबंधित हैं।

इस उपन्यास में पीढ़ियों से चला आया और मातृवंश-परंपरा को मानने वाला एक पुराना सामंतवादी सम्मिलित कुटुंब यह इंगित करता हुआ अनोखे ओज से सजीव हो उठता है कि आधुनिक युग में यह प्रथा नहीं चल सकती। चूंकि अब सम्मिलित नायर कुटुंब का क्षय और बदलती हुई व्यवस्था से संगति करने की कठिनाइयां भी मलयालियों से इतर पाठकों के सामने आने वाली इस कृति की विषयवस्तु बनी है, इस जाति की सामाजिक पृष्ठ भूमि का परिचय उपयोगी होगा।

उत्तर से वैदिक ब्राह्मणत्व का जो प्रभाव आरंभ में बूंद-बूंद करके इधर आया था, वह आठवीं-नवीं सदियों में एक बड़ी बाढ़ के समान हो चला था। इस प्रभाव से पहले सामाजिक विकास बहुत कम था। यद्यपि वहाँ किसान, चरवाहा, मछुआ आदि के रूप में व्यावसायिक स्तर से वर्गीकरण था, किंतु वैदिक ब्राह्मणत्व ने चातुर्वर्ण्य को दृढ़ता से अपनाया। संख्या में कम होने पर भी, शुरू से ही ब्राह्मण पौरोहित्य, प्रतिष्ठा और अधिकार प्राप्त कर सके और इससे वे केरलीय समाज का बहुत अधिक पुनर्गठन कर सके। वे स्वयं नये सामाजिक शिखर पर विराजमान रहे।

दसवीं शताब्दी में केरल के चेरों और तमिष़ देश के चोलों के बीच में सौ सालों का युद्ध आरंभ हुआ और सन् 1019 में चेरों की राजधानी महोदयपुरम का पतन हुआ। उस विपत्तिकाल में चोल आक्रमण के विरूद्ध केरल में हुए युद्ध के परिणामस्वरूप एक योद्धा जाति का जन्म हुआ। आत्मबलि देने वालों का यह प्रसिद्ध दल (चावेर नायर) इतिहास की नैराश्यपूर्ण ललकार की वीर प्रतिक्रिया था। इस काल में हम सबसे पहले ‘नायर’ शब्द को सुनते हैं। आरंभ में यह निश्चित ही जाति का सूचक नहीं था, किंतु संभवतया आत्मबलिदान के लिए तत्पर दलों में उच्च पद या उपाधि का द्योतक था। लेकिन, सैनिक सेवा के आधार पर जातीय वर्गीकरण जल्दी ही स्थिर हो गया। एक राजकीय शक्ति के साथ जीवन-मरण के युद्ध में जुटे एक समुदाय में अपने सामरिक कार्य के कारण नायर लोग राजवंश के बहुत निकट आ गए। ब्राह्मण और क्षत्रिय युवकों को नायर लड़कियों से विवाह करने का अधिकार प्रदान किया गया।

आरंभ के चेर राजाओं की सूची से स्पष्ट हैं कि वंशावली पितृ-परंपरात्मक थी। यह हो सकता है कि चेर-चोल युद्ध के समय केरल में सबसे पहले मातृ-वंशपरंपरा का जन्म हुआ। प्रवासी लोगों में, जैसा स्वाभाविक है, केरल में आए लोगों में स्त्रियों की अपेक्षा पुरुष अधिक थे। इस कारण ब्राह्मण कुटुंब में केवल सबसे बड़े पुरुष के स्वजाति में विवाह करने की प्रथा चल पड़ी। छोटे भाई क्षत्रिय या नायर लड़कियों से विवाह करते थे, लेकिन उनकी संतानो को उनकी संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं था। इससे मातृ-सत्ता और मातृ-सत्तात्मक उत्तराधिकारी की ओर जाने का अर्थिक आदेश होने लगा। चोलों के साथ हुए युद्ध के विध्वंश में नायर पुरुषों की अधिकाधिक संख्या में अहुती हुई। ब्राह्मणों में स्त्रियों की संख्या बढ़ने से अतिविवाह और मातृ सत्ता की प्रथा अधिक विकसित हुई।

