सामाजिक >> कामना कामनागुरुदत्त
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प्रस्तुत हैं एक सामाजिक उपन्यास...
प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश
प्रकाशकीय
भारतवर्ष की पवित्र व पावन-भूमि पर जन्म लेकर अनेकों साहित्यकारों ने यश व
प्रसिद्धि की सीढ़ियां चढ़ीं। और पूरे विश्व में भारत के यश व गौरव को
आलोकित किया।
ऐसे ही अनेकों साहित्यकारों में श्री गुरुदत्त का नाम भी अजर व अमर है। पेशे से वैद्य होने के बावजूद इनकी रगों में साहित्य सृजन की लहर दौड़ती थी। जिसका आगाज इन्होंने ‘स्वाधीनता के पथ पर’ नामक उपन्यास से किया और यश व प्रसिद्धि की सीढ़ियों पर चढ़ते चले गए और लगभग 200 उपन्यासों का लेखन किया और चोटी के उपन्यासकारों में अपना एक अलग मुकाम स्थापित किया।
इनका जन्म लाहौर (वर्तमान में पाकिस्तान) में सन् 1894 को हुआ था, तब लाहौर भारत का ही अंग था। ये आधुनिक विज्ञान के छात्र थे और पेशे से वैद्य। रसायन विज्ञान से एम.एस.सी. (स्नातकोत्तर) करने के बाद भी वैदिक साहित्य के व्याख्याता बने और साहित्य सृजन व साहित्य साधना में लग गये।
आजीवन साधना में लगे रहते हुए 8 अप्रैल 1989 को दिल्ली में इन्होंने शरीर त्यागा और अपना अमूल्य साहित्य भारत-भू को समर्पित कर दिया।
अब ‘रजत प्रकाशन’ मेरठ से श्री गुरुदत्त के उपन्यासों का प्रकाशन करते हुए हमें अपार गौरव का अनुभव हो रहा है। साथ ही हिन्दी के लिये तो यह हर्ष का विषय है कि श्री गुरुदत्त का साहित्य अब उन्हें सुलभ प्राप्त हुआ करेगा।
प्रस्तुत उपन्यास ‘कामना’ एक लोकप्रिय उपन्यास है जो भाषा शैली, कथानक, शब्द संयोजन, मनोरंजन, ज्ञान व प्रस्तुतीकरण प्रत्येक दृष्टिकोण से उत्कृष्ट है।
पूर्ण विश्वास है कि श्री गुरुदत्त का यह उपन्यास आपका मनोरंजन तो करेगा ही, आपका ज्ञान भी बढ़ायेगा और आप भी गुरुदत्त के प्रशंसकों में अपना नाम शुमार करायेंगे।
एक पत्र द्वारा अपनी प्रतिक्रिया से अवश्य अवगत करायें।
वैदुश्य, संस्कृति और राजनीति की त्रिवेणी : श्री गुरुदत्त का जीवन परिचय
8 दिसम्बर 1894 को जन्म लिया लाहौर (अब पाकिस्तान) में। मुख्य क्रीड़ा-भू बनी वर्तमान भारत-भू। नश्वर शरीर त्यागा 8 अप्रैल 1989 को वैदिक मंत्रोच्चारण के साथ भारत की राजधानी दिल्ली में।
आधुनिक विज्ञान के छात्र तत्पश्चात पेशे से वैद्य लेकिन साहित्य-सृजन में की अनूठी साधना। स्नातकोत्तर (एम.एस-सी.) किया रसायन विज्ञान में, व्याख्याता बने वैदिक साहित्य के।
उपन्यास, संस्मरण और जीवन साहित्य के महान् सृजक बने। ज्ञान, राग और शब्द-शिल्प के संगम के साथ-साथ विज्ञान और साहित्य के सेतु थे। ऋतु व्यक्तित्व की दृष्टि से स्थित-प्रज्ञ थे। सदाचार, संकल्प, निर्मल-मैत्री और पारस्परिक समझदारी उनके अलंकरण थे। हिन्दुत्व के दृढ़ स्तम्भ थे तो रग-रग हिन्दू उनका परिचय था। आर्य समाज उनका प्राण था।
उपन्यास-जगत् के वे बेताज बादशाह थे। ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से आरम्भ हुआ उनका उपन्यास जगत् का सफर लगभग 200 उपन्यासों से मां भारती के अंक को सुशोभित-सुगन्धित करते हुए ‘‘अस्ताचल की ओर’’ पर समाप्त होने से पूर्व सिद्ध कर दिया गया कि वे हिन्दी साहित्य के एक देदीप्यमान नक्षत्र थे।
सूर्यकान्त त्रिपाठी की तरह कोटि-कोटि पाठकों के हृदय सम्राट होते हुए भी साहित्यिक व राजनीतिक अलंकरणों से वंचित रहे।
‘‘धर्म संस्कृति और राज्य’’ से लेकर ‘‘वेद मंत्रों के देवता’’ तक हिन्दू वाङ्मय के व्याख्याता बने, किंतु चापलूसों से घिरी सांस्कृतिक संस्थाओं में से किसी ने भी उस निर्भीक ऋषी के चरणों पर पुष्प नहीं चढ़ाए।
गीता पर उनके विचार और भाष्य अमूल्य निधि हैं तो भारत-विभाजन पर ‘देश की हत्या’’ उनका ऐतिहासिक दस्तावेज है। ‘‘भारत गाँधी नेहरू की छाया में’’ उनके प्रखर चितन द्वारा राजनीति की कलुष कथा है।
उनके बहु आयामी व्यक्तित्व और कृतित्व को हमारा नमन।
ऐसे ही अनेकों साहित्यकारों में श्री गुरुदत्त का नाम भी अजर व अमर है। पेशे से वैद्य होने के बावजूद इनकी रगों में साहित्य सृजन की लहर दौड़ती थी। जिसका आगाज इन्होंने ‘स्वाधीनता के पथ पर’ नामक उपन्यास से किया और यश व प्रसिद्धि की सीढ़ियों पर चढ़ते चले गए और लगभग 200 उपन्यासों का लेखन किया और चोटी के उपन्यासकारों में अपना एक अलग मुकाम स्थापित किया।
इनका जन्म लाहौर (वर्तमान में पाकिस्तान) में सन् 1894 को हुआ था, तब लाहौर भारत का ही अंग था। ये आधुनिक विज्ञान के छात्र थे और पेशे से वैद्य। रसायन विज्ञान से एम.एस.सी. (स्नातकोत्तर) करने के बाद भी वैदिक साहित्य के व्याख्याता बने और साहित्य सृजन व साहित्य साधना में लग गये।