पुरोहित अधिकार, शाही घरानो के साथ वैवाहिक संबंध से प्राप्त परोक्ष सैनिक सत्ता, उनके धार्मिक अनुष्ठानों को करने का एकाधिकार, विपुल भू-संपत्ति की आर्थिक शक्ति—इन सब बातों के कारण ब्राह्मण (जो नंबूदरी कहलाते हैं) केरलीय समाज को एक दृढ़ सामंतवादी सूचीस्तंभ (पिरैमिड) के ढांचे में ढाल सके, जिसमें वे और नायर लोग अतिशय रूढ़िवादी, अत्यधिक विशेष सुविधा प्राप्त सर्वोच्च जाति बनें। ईसाई, मुसलमान आदि केरल के अन्य प्रमुख समुदायों के लिये इस शिरोबिंदु से दूर रहना एक वरदान सा हुआ, क्योंकि वे इस कारण से व्यापार और दूसरे धंधों में अपनी कुशलता दिखाने के लिए विवश हुए। जब केरल का अनेक छोटे राज्यों में विभाजन हुआ, जिनकी अपनी-अपनी सुसज्जित सेना थी, नायर समुदाय तब भी प्रतिष्ठा और समृद्धि को भोगते रहे। किंतु अठारहवीं सदी में राजा मार्तंड वर्मा ने इन राज्यों का खात्मा कर दिया और तिरूवितांकूर में एक प्रबल और केंद्रीय राजतंत्र स्थापित किया। इसी काल के प्रसिद्ध हास्य-कवि कुंजन नंबियार ने, विच्छिन सेना के नायर लोगों की कठिनाइयों और अतीत काल के उनके अभिमान पर, जिसने उनको जीविकोर्पाजन के नये मार्ग को ढूंढ़ने से रोके रखा, व्यंग्य कसा है।

पहले नंबियार के चुभने वाले व्यंग्य और बाद में एम.टी. वासुदेवन नायर और अन्य लेखकों के चिंताजनक रहस्योदघाटन की अपेक्षा ‘इंदुलेखा’ का भाव प्रफुल्ल है। लेकिन हमें उत्पादन को बढ़ाने का कष्ट बिना उठाए भूमि की उपज पर जीविका चलाने वाले विशिष्ठ वर्ग की परोक्ष झांकियां मिलती हैं। मातृ सत्ता वाले कुटुंब का कड़ा शासन करने वाले मुखिया (कारणवर) और उनके भानज और भानजियों की अभिलाषाओं के बीच उत्पन्न तनाव पर अधिक स्पष्ट प्रकाश पड़ता हैं। यहाँ इस ओर संकेत है कि मातृसत्तावादी सम्मिलित कुटुंब प्रथा वर्तमान काल के लिए दुर्वह बनती जा रही है।

मलयालम उपन्यास के बाद के विकास की रूप रेखा यहाँ दी जाती है, यद्यपि यहाँ जो आवश्यक है वह प्रस्तुत कृति का एक ढांचा ही है। परिवर्तित समाज के साथ अपनी असंगति का अध्ययन करने के लिए उत्सुक प्रत्येक समाज के वर्गीय मन का नमूना ‘इंदुलेखा’ में प्रस्तुत किया गया है। किंतु इस प्रवृत्ति का बोध पाने से पहले, एक नए और तरह से परावर्ती वर्ग का बहुत अधिक हस्तक्षेप हुआ। यह था महाप्रबन्ध काव्य के परिमाण का ऐतिहासिक उपन्यास। सन् 1891 और 1920 के बीच सी.वी. रमन पिल्लै ने अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथत्रय की रचना की। लेकिन यहाँ भी बदलते हुए जमाने में समुदाय के कार्य के साथ वर्गीय मन की तन्मयता ऊपरी तल के नीचे दिखाई देती है। जबकि नायर समुदाय की राजनीतिक शक्ति का ह्रास हो रहा था, पिल्लै ने अपने ग्रंथत्रय में प्रसिद्ध नायर राजा केशवदास के कार्य का स्मरण कराया जो अठारहवीं सदी के अंतिम दिनों की विपत्तियों में, जब मैसूर ने हैदरअली और उसके पुत्र टीपू के शासन काल में तिरुवितांकूर के अस्तित्व को मिटाने की धमकी दी, तिरुवितांम कूर के कर्णधार बने। एक प्रकार से यह उस व्यवस्था का अनुस्मरण है कि उसे उस जाति पर कृपादृष्टि रखनी चाहिए जो अतीत में योग्य और राजभक्त सिद्ध हुई है।

नंबूदरी समुदाय में सामाजिक रोग को जन्म देने वाली परंपरा यह भी थी कि स्त्रियाँ रसोई घर में बंद रखी जाती थी, और सयानी होने से पहले ही लड़कियों का विवाह कर दिया जाता था और वह भी अकसर अमीर बूढ़े लोगों के साथ। पाश्चात्य धर्म प्रचारकों के संपर्क में आकर आधिकाधिक परिर्वतनों को मानने के कारण ईसाई समुदाय को अनुकरणात्मक तीव्र गति वाले अधुनिकीकरण के परिणामों की शान्ति से जाँच करनी पड़ी। नायर समुदाय बोझिल सम्मिलित कुटुंब की प्राचीन प्रथा के जीवित रखने के प्रश्न को सुलझाने में जुटा रहा, जबकि बदलते समय में छोटे और केंद्रित परिवार की प्रबल आवश्यकता थी। परंपरागत धर्मांधता और नितांत रूढ़िवादी मुस्लिम समाज का कठिनाइयां थीं। इन विशेष बातों को लेकर कई अच्छे उपन्यास लिखे गए।

प्रत्येक समुदाय के वर्गीय मन के सामाजिक सामंजस्य के विशेष प्रश्नों की तन्मयता से उपन्यास की एक धारा आर्थिक और राजनीतिक व्यग्रताओं की ओर बढ़ती है। चेरूकांड़ अपने उपन्यास में जमीनदारों और काश्तकारों के बीच के संघर्षो का विश्लेषण करता है, ग्रामीणता के प्रति तीव्र मनोवृत्तियों के सजीव रेखा चित्र खींचता है। तकषि और केशवदास ग्रामीण और नगरीय मजदूर वर्ग ( खेती करने वाले मजदूर, भंगी, रिक्शावाला) के भाग्य पर अधिक ध्यान देते हैं।

चूंकी जीवन के परंपरागत मार्ग की निरपेक्षता शीघ्र गति से खो जाती है और केरलीय जीवन की विशेषता अत्यधिक राजनीति के कारण उत्तेजक बनी रहती है, परिवर्तनशीलता उसका अनिवार्य परिणाम होती है। अनेक उपन्यासों में उच्छृंखलता और लक्ष्यहीनता की झलक मिलती है—वी.टी. नंदकुमार के उपन्यासों में मनुष्य के कठपुतलियों के रूपांतरण से लेकर ओ.वी. विजन कि अति संवेदनशीलता तक। किंतु ये सब उपन्यास यही दिखाते हैं कि मानव किसी आदर्शभाव या उस तक पहुंचने की क्षमता के बिना बहता जाता है।

इसके विपरीत ऐसे बहुत से उपन्यासकार हैं जो मानव में एक नया विश्वास प्राप्त करने के लिए कठिन से कठिन प्रयत्न कर लेते हैं। के. सुरेंद्रन के यथार्थ राजनीति के अध्ययन को पुराना और सरल राजनीतिक आशीर्वाद जीवित नहीं रख सका। केशवदेव सामाजिक तनावों और बिगड़े उद्देश्यों के दोषो पर पर्दा नहीं डालता। वह अपनी कहानियों के अंत में यह साबित करता है कि सभी मनुष्य केवल पड़ोसी ही नहीं, अपितु इक-दूसरे के रक्षक हैं।