आजीवन साधना में लगे रहते हुए 8 अप्रैल 1989 को दिल्ली में इन्होंने शरीर त्यागा और अपना अमूल्य साहित्य भारत-भू को समर्पित कर दिया।
अब ‘रजत प्रकाशन’ मेरठ से श्री गुरुदत्त के उपन्यासों का प्रकाशन करते हुए हमें अपार गौरव का अनुभव हो रहा है। साथ ही हिन्दी के लिये तो यह हर्ष का विषय है कि श्री गुरुदत्त का साहित्य अब उन्हें सुलभ प्राप्त हुआ करेगा।
प्रस्तुत उपन्यास ‘कामना’ एक लोकप्रिय उपन्यास है जो भाषा शैली, कथानक, शब्द संयोजन, मनोरंजन, ज्ञान व प्रस्तुतीकरण प्रत्येक दृष्टिकोण से उत्कृष्ट है।
पूर्ण विश्वास है कि श्री गुरुदत्त का यह उपन्यास आपका मनोरंजन तो करेगा ही, आपका ज्ञान भी बढ़ायेगा और आप भी गुरुदत्त के प्रशंसकों में अपना नाम शुमार करायेंगे।
एक पत्र द्वारा अपनी प्रतिक्रिया से अवश्य अवगत करायें।
वैदुश्य, संस्कृति और राजनीति की त्रिवेणी : श्री गुरुदत्त का जीवन परिचय
8 दिसम्बर 1894 को जन्म लिया लाहौर (अब पाकिस्तान) में। मुख्य क्रीड़ा-भू बनी वर्तमान भारत-भू। नश्वर शरीर त्यागा 8 अप्रैल 1989 को वैदिक मंत्रोच्चारण के साथ भारत की राजधानी दिल्ली में।
आधुनिक विज्ञान के छात्र तत्पश्चात पेशे से वैद्य लेकिन साहित्य-सृजन में की अनूठी साधना। स्नातकोत्तर (एम.एस-सी.) किया रसायन विज्ञान में, व्याख्याता बने वैदिक साहित्य के।
उपन्यास, संस्मरण और जीवन साहित्य के महान् सृजक बने। ज्ञान, राग और शब्द-शिल्प के संगम के साथ-साथ विज्ञान और साहित्य के सेतु थे। ऋतु व्यक्तित्व की दृष्टि से स्थित-प्रज्ञ थे। सदाचार, संकल्प, निर्मल-मैत्री और पारस्परिक समझदारी उनके अलंकरण थे। हिन्दुत्व के दृढ़ स्तम्भ थे तो रग-रग हिन्दू उनका परिचय था। आर्य समाज उनका प्राण था।
उपन्यास-जगत् के वे बेताज बादशाह थे। ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से आरम्भ हुआ उनका उपन्यास जगत् का सफर लगभग 200 उपन्यासों से मां भारती के अंक को सुशोभित-सुगन्धित करते हुए ‘‘अस्ताचल की ओर’’ पर समाप्त होने से पूर्व सिद्ध कर दिया गया कि वे हिन्दी साहित्य के एक देदीप्यमान नक्षत्र थे।
सूर्यकान्त त्रिपाठी की तरह कोटि-कोटि पाठकों के हृदय सम्राट होते हुए भी साहित्यिक व राजनीतिक अलंकरणों से वंचित रहे।
‘‘धर्म संस्कृति और राज्य’’ से लेकर ‘‘वेद मंत्रों के देवता’’ तक हिन्दू वाङ्मय के व्याख्याता बने, किंतु चापलूसों से घिरी सांस्कृतिक संस्थाओं में से किसी ने भी उस निर्भीक ऋषी के चरणों पर पुष्प नहीं चढ़ाए।
गीता पर उनके विचार और भाष्य अमूल्य निधि हैं तो भारत-विभाजन पर ‘देश की हत्या’’ उनका ऐतिहासिक दस्तावेज है। ‘‘भारत गाँधी नेहरू की छाया में’’ उनके प्रखर चितन द्वारा राजनीति की कलुष कथा है।
उनके बहु आयामी व्यक्तित्व और कृतित्व को हमारा नमन।
[1]
पौं...पौं...पौं...मोटर के हॉर्न बजने का शब्द हुआ। सरस्वती ने अपने पति
को, जो भूमि पर, उसके समीप ही बिस्तर पर सो रहा था, जगाया और कहा,
‘‘बाबूजी की मोटर का भोंपू बज रहा
है।’’
‘‘क्या बात हो सकती है ? आधी रात तो हो गयी।’’
‘‘जरा बाहर जाकर देख लेते।’’
रामसुख उठा, कपड़े पहने और अपने मकान से निकल मोटर को देखने लगा। दूर कोठी के फाटक की ओर जाती हुई मोटर के पीछे की लाल बत्ती दिखाई दी। फाटक से निकल मोटर गायब हो गयी। मोटर कोठी के ’आउट-हाऊस’, जिसमें रामसुख और उसका परिवार रहता था, की ओर से गयी प्रतीत हुई थी।
रामसुख ‘पेपर-मिल’ के मैनेजर लाला नन्दलाल का निजी चपरासी था। उसको मैनजर साहब की नौकरी करते हुए बीस वर्ष से ऊपर हो चुके थे। एक पुराना नौकर होना ही उसका गुण नहीं था। इसके अतिरिक्त वह सत्यवादी, ईमानदार, मेहनती और विश्वस्त भी माना जाता था। नन्दलाल उस पर बहुत भरोसा करता था। हजारों रुपये उसके पास बिना किसी रसीद-परचा के पड़े रहते थे और कभी एक पाई का हेर-फेर नहीं हुआ था।
अनेक बार गुप्त रहस्य के काम भी उससे कराये गये थे और वे रहस्य बाहर नहीं निकलते थे। अनेक बार नन्दलाल गुप्त बात कहने अथवा काम बताने रामसुख के क्वार्टर में आता रहता था। इस पर भी रात के एक बजे आने की बात विस्मयजनक थी। आज से दस वर्ष पूर्व, एक बार पहले भी नन्दलाल को रामसुख के क्वार्टर में रात में बारह बजे के पश्चात् आने का काम पड़ा था। पर बीस वर्ष में वह ही एक अवसर था। वह काम भी कुछ ऐसा ही था।
उस रात बाबू ने द्वार खटखटाया और रामसुख बाहर आया तो उसने पूछा था, ‘‘रामसुख ! हबीब को जानते हो ?’’
‘‘हां बाबूजी डॉ. रहीम बख्श का लड़का न ?’’
‘‘वह सरिता को लेकर भाग गया प्रतीत होता है। मैंने उसका पीछा करने के लिए महेन्द्र के साथ में बलवंतसिंह ड्राइवर को, को मोटर में भेजा है। कदाचित् उनको पकड़ने और सरिता को वापस लाने में कई दिन लग जायेंगे। यदि सरिता के यहां से लापता होने की बात फैल गयी तो उसकी बदनामी होगी और उसके विवाह में विघ्न पड़ सकता है। इस कारण मैंने एक योजना बनायी है। मैंने यह विख्यात् कर दिया कि सरिता मसूरी भ्रमणार्थ गयी है और तुम उसके साथ संरक्षक के रूप में हो। इस कारण तुम मसूरी सिक्खों के गुरुद्वारे की धर्मशाला में चले जाओ महेन्द्र सरिता को लेकर वहां पहुंच जायेगा। तब तुम उसको लेकर लौट आना। डॉक्टर की कोठी से पता चला कि हबीब और सरिता मोटर में इकट्ठे शिमला गये हैं। सो तुम भी यहां से तुरंत चले जाओ।’’
रामसुख ने अपनी पत्नी से दो शब्द कहे और अपनी धोती-अंगोछा लेकर चल पड़ा। सरिता नन्दलाल की लड़की, कालेज की एफ.ए. क्लास में पढ़ती थी। हबीब भी उसी कालेज में बी.ए. सेकेण्डईयर में पढ़ता था। सरिता का हबीब से काफी मेलजोल था।
डॉक्टर रहीम बख्श की कोठी के नौकरों से प्राप्त सूचना, भ्रम में डालने वाली हो सकती थी और सत्य भी हो सकती थी। इतने पर भी नन्दलाल ने इस पर अमल करते हुए महेन्द्र को मोटर में शिमला भेज दिया। और उसको समझा दिय गया था कि वह सरिता को मसूरी रामसुख के छोड़कर जगाधरी लौट आये।
महेन्द्र शिमला से लौट आया। सरिता का वहां पता नहीं चला था। उसको आते ही बम्बई ढूँढ़ने के लिए भेज दिया गया। एक सप्ताह पश्चात् अभी महेन्द्र बम्बई से नहीं लौटा था कि रामसुख सरिता के साथ वापस आ गया।
रेलवे स्टेशन से रामसुख और सरिता आये तो सरिता की मां मोहिनी उसके स्वागत के लिए कोठी के बरामदे में आ पहुंची। मां ने सरिता की पीठ पर हाथ फेरा। प्यार देते हुए कह दिया, ‘‘आओ बेटी ! तुमने तो पत्र भी नहीं लिखा। सुनाओ ‘ट्रिप’ कैसा रहा।’’
यह बात मां ने कोठी के अन्य नौकरों को सुनाने के लिए कही थी। सरिता को इसका अर्थ समझ नहीं आ रहा था। अतः वह चुपचाप कोठी में गयी और अपने कमरे में जा पहुंची। वहां लड़की को बैठाकर मां ने पूछा, ‘‘हां, अब बताओ ! फिर बिना बताए जाने का विचार हो तो कमरे का ताला लगा दूँ ?’’
‘‘आवश्यकता नहीं। मैं अब नहीं जा रही।’’
‘‘पहले जो गयी थीं।’’
‘‘मां ! उस बात को छोड़ो। अब बताए बिना नहीं जाऊँगी।’’
‘‘अच्छी बात है। कोई बाहरी आदमी या नौकर-नौकरानी पूछे तो बता देना कि रामसुख के साथ मसूरी गयी थीं, सैर करने।’’
‘‘हां, काका रामसुख ने बताया है।’’
‘‘महेन्द्र मिला है ?’’
‘‘नहीं। दादा कहां गये हैं ?’’
तुमको ढूंढ़ते फिर रहे हैं।’’
सरिता मुस्कराई और चुप ही रही। इस पर मां ने पूछा, ‘‘तुम कहां से आ रही हो ?’’
‘‘काका रामसुख से पूछ लेना। अब मैं आराम करूंगी।’’
मोहिनी उसको वहां छोड़कर बाहर आयी, जिससे नौकरानी को मिल में भेज सरिता के पिता को सूचना भेज सके कि लड़की आ गयी है। परन्तु रामसुख उसी टांगे से ही कारखाने चला गया था। कारखाना कोठी से दो फर्लांग के अन्तर पर था। नन्दलाल ने रामसुख से मिलकर कार्यालय में बातचीत करना उचित नहीं समझा। वह उसको लेकर कोठी में चला आया। कोठी में पहुंच नन्दलाल सीधा सरिता से मिलने के लिए गया। वह भीतर से द्वार बन्द कर सोने की तैयारी कर रही थी। पिता ने बाहर से द्वार खटखटाया तो सरिता ने बिना द्वार खोले पूछ लिया—
‘‘कौन ?’’