अब हमको उस लेखक पर विचार करना चाहिए जिसकी कृति यहां प्रस्तुत की गयी है। एम.टी. वासुदेव नायर के उपन्यासों में उपाख्यानात्मक तत्व है। तनाव और संघर्षों को पैदा करने वाली सामाजिक यथार्थताओं के साथ सीधा मुकाबला कम है। तभी यह सूचित करता है कि उसके निराशावाद की जड़ें गहरी और संतोषमूलक हैं। सन् 1967 में लिखी ‘शरण’ नामक उनकी एक अनोखी कहानी में एक मनुष्य जो अनेक वर्षों से अपने गाँव से दूर रहा था, पुनः संबंध स्थापित करने के लिए गाँव लौटता है। पुराने मित्रों को ढूंढ़ता है। सभी चेहरे उसके लिए नए और विरोधी लगते हैं। इस कहानी में बेक्केट के ‘गोदो का इंतजार’ जैसा कुछ है। थोड़ा सा काफका के ‘महल’ जैसा है और अयनेस्को के निरर्थक के अर्थपूर्ण उपयोग की मात्रा अधिक है। उपाख्यानों के दुःस्वप्नपूर्ण क्रम में मनुष्य के एक संसार को अपनाने के निष्फल और तीव्र प्रयत्नों को हम देखते हैं।

मनुष्य संसार की पारस्परिक क्रियाओं से उत्पन्न सुख-दुखों की अपेक्षा अपहरण का भाव अधिक महत्व का है। उनके अपहरण का समर्थन करने से वह संसार का एक महत्वपूर्ण और युक्तिमूलक निर्णय नहीं हो सकता। क्योंकि कथानायक उपन्यासकार का रूपक है और यह आखिरकार उसी का चुना हुआ है। अंतर्भावना के निजी परिवेश से इस लेखक का एक और उपन्यास ‘अंधकार की आत्मा’ जन्म लेता है। सन् 1965 में उनके लिखे लघु –उपन्यास ‘कोहरा’ में उपाख्यानात्मक संरचना सबसे सरल है। यह दो व्यक्तियों की निष्फल प्रतीक्षा की कहानी है। विमला एक ऐसे आदमी के प्रेमपाश में फंस गई, जो पर्यटन करने नैनीताल आया और जिसने वापस आने का वचन दिया था और एक भोटिया लड़का जो एक अंग्रेजी यात्री और एक पहाड़ी युवती के आकस्मिक प्रेम-मिलन का परिणाम था, जिसके पास अपने जनक की एक तसवीर थी और जो कम से कम एक बार उससे मिलना चाहता था। यद्यपि आकस्मिता का बचाव नहीं किया जा सकता और उससे निर्दय चोट भी पहुंचती है, यह वास्तविक बात फिर भी रह जाती है कि वासुदेव नायर अपने पात्रों से उस बची शक्ति को दबा रखते जो कम से कम किसी न किसी प्रकार उन बिखरे टुकड़ों को बटोरने की कोशिश कर सकती है। केवल उनके आधुनिक उपन्यास ‘समय’ में संसार के कुटिल मार्गो के साथ एक प्रकार के समझौते की झलक है और यहां भी सीधे संघर्ष की अपेक्षा निष्क्रिय स्वीकृत है।

वासुदेव नायर का दूसरा उपन्यास ‘दैत्य बीज’ सम्मिलित कुटुंब के विनाश के विशेष विषय को लेकर लिखा गया है। एक प्रकार से यह पुराना आख्यान है जो रस हीन हो गया है, क्योंकि यहां जब खलनायक बहुत से साहसकर्मों के भंवर में पड़ कर उन पर विजयी होकर निकलता है तो प्रतिनायक सुख-दुखों के अनेक आवर्तों में डूबा रहता है।
इसी विषय पर इससे पहले का एक उपन्यास यहां प्रस्तुत किया गया है। इसके शीर्षक ‘नालुकेट’ की प्रतीकारात्मक व्यंजनाएं हैं, क्योंकि यह उस पुराने ढंग के घर का उल्लेख करता है जो वास्तुकला में सामाजिक पैटर्न के सम्मिलित कुटुंब की सच्ची अभिव्यक्त है। इसके बीच के खुले आंगन के चारों तरफ कमरे होते थे और सारा का सारा एक ऐसा मापदंड था जो दुहराया जा सकता था। इस प्रकार अनेक उप-शाखाओं के साथ सम्मिलित कुटुंब की वृद्धि के अनुसार यह घर फैलाया जा सकता था।