‘‘मैं नन्दलाल।’’ पिता ने बाहर से ही उत्तर दिया।
‘‘पिताजी ! इस समय मैं बहुत थकी हुई हूं और सोने के लिए कपड़े उतार चुकी हूं। प्रातःकाल मिलूंगी।’’
इस पर नन्दलाल रामसुख से समाचार जानने के लिए बाहर अपने कमरे में आ गया। रामसुख को वहां बुला उसने पूछ लिया, ‘‘लड़की इतने दिन कहां रही है और अब कहां से आ रहे हो ?’’
‘‘बाबूजी ! मसूरी में। मैं रेलगाड़ी से सहारनपुर और वहां से बस में मसूरी जाने का विचार रखता था। परन्तु सहारनपुर पहुंचते-पहुंचते मुझे नींद आ गयी और अम्बाला में जाकर खुली। मैं परेशान प्लेटफार्म पर खड़ा सहारनपुर की गाड़ी के लिए प्रतीक्षा कर रहा था कि मुझे हबीब रैस्टोरां से निकलता दिखाई दिया। मैं उसको देखकर विचार करने लगा यदि बिटिया उसके साथ आई है तो वह भी यहीं कहीं होगी। अतः मैं हबीब के पीछे-पीछे चल पड़ा। वह स्टेशन से निकलकर एक टांगे पर सवार हो छावनी की ओर चल पड़ा। मैं भी टांगे से उसका पीछा करना चाहता था, परन्तु टांगा करने में कुछ देर हो गयी और मैं हबीब को नहीं पा सका। अतः दो घण्टे की भाग-दौड़ कर मैं स्टेशन वापस लौट आया। मैं अभी विचार कर ही रहा था कि मसूरी जाऊं अथवा आपको सूचना दूं कि हबीब स्टेशन में दाखिल होती दिखायी दिया। वह सीधा जनाना फर्स्ट क्लास के वेटिंग रूम में चला गया। मुझको विश्वास हो गया कि बिटिया वहां ही है।
‘‘मैं विस्मय कर रहा था कि ये दोनों तो मोटरगाड़ी से यहाँ आये थे। फिर ये यहां क्यों रह गये हैं और इनकी मोटर कहां है ? वेटिंग रूम से कुछ अंतर पर खड़ा मैं यह विचार कर ही रहा था कि दोनों निकले और रिफ्रेशमेंट रूम में खाना खाने चले गये। मैं बाहर छिपकर खड़ा प्रतीक्षा करता रहा। आधे घण्टे के पश्चात् वे निकले और वेटिंग रूम के बाहर खड़े हो कुछ कहते रहे। पश्चात् बिटिया भीतर चली गयी और हबीब स्टेशन से बाहर चला गया। मैंने हबीब का पीछा करना उचित न समझा। मैं प्लेटफार्म पर ही वेटिंग रूम से एक ओर हटकर बैठा रहा। बिटिया थोड़ी-थोड़ी देर बाद बाहर निकलती और इधर-उधर झांककर फिर भीतर चली जाती। इससे में यही अनुमान लगा रहा था कि वह हबीब के लौटने की प्रतीक्षा कर रही है।
‘‘हबीब सांयकाल तक नहीं आया। मैंने अपने को अब प्रकट कर देना ही उचित समझा। मैंने झांककर वेटिंग रूम में देखा तो बिटिया ने मुझे देख लिया और वह बाहर आकर पूछने लगी, ‘काका ! यहां क्या कर रहे हो ?’
‘‘मैंने बता दिया, ‘बाबूजी के एक काम से मसूरी जा रहा हूं।’
‘कब तक जाओगे ?’
‘सांयकाल की गाड़ी से जाना था, परन्तु सो गया और गाड़ी निकल गयी।’
‘परन्तु यहां क्या कर रहे हो ?’
‘शिमला से आया हूं और रात की गाड़ी से जा रहा हूं। पर तुम कहां जा रही हो ?’ मैंने पूछ लिया।
‘‘उसने बताया, ‘‘मैं भी मसूरी जा रही हूं।’’
‘‘अकेली ?’’
‘‘नहीं....हां....।’’ वह बात समाप्त किये बिना चुप होकर मेरा मुख देखने लगी। उसे चुप देखकर मैंने पूछ लिया, ‘मैं छोड़ आऊं ?’’
‘‘आवश्यकता नहीं। मैं अभी नहीं जा रही।’
‘और कुछ जरूरत हो तो बताओ। मैं रात की गाड़ी से ही अब जा सकूंगा।’ मैं देख रहा था कि उसकी आंखें लाल हो रही थीं। कदाचित् वह रोती रही थी। उसने कुछ नहीं कहा और अपने आंसू छिपाने के लिये भीतर चली गयी।
‘‘हबीब नहीं लौटा। रात के आठ बजे वह पुनः वेटिंग रूम से निकली और खाना खाने चली गयी। उसको वेटिंग रूम के सामने बैठा देखा, परन्तु कोई बात नहीं की। मैं सब देख रहा था। आधा घण्टा के बाद वह खाना खाकर निकली और मेरे सामने आ खड़ी हुई। मैं उठकर खड़ा हो उसकी ओर प्रश्न की दृष्टि से लगा। मैं चाहता था कि उसका पीछा करूं और उसको किसी ठीक स्थान पर पहुंचाकर ही आपको तार दूं।
‘‘उसने मेरी आँखों में ध्यान से देखते हुए पूछा, काका ! किस गाड़ी से जा रहे हो ?’’