इस उपन्यास में एक युवती अपने गुरूजनों की इच्छाओं के विपरीत अपने प्रेमी के साथ भाग गई और उपन्यास में उसके लड़के के उस पैतृक घराने में पुनः स्वीकृति प्राप्त करने के प्रयत्नों और संघर्षो की कथा है। उसको स्वीकृति मिलती है कानूनी अधिकार के कारण, लेकिन घराने का मुखिया कठोर बड़े मामा के हृदय में स्थान नहीं मिलता। बेटा पहले अपनी माँ से अलग हो जाता है, गलत कारणों से ही। उस अनाथ विधवा ने अपने बेटे की पढ़ाई के लिए एक दयालु व्यक्ति से सहायता ली, किंतु जिस संदिग्ध परिस्थिति में उससे अंततः लड़का अपमानित हुआ। लड़का अच्छी तरह पढ़ता है, बड़ा हो जाता है और अच्छी नौकरी मिलती है। वह घर लौट आता है। इस बीच कुटुंब की धन-संपत्ति का धीरे-धीरे ह्रस हो जाता है। वह सम्मिलित कुटुंब को पुनः नहीं चाहता, किंतु उस पुरानी इमारत को इकदम खरीद लेता है जिससे कि अप्रिय स्मृतियों से भरे उस घर को तोड़ा जा सके और कुछ नया बन सके।
यह उपन्यास चोट खाए और अशक्त बने बचपन की स्मृतियों से बने जीवन के साथ संवेदनशीलता सामंजस्य स्थापित करने की शक्ति को प्रकट करता है।

कृष्ण चैतन्य

एक

बड़ा हो जाऊंगा, बड़ा आदमी बनूंगा, बाहों में ताकत आएगी, तब किसी से डर नहीं लगेगा। सिर ऊंचा कर छाती तान कर खड़ा हो सकूंगा। कोई पूछेगा, ‘कौन है रे ?’ तो निडर हो के कह सकूंगा, ‘मैं हूं, कोंतुण्णि नायर का बेटा अप्पुण्णि।’
बरसों बाद, कभी न कभी सैतालिक्कुट्टि से मुलाकात जरूर होगी, तब बदला लूंगा। सैतालिक्कुट्टि की गर्दन हाथों में छटपटाएगी तो कहूंगा, ‘तूने, तूने मेरे. . .’’. . .....याद आते ही अप्पुण्णि की आंखें गीली हो जाती हैं।
सैतालिक्कुट्टि से मिलने का दृश्य वह कई बार मन ही मन देखा करता है। नींद की प्रतीक्षा में आंखे बंद करके लेटते हुए और कुण्डगल घर के फाटक पर खड़े वृक्ष के नीचे दोपहर की छाया में अकेले बैठे-बैठे यह दृश्य देखता है।
कौन है यह सैतालिक्कुट्टि ? अप्पुण्णि ने उसे आज तक देखा नहीं। उसकी विनती है, उससे मुलाकात न हो। कुछ सालों बाद, बड़ा होने पर ही, उससे मिलूंगा, उसका पता लगाऊंगा।

किंतु शाम को बाजार की तरफ जाते हुए उसके मन में सैतालिक्कुट्टि का ख्याल बिलकुल नहीं था। सोचा भी नहीं था कि उस आदमी से मुलाकात होगी।
स्कूल की छुट्टी हो जाने के बाद घर पहुंचने में देर हुई। अम्बलवट्टम के मित्रों के साथ वह इस धुन में चल पड़ा षारम1 के काजू के बगीचे में पत्थर मार कर फल गिराएंगे। परगोंटन और अच्चुत कुरूप के बगीचों से फल तोड़ने की हिम्मत नहीं है। वे बड़े क्रूर हैं। देख लेने तक माँ बाप तक की गाली देते हैं। षारडि तो फल तोड़ने देता है। उस बूढ़े को तो सिर्फ बीज भर से ही मतलब है। उसके बच्चे नहीं है, इसलिए उसे बच्चों से प्यार है।
उसके बाद टीले के ऊपर आने पर वह गीली घास के बीच में से गंदे पानी का नाला बना कर खेलता भी रहा। पता भी नहीं लगा कि बहुत देर हो गई है।
जब अप्पुण्णि स्कूल से सीधे घर पहुंचता है तो मां उस समय तक इल्लम2 से लौटकर नहीं आई होती है।