‘‘मैंने बता दिया,’ अब अमृतसर से मसूरी के लिए गाड़ी दो बजे रात आयेगी। उसी में जाने का विचार है।’
‘मैं भी साथ चलूं ?’’
‘‘हां। मैं तो आप सबका नौकर हूं।’
‘तुम्हारे पास टिकट-भर के पैसे हैं ?’’
‘‘कितने चाहिए ?’’
‘‘मेरा पर्स चोरी हो गया है।’’
‘‘चोरी !’ मैंने आश्चर्य प्रकट करते हुए पूछ लिया था, ‘क्या था उसमें ?’
‘‘पांच सौ रुपया था।
‘‘मैंने बताया, ‘‘मेरे पास पाच सौ रुपया तो नहीं है। एक सौ रुपया है। चलो, इससे मसूरी तक पहुंच जाओगी। वहां जाकर बाबूजी से रुपया मंगवा लेंगे।’’
‘मैं एक शर्त पर तुम्हारे साथ चल सकती हूं।’
‘क्या ?’
‘जब तक मैं न कहूं, घर पर सूचना भी नहीं भेजना।’
‘रुपए मंगवाने के लिए भी नहीं।’
‘नहीं, बताओ है स्वीकार ?’
‘मैं तो आपका सेवक हूं बिटिया ! जैसा कहोगी, करूंगा।’
‘‘इस पर उसने कहा, ‘रात की गाड़ी से चलेंगे और फिर वहां पहुंचकर घर पर लिखने का विचार कर लेंगे।’
‘‘गाड़ी जाने से आधा घंटा पहले वह वेटिंग रूम से निकली और मुझको उठाने लगी। मैं लेटा हुआ था, परन्तु जाग ही रहा था। उठा तो उसने कह दिया, ‘सैकेण्ड क्लास का टिकट मेरे लिए और एक एक थर्ड क्लास का टिकट अपने लिए ले आओ।’
‘‘मैं गया और टिकट ले आया। गाड़ी आई तो वह औरतों के डिब्बे में बैठ गयी और मैं थर्डक्लास में बैठ गया। प्रत्येक स्टेशन पर मैं उतर कर देख आता था कि वह अपने स्थान पर बैठी हुई है।
‘‘मसूरी में हम मिनर्वा होटल में ठहर गये। मैं कमरे के बाहर ही सोता था। मुझको भय था कि वह कहीं मुझको देकर भाग न जाये। आपको सूचना इस कारण नहीं भेजी कि एक तो यहां किसी प्रकार का हल्ला न हो जाये और दूसरे वह कहीं मेरे वचन भंग करने पर मेरा विश्वास करना ही नहीं न छोड़ दे।
‘‘पांच दिन तक हम होटल में रहे तो उसके पास के रुपये चुक गये। उसने मुझको बुलाकर कहा, ‘बाबू जी से रुपया मंगवा लो। हम वापस घर जायेंगे।’
‘तुम क्यों नहीं लिखतीं ?’’
‘‘मुझको लज्जा लग रही है। मैं घर से लड़कर आई थी।’
‘‘मैंने कहा—एक बात करूँ ? मैं एक परिचित से कुछ रुपये उधार ला सकता हूं। कहो तो ले आऊं और चुपचाप घर पहुंच जायेंगे। वहां से रुपया भेज देंगे।
‘‘इस प्रस्ताव पर वह प्रसन्न हो गयी। मैं बाजार आधा घण्टा घूमकर आया तो उसको बता दिया कि पचास रुपये में मिल गये हैं।
‘‘इस पर हम लौट आये हैं। सिक्खों की धर्मशाला में मुझको पूछने कोई नहीं गया।’’
‘‘क्या बात हो सकती है ? आधी रात तो हो गयी।’’
‘‘जरा बाहर जाकर देख लेते।’’
रामसुख उठा, कपड़े पहने और अपने मकान से निकल मोटर को देखने लगा। दूर कोठी के फाटक की ओर जाती हुई मोटर के पीछे की लाल बत्ती दिखाई दी। फाटक से निकल मोटर गायब हो गयी। मोटर कोठी के ’आउट-हाऊस’, जिसमें रामसुख और उसका परिवार रहता था, की ओर से गयी प्रतीत हुई थी।
रामसुख ‘पेपर-मिल’ के मैनेजर लाला नन्दलाल का निजी चपरासी था। उसको मैनजर साहब की नौकरी करते हुए बीस वर्ष से ऊपर हो चुके थे। एक पुराना नौकर होना ही उसका गुण नहीं था। इसके अतिरिक्त वह सत्यवादी, ईमानदार, मेहनती और विश्वस्त भी माना जाता था। नन्दलाल उस पर बहुत भरोसा करता था। हजारों रुपये उसके पास बिना किसी रसीद-परचा के पड़े रहते थे और कभी एक पाई का हेर-फेर नहीं हुआ था।
अनेक बार गुप्त रहस्य के काम भी उससे कराये गये थे और वे रहस्य बाहर नहीं निकलते थे। अनेक बार नन्दलाल गुप्त बात कहने अथवा काम बताने रामसुख के क्वार्टर में आता रहता था। इस पर भी रात के एक बजे आने की बात विस्मयजनक थी। आज से दस वर्ष पूर्व, एक बार पहले भी नन्दलाल को रामसुख के क्वार्टर में रात में बारह बजे के पश्चात् आने का काम पड़ा था। पर बीस वर्ष में वह ही एक अवसर था। वह काम भी कुछ ऐसा ही था।
उस रात बाबू ने द्वार खटखटाया और रामसुख बाहर आया तो उसने पूछा था, ‘‘रामसुख ! हबीब को जानते हो ?’’
‘‘हां बाबूजी डॉ. रहीम बख्श का लड़का न ?’’
‘‘वह सरिता को लेकर भाग गया प्रतीत होता है। मैंने उसका पीछा करने के लिए महेन्द्र के साथ में बलवंतसिंह ड्राइवर को, को मोटर में भेजा है। कदाचित् उनको पकड़ने और सरिता को वापस लाने में कई दिन लग जायेंगे। यदि सरिता के यहां से लापता होने की बात फैल गयी तो उसकी बदनामी होगी और उसके विवाह में विघ्न पड़ सकता है। इस कारण मैंने एक योजना बनायी है। मैंने यह विख्यात् कर दिया कि सरिता मसूरी भ्रमणार्थ गयी है और तुम उसके साथ संरक्षक के रूप में हो। इस कारण तुम मसूरी सिक्खों के गुरुद्वारे की धर्मशाला में चले जाओ महेन्द्र सरिता को लेकर वहां पहुंच जायेगा। तब तुम उसको लेकर लौट आना। डॉक्टर की कोठी से पता चला कि हबीब और सरिता मोटर में इकट्ठे शिमला गये हैं। सो तुम भी यहां से तुरंत चले जाओ।’’
रामसुख ने अपनी पत्नी से दो शब्द कहे और अपनी धोती-अंगोछा लेकर चल पड़ा। सरिता नन्दलाल की लड़की, कालेज की एफ.ए. क्लास में पढ़ती थी। हबीब भी उसी कालेज में बी.ए. सेकेण्डईयर में पढ़ता था। सरिता का हबीब से काफी मेलजोल था।
डॉक्टर रहीम बख्श की कोठी के नौकरों से प्राप्त सूचना, भ्रम में डालने वाली हो सकती थी और सत्य भी हो सकती थी। इतने पर भी नन्दलाल ने इस पर अमल करते हुए महेन्द्र को मोटर में शिमला भेज दिया। और उसको समझा दिय गया था कि वह सरिता को मसूरी रामसुख के छोड़कर जगाधरी लौट आये।
महेन्द्र शिमला से लौट आया। सरिता का वहां पता नहीं चला था। उसको आते ही बम्बई ढूँढ़ने के लिए भेज दिया गया। एक सप्ताह पश्चात् अभी महेन्द्र बम्बई से नहीं लौटा था कि रामसुख सरिता के साथ वापस आ गया।
रेलवे स्टेशन से रामसुख और सरिता आये तो सरिता की मां मोहिनी उसके स्वागत के लिए कोठी के बरामदे में आ पहुंची। मां ने सरिता की पीठ पर हाथ फेरा। प्यार देते हुए कह दिया, ‘‘आओ बेटी ! तुमने तो पत्र भी नहीं लिखा। सुनाओ ‘ट्रिप’ कैसा रहा।’’
यह बात मां ने कोठी के अन्य नौकरों को सुनाने के लिए कही थी। सरिता को इसका अर्थ समझ नहीं आ रहा था। अतः वह चुपचाप कोठी में गयी और अपने कमरे में जा पहुंची। वहां लड़की को बैठाकर मां ने पूछा, ‘‘हां, अब बताओ ! फिर बिना बताए जाने का विचार हो तो कमरे का ताला लगा दूँ ?’’
‘‘आवश्यकता नहीं। मैं अब नहीं जा रही।’’
‘‘पहले जो गयी थीं।’’
‘‘मां ! उस बात को छोड़ो। अब बताए बिना नहीं जाऊँगी।’’
‘‘अच्छी बात है। कोई बाहरी आदमी या नौकर-नौकरानी पूछे तो बता देना कि रामसुख के साथ मसूरी गयी थीं, सैर करने।’’
‘‘हां, काका रामसुख ने बताया है।’’
‘‘महेन्द्र मिला है ?’’
‘‘नहीं। दादा कहां गये हैं ?’’
तुमको ढूंढ़ते फिर रहे हैं।’’
सरिता मुस्कराई और चुप ही रही। इस पर मां ने पूछा, ‘‘तुम कहां से आ रही हो ?’’
‘‘काका रामसुख से पूछ लेना। अब मैं आराम करूंगी।’’
मोहिनी उसको वहां छोड़कर बाहर आयी, जिससे नौकरानी को मिल में भेज सरिता के पिता को सूचना भेज सके कि लड़की आ गयी है। परन्तु रामसुख उसी टांगे से ही कारखाने चला गया था। कारखाना कोठी से दो फर्लांग के अन्तर पर था। नन्दलाल ने रामसुख से मिलकर कार्यालय में बातचीत करना उचित नहीं समझा। वह उसको लेकर कोठी में चला आया। कोठी में पहुंच नन्दलाल सीधा सरिता से मिलने के लिए गया। वह भीतर से द्वार बन्द कर सोने की तैयारी कर रही थी। पिता ने बाहर से द्वार खटखटाया तो सरिता ने बिना द्वार खोले पूछ लिया—
‘‘कौन ?’’
‘‘मैं नन्दलाल।’’ पिता ने बाहर से ही उत्तर दिया।
‘‘पिताजी ! इस समय मैं बहुत थकी हुई हूं और सोने के लिए कपड़े उतार चुकी हूं। प्रातःकाल मिलूंगी।’’
इस पर नन्दलाल रामसुख से समाचार जानने के लिए बाहर अपने कमरे में आ गया। रामसुख को वहां बुला उसने पूछ लिया, ‘‘लड़की इतने दिन कहां रही है और अब कहां से आ रहे हो ?’’