1. केरल की एक जाति षारडियों का घर।
2. नंबूदरियों का घर।

रसोई में छींके पर ढका रखा कंजी1 का बर्तन निकाल कर एक ही सांस में कंजी पी कर वह झोंपड़ी वाली बुढ़िया के पास गप लगाने चला जाता है। तब तक मां आ जाती है।
उस दिन जब वह घर पहुंचा, मां आ गई थी। रात का खाना पकाने के लिए चूल्हे में धान की भूसी डाल कर आग जला रही थी।
‘‘क्यों रे, इतनी देर क्यों हो गई ?’’
‘‘ऐसे ही, मां !’’
‘‘कितनी बार कहा है अप्पुण्णि, संध्या से पहले घर आ जाना चाहिए।’’
उसने कोई जवाब नहीं दिया। वह जानता है कि इससे ज्यादा मां गुस्सा नहीं होती।
खड़े-खड़े कंजी पी। तभी मां ने कहा, ‘‘जा बेटा, यूसुफ की दुकान से दो आने का नारियल का तेल ले आ।’’
उसने बाहर देखा, धूप बिल्कुल चली गई है। अंधेरा अभी घिरा नहीं। आसमान को भी ढंक लेने वाला अंधेरा छा जाने पर गली के दोनों तरफ लगी केवड़े की घनी झाड़ियों के बीच से जाने में उसे डर लगेगा। उस गली के किनारे जादूगर ऐराम को दफनाया गया था। अप्पुण्णि कुछ झिझक गया।

‘‘कल ले लेंगे, मां !’’
‘‘एक भी बूंद नहीं है बेटा, दौड़ कर ले आ।’’
उसको तब भी झिझक हुई। डर लगने की बात कहने पर मां उसे जाने नहीं देगी। लेकिन वह तो लज्जा की बात होगी। वह इतना छोटा बच्चा तो नहीं है। आठवीं में पढ़ता है। मास्टर ने उसे कक्षा का मानिटर भी बनाया है।
‘‘जा बेटा जल्दी कर, प्याज भून कर दूंगी।’’
प्याज का नाम सुनकर वह रुका नहीं। लाल निकर की जेब में से पैसे डालकर बोतल उठा कर बाहर की ओर दौड़ा।
गली में केवड़े की झाड़ियों के बीच पहुंच कर वह पल भर खड़ा रहा। अभी इतना अंधेरा नहीं है। लेकिन दोनों ओर घनी झाड़ियां हैं। झाड़ियों को बीच बिलों में विषैले सांप रहते हैं। केवड़े के फूल की गंध सांप को बहुत अच्छी लगती हैं। सुगंध, अच्छा संगीत, सुंदर लड़कियां-सभी विषैले सांपों को बहुत पसंद हैं। क्या ये सिर्फ विषैले सांपो को पसंद हैं ?
गली के हर गड्ढे, हर पत्थर, हर चीज से वह अच्छी तरह परिचित है। धीरे चलने से ही डर लगता है। छलांग मार कर वह दौड़ा। दूसरी ओर खेत के पास पहुंचने पर ही वह रुका।
खेत के पार बाजार है। सब दूकाने फूंस की हैं। खपरैल की एक ही दुकान है।

1. पानीदार पका चावल।

उसमें बेचने के लिए सामान नहीं लगा है, बल्कि उसमें कोई रहता है।
दुकानों में रोशनियां जल रही हैं। ज्यादातर हल्की रोशनी वाली लालटेन हैं। सिर्फ यूसुफ की दुकान में पेट्रोमेक्स है। वह गांव की सबसे बड़ी दुकान है। वहीं से विषु1 के त्यौहार पर पटाखे मिलते हैं। पट्टाम्बि से नया-नया एक दर्जी आया है। कूटल्लूर का सबसे पहला दर्जी। वह मशीन लेकर यूसुफ की दूकान में बैठता है।
यूसुफ की दूकान में जाना अप्पुण्णि को पसंद है। मशीन से कपड़े की सिलाई करते दर्जी को भी वहा देख सकता है। सुई का कट-कट करते हुए जल्दी-जल्दी चढ़ना और गिरना और मोटे कपड़े का गोल होते हुए निकलना वाकई देखने लायक चीज है।