‘‘बाबूजी ! मसूरी में। मैं रेलगाड़ी से सहारनपुर और वहां से बस में मसूरी जाने का विचार रखता था। परन्तु सहारनपुर पहुंचते-पहुंचते मुझे नींद आ गयी और अम्बाला में जाकर खुली। मैं परेशान प्लेटफार्म पर खड़ा सहारनपुर की गाड़ी के लिए प्रतीक्षा कर रहा था कि मुझे हबीब रैस्टोरां से निकलता दिखाई दिया। मैं उसको देखकर विचार करने लगा यदि बिटिया उसके साथ आई है तो वह भी यहीं कहीं होगी। अतः मैं हबीब के पीछे-पीछे चल पड़ा। वह स्टेशन से निकलकर एक टांगे पर सवार हो छावनी की ओर चल पड़ा। मैं भी टांगे से उसका पीछा करना चाहता था, परन्तु टांगा करने में कुछ देर हो गयी और मैं हबीब को नहीं पा सका। अतः दो घण्टे की भाग-दौड़ कर मैं स्टेशन वापस लौट आया। मैं अभी विचार कर ही रहा था कि मसूरी जाऊं अथवा आपको सूचना दूं कि हबीब स्टेशन में दाखिल होती दिखायी दिया। वह सीधा जनाना फर्स्ट क्लास के वेटिंग रूम में चला गया। मुझको विश्वास हो गया कि बिटिया वहां ही है।
‘‘मैं विस्मय कर रहा था कि ये दोनों तो मोटरगाड़ी से यहाँ आये थे। फिर ये यहां क्यों रह गये हैं और इनकी मोटर कहां है ? वेटिंग रूम से कुछ अंतर पर खड़ा मैं यह विचार कर ही रहा था कि दोनों निकले और रिफ्रेशमेंट रूम में खाना खाने चले गये। मैं बाहर छिपकर खड़ा प्रतीक्षा करता रहा। आधे घण्टे के पश्चात् वे निकले और वेटिंग रूम के बाहर खड़े हो कुछ कहते रहे। पश्चात् बिटिया भीतर चली गयी और हबीब स्टेशन से बाहर चला गया। मैंने हबीब का पीछा करना उचित न समझा। मैं प्लेटफार्म पर ही वेटिंग रूम से एक ओर हटकर बैठा रहा। बिटिया थोड़ी-थोड़ी देर बाद बाहर निकलती और इधर-उधर झांककर फिर भीतर चली जाती। इससे में यही अनुमान लगा रहा था कि वह हबीब के लौटने की प्रतीक्षा कर रही है।
‘‘हबीब सांयकाल तक नहीं आया। मैंने अपने को अब प्रकट कर देना ही उचित समझा। मैंने झांककर वेटिंग रूम में देखा तो बिटिया ने मुझे देख लिया और वह बाहर आकर पूछने लगी, ‘काका ! यहां क्या कर रहे हो ?’
‘‘मैंने बता दिया, ‘बाबूजी के एक काम से मसूरी जा रहा हूं।’
‘कब तक जाओगे ?’
‘सांयकाल की गाड़ी से जाना था, परन्तु सो गया और गाड़ी निकल गयी।’
‘परन्तु यहां क्या कर रहे हो ?’
‘शिमला से आया हूं और रात की गाड़ी से जा रहा हूं। पर तुम कहां जा रही हो ?’ मैंने पूछ लिया।
‘‘उसने बताया, ‘‘मैं भी मसूरी जा रही हूं।’’
‘‘अकेली ?’’
‘‘नहीं....हां....।’’ वह बात समाप्त किये बिना चुप होकर मेरा मुख देखने लगी। उसे चुप देखकर मैंने पूछ लिया, ‘मैं छोड़ आऊं ?’’
‘‘आवश्यकता नहीं। मैं अभी नहीं जा रही।’
‘और कुछ जरूरत हो तो बताओ। मैं रात की गाड़ी से ही अब जा सकूंगा।’ मैं देख रहा था कि उसकी आंखें लाल हो रही थीं। कदाचित् वह रोती रही थी। उसने कुछ नहीं कहा और अपने आंसू छिपाने के लिये भीतर चली गयी।
‘‘हबीब नहीं लौटा। रात के आठ बजे वह पुनः वेटिंग रूम से निकली और खाना खाने चली गयी। उसको वेटिंग रूम के सामने बैठा देखा, परन्तु कोई बात नहीं की। मैं सब देख रहा था। आधा घण्टा के बाद वह खाना खाकर निकली और मेरे सामने आ खड़ी हुई। मैं उठकर खड़ा हो उसकी ओर प्रश्न की दृष्टि से लगा। मैं चाहता था कि उसका पीछा करूं और उसको किसी ठीक स्थान पर पहुंचाकर ही आपको तार दूं।
‘‘उसने मेरी आँखों में ध्यान से देखते हुए पूछा, काका ! किस गाड़ी से जा रहे हो ?’’
‘‘मैंने बता दिया,’ अब अमृतसर से मसूरी के लिए गाड़ी दो बजे रात आयेगी। उसी में जाने का विचार है।’
‘मैं भी साथ चलूं ?’’
‘‘हां। मैं तो आप सबका नौकर हूं।’
‘तुम्हारे पास टिकट-भर के पैसे हैं ?’’
‘‘कितने चाहिए ?’’
‘‘मेरा पर्स चोरी हो गया है।’’
‘‘चोरी !’ मैंने आश्चर्य प्रकट करते हुए पूछ लिया था, ‘क्या था उसमें ?’
‘‘पांच सौ रुपया था।
‘‘मैंने बताया, ‘‘मेरे पास पाच सौ रुपया तो नहीं है। एक सौ रुपया है। चलो, इससे मसूरी तक पहुंच जाओगी। वहां जाकर बाबूजी से रुपया मंगवा लेंगे।’’
‘मैं एक शर्त पर तुम्हारे साथ चल सकती हूं।’
‘क्या ?’
‘जब तक मैं न कहूं, घर पर सूचना भी नहीं भेजना।’
‘रुपए मंगवाने के लिए भी नहीं।’
‘नहीं, बताओ है स्वीकार ?’
‘मैं तो आपका सेवक हूं बिटिया ! जैसा कहोगी, करूंगा।’
‘‘इस पर उसने कहा, ‘रात की गाड़ी से चलेंगे और फिर वहां पहुंचकर घर पर लिखने का विचार कर लेंगे।’
‘‘गाड़ी जाने से आधा घंटा पहले वह वेटिंग रूम से निकली और मुझको उठाने लगी। मैं लेटा हुआ था, परन्तु जाग ही रहा था। उठा तो उसने कह दिया, ‘सैकेण्ड क्लास का टिकट मेरे लिए और एक एक थर्ड क्लास का टिकट अपने लिए ले आओ।’
‘‘मैं गया और टिकट ले आया। गाड़ी आई तो वह औरतों के डिब्बे में बैठ गयी और मैं थर्डक्लास में बैठ गया। प्रत्येक स्टेशन पर मैं उतर कर देख आता था कि वह अपने स्थान पर बैठी हुई है।
‘‘मसूरी में हम मिनर्वा होटल में ठहर गये। मैं कमरे के बाहर ही सोता था। मुझको भय था कि वह कहीं मुझको देकर भाग न जाये। आपको सूचना इस कारण नहीं भेजी कि एक तो यहां किसी प्रकार का हल्ला न हो जाये और दूसरे वह कहीं मेरे वचन भंग करने पर मेरा विश्वास करना ही नहीं न छोड़ दे।
‘‘पांच दिन तक हम होटल में रहे तो उसके पास के रुपये चुक गये। उसने मुझको बुलाकर कहा, ‘बाबू जी से रुपया मंगवा लो। हम वापस घर जायेंगे।’
‘तुम क्यों नहीं लिखतीं ?’’
‘‘मुझको लज्जा लग रही है। मैं घर से लड़कर आई थी।’
‘‘मैंने कहा—एक बात करूँ ? मैं एक परिचित से कुछ रुपये उधार ला सकता हूं। कहो तो ले आऊं और चुपचाप घर पहुंच जायेंगे। वहां से रुपया भेज देंगे।
‘‘इस प्रस्ताव पर वह प्रसन्न हो गयी। मैं बाजार आधा घण्टा घूमकर आया तो उसको बता दिया कि पचास रुपये में मिल गये हैं।
‘‘इस पर हम लौट आये हैं। सिक्खों की धर्मशाला में मुझको पूछने कोई नहीं गया।’’
:2:
सरिता को हबीब ने धोखा दिया था। दोनों में परस्पर यह निश्चय हुआ था कि
दोनों घर से रुपये लेकर शिमला चलेंगे। एक सप्ताह-भर वहां आनन्द से रहेंगे।
तदन्तर अपने बड़ों को विवाह करने की बात बताकर उन्हें ‘फेट
एकम्पली’ (हो गयी बात) पर सन्तोष कर लेने पर विवश कर लेंगे।
जगाधरी से अम्बाला पहुंचते-पहुंचते गाड़ी बिगड़ गयी। वह एक मोटर गैरेज में दे दी गयी। मोटर कम्पनी वालों ने देखकर बताया कि छह-सात घण्टे लगेंगे। उस कम्पनी की वर्कशाप बन्द हो गयी थी।
विवश हो, गाड़ी मोटर कम्पनी को दे, वे उस रात अम्बाला छावनी रेलवे स्टेशन पर, वेटिंग रूम में रह गये।
सरिता जनाना वेटिंग रूप में ठहरी और हबीब मर्दाना वेटिंगरूम में। प्रातः दोनों मिले तो हबीब ने सरिता को बताया कि वह अपनी पर्स तो जल्दी-जल्दी में भूल आया है। इस पर यह निश्चय हुआ कि सरिता के पास जो पाँच सौ रुपया हैं, उससे काम चलाया जाये। शिमला पहुंचकर हबीब जगाधरी लौट जाये और अपना रुपया ले आये। अभी मोटर की मरम्मत का दाम देने के लिए हबीब ने सरिता से रुपये ले लिये और उसके पास केवल दस रुपये छोड़ दिये।
हबीब ब्रेकफास्ट के समय मोटर कम्पनी में गया और आकर बताने लगा कि मोटर का एक पुर्जा टूट गया है, जो दिल्ली से आयेगा। अतः वह दिल्ली जा रहा है और सांय काल तक पुर्जा लेकर आ जायेगा। अब अगले दिन ही वे वहां से जा सकेंगे।
सरिता ने कह दिया था कि वे अब शिमला नहीं मंसूरी जायेंगे। शिमला के लिए उसके मन में रुचि नहीं रही थी।
जगाधरी से अम्बाला पहुंचते-पहुंचते गाड़ी बिगड़ गयी। वह एक मोटर गैरेज में दे दी गयी। मोटर कम्पनी वालों ने देखकर बताया कि छह-सात घण्टे लगेंगे। उस कम्पनी की वर्कशाप बन्द हो गयी थी।
विवश हो, गाड़ी मोटर कम्पनी को दे, वे उस रात अम्बाला छावनी रेलवे स्टेशन पर, वेटिंग रूम में रह गये।
सरिता जनाना वेटिंग रूप में ठहरी और हबीब मर्दाना वेटिंगरूम में। प्रातः दोनों मिले तो हबीब ने सरिता को बताया कि वह अपनी पर्स तो जल्दी-जल्दी में भूल आया है। इस पर यह निश्चय हुआ कि सरिता के पास जो पाँच सौ रुपया हैं, उससे काम चलाया जाये। शिमला पहुंचकर हबीब जगाधरी लौट जाये और अपना रुपया ले आये। अभी मोटर की मरम्मत का दाम देने के लिए हबीब ने सरिता से रुपये ले लिये और उसके पास केवल दस रुपये छोड़ दिये।
हबीब ब्रेकफास्ट के समय मोटर कम्पनी में गया और आकर बताने लगा कि मोटर का एक पुर्जा टूट गया है, जो दिल्ली से आयेगा। अतः वह दिल्ली जा रहा है और सांय काल तक पुर्जा लेकर आ जायेगा। अब अगले दिन ही वे वहां से जा सकेंगे।
सरिता ने कह दिया था कि वे अब शिमला नहीं मंसूरी जायेंगे। शिमला के लिए उसके मन में रुचि नहीं रही थी।
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