बहुत दिनों से सोच रहा था, मां से कहूंगा कि अब कमीज फेरीवाले से मत लेना। उसकी तीनों कमीजें फेरी वालो से ली गई थीं। कपड़ा ले कर दर्जी को दूंगा। दूकान में सभी लोगों के सामने मेरा नाप लिया जाएगा। फीते से नाप लेकर जब कमीज बनेगी तो वह सीने पर बिल्कुल फिट आएगी। उसका कटना, सिलाई, सभी कुछ साधिकार देख सकूंगा।
अप्पुण्णि यूसुफ कि दूकान पर पहुंचा तो वहां बहुत भीड़ थी। काम से लौटने वाली चेरूमी2 औरतें सौदा-सुलुफ खरीद रही थी। अप्पुण्णि बरामदे में चुपचाप खड़ा रहा। हे भगवान, बहुत देर हो गई।
केवड़े की झाड़ियों में तो खूखांर सांप शाम होते ही आ जाते हैं और फिर गली के किनारे ही जादूगर ऐरम को दफनाया गया है।

‘‘दो आने का नारियल का तेल।’’ उसने जोर से कहा।
चेरूमी औरतों के कोलाहल में मुसाफिर ने नहीं सुना। उनके बीच में से आगे बढ़ने की उसने एक बार कोशिश की। छू जाने का डर नहीं, घर जा कर नहाना तो है ही। लेकिन पास आने पर उनके काले बदन पर पसीना, तेल और धूल की मिली-जुली एक ऐसी दुर्गंध फूटती है, जिससे उल्टी आने लगती है। वह पीछे हट कर पेट्रोमेक्स के चारों तरफ पतंगो को मंडराते देखता रहा।
तभी दो आदमी उधर आए। एक आदमी सफेद कमीज पहने और कुछ-कुछ सफेद मूछों वाला मोटा-नाटा था और दूसरा था पद्मनाभन नायर, जिसका दीवाला घाट पर चाय की दूकान खोलने से निकल गया था। उसके दो लड़के अप्पुण्णि की कक्षा में पढ़ते थे।
अप्पुण्णि एक तरफ हट कर दीवार के साथ खड़े लकड़ी के तख्तों से लग कर खड़ा हो गया।
‘‘दूकान खूब चल रही है न, सेठ ?’’

1. केरल का एक प्रसिद्ध त्यौहार।
2. एक निम्न जाति का स्त्रियां जो खेतों में काम करती हैं, जिनको कमेरा कहते हैं।

मोटे-नाटे सफेद कमीजवाले ने जोर से कहा।
आवाज सुन कर कमेरा औरतों ने पीछे मुड़ कर देखा। मेज के सामने बैठ कर यूसुफ पैसा गिन रहा था, इसलिए उसने नहीं देखा।
‘‘कौन है ?’’
सागौन के पत्ते में धनिया बांधते हुए मुसलियार लाल दांत निकाल कर हंसता हुआ बोला, ‘‘हाय अल्लाह, यह कौन है ? अभी तक पाजी मरा नहीं क्या ?’’
‘‘मैं तो तैयार हूं, लेकिन इसराईल नहीं चाहता।’’
यूसुफ उठ कर खड़ा हो गया। सफेद कमीज वाले को देख कर उसने कहा, ‘‘हाय रे अल्लाह, यह कौन है ?’’
मुसलियार ने पूछा, ‘‘कब आया ?’’
‘‘साढ़े पांच की गाड़ी से ?’’

सौदा बांधते-बांधते ही मुसलियार ने कहा, ‘‘यह तो पहले से अच्छा हो गया है। है न पद्मनाभन नायर ?’’
वहां आई औरतों को देखता और बीड़ी पीता हुआ पद्मनाभन नायर बैठा था। वह बोला, ‘‘हां, दूसरे देश का चावल खाता है न ?’’
वह मुड़कर बाहर थूकने जा रहा था, तभी उसने अप्पुण्णि को देखा, ‘‘क्या है रे ?’’
कोई कारण नहीं था, फिर भी अप्पुण्णि उदास हो गया। डर रहा था कि कहीं रोना न आ जाए। मुंह की ओर देखे बिना उसने कहा, ‘‘नारियल का तेल लेना है।
स्त्रियां आपस में फुसफुस करने लगीं।
‘‘कौन है यह लड़का ?’’ सफेद कमीज वाले ने पद्मनाभन नायर से पूछा।
‘‘कोंतुण्णि नायर का लड़का। वटक्केप्पाट्ट1 के।’’
अप्पुण्णि ने सिर नहीं उठाया।
स्त्रियों में एकदम सन्नाटा छा गया। अप्पुण्णि के पास खड़े दो आदमी धीरे-धीरे बातें करने लगे। सामने खड़े लोग कुछ हट कर खड़े हो गए। अप्पुण्णि अब किसी को छुए बिना आगे जा सकता है। मुसलियार ने बोतल ले कर कीप लगाई और टीन में करछी डाल कर दो बार तेल निकाल कर डाला। ऊपर से दो बूंदें और भी।
पैसा देकर बोतल को बांस के पत्तों से ढंक कर बाहर निकलते समय उससे सफेद कमीज वाले ने पूछा, ‘‘अकेले जा रहा है ?’’
उसे पता नहीं चला कि प्रश्न उससे पूछा जा रहा है।
‘‘बाहर अंधेरा है, लड़के !’’
तब वह कुछ भुनभुनाया, जिसे किसी ने नहीं सुना।


1.एक प्रसिद्ध घराने का नाम।

मुखिया के घर काम करने वाली चेरूमी कोच्ची ने पुकार कर कहा, ‘‘ठहरो छोटे मालिक, अकेले मत जाना। मैं भी उधर ही जा रही हूं।’’
दूकान से खरीदी सब चीजों को केवड़े के पत्तों से बने दोनों में रख कर और पान और पैसे अंटी में बांध कर कोच्ची भी चली। पास के दूकान के दिये से उसने मशाल1 जला कर कहा, ‘‘चलो छोटे मालिक !’’
अप्पुण्णि का भय दूर हो गया। गली पार करते समय लगा कि केवड़े की धीमी सुगंध चारों तरफ फैली हुई है। पैरों के पास भी प्रकाश है।
रास्ते में उसने पूछा, ‘‘कोच्ची, कौन है वह ?’’
‘‘कौन, छोटे मालिक ?’’
‘‘इसुप की दुकान में।’’
‘‘ वह तो सैतालिक्कुट्टि माप्पिला2है।’’
‘‘कौन सैतालिक्कुट्टि ?’’

‘‘मुण्डताय का—कई साल पहले गांव छोड़ कर चला गया था सैतालिक्कुट्टि।’
उसके रोंगटे खड़े हो गए। मोटा और नाटा, खुरदरे हाथ, सारे शरीर पर रोम खून जैसी सुर्ख गोल-गोल आंखे हैं। यही सैतालिक्कुट्टि ! उसी को...
मदिंर के आगंन में सबेरे-सबेरे आंखे खोलते समय देखा हुआ कथकली का दृश्य याद हो आया। दुश्शासन की छाती पर बैठा भीम उसका पेट फाड़ कर अंतड़िया बाहर निकाल रहा था। उसी तरह सैतालिक्कुट्टि की छाती पर.....
लेकिन उसमें अभी ताकत कम हैं। वह अभी बड़ा नहीं हुआ है।
अप्पुण्णि हांफ रहा था।
फिर भी कभी पत्थर की खान के गड्डे के किनारे गुजरते या चट्टान पर से नीचे की गली में एक धक्का देने से ...एक पत्थर सिर पर से लुढ़का देने से...
‘‘छोटे मालिक, अब जाओ।’’

तभी उसने देखा कि वह घर के दरवाजे पर पहुंच गया।
मां की पुकार सुनी। मां चिंतित होकर दरवाजे पर बैठी इंतजार कर रही थी।
वह हांफता हुआ फाटक पार कर मां के पास पहुंच गया।
‘‘हे ईश्वर मैं तो चिंता से मरी जा रही थी।’’
वह कुछ भी नहीं बोला। पत्थर की खान के गड्ढे में झांकते समय ... उठे हुए बालों से खून निकल रहा है...
‘‘क्यों अप्पुण्णि, इतनी देर क्यों हुई ?’’
‘‘वहां बड़ी भीड़ थी, मां !’’

1.नारियल के पेड़ के पत्तो से बने गुच्छे की मशाल, जो गांव वाले अंधेरे में चलते समय जला कर साथ ले जाते हैं।
2.मुसलमान।


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