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अपने पराये

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :188
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5269
आईएसबीएन :00000

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एक श्रेष्ठ उपन्यास..

Apne Paraye a hindi book by Gurudutt - अपने पराये - गुरुदत्त

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

श्री गुरुदत्त

(1894 & 1989)
शिक्षा : एम.एस.सी.
प्रथम उपन्यास ‘स्वाधीनता के पथ पर’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
विज्ञान की पृष्ठभूमि पर वेद, उपनिषद्, दर्शन इत्यादि शास्त्रों का अध्ययन आरम्भ किया तो उनको ज्ञान का अथाह सागर देख उसी में रम गये।
वेद, उपनिषद् तथा दर्शन शास्त्रों की विवेचना एवं अध्ययन अत्यन्त सरल भाषा में प्रस्तुत करना गुरुदत्त की ही विशेषता है।
उपन्यासों में भी शास्त्रों का निचोड़ तो मिलता ही है, रोचकता के विषय में इतना कहना ही पर्याप्त है कि उनका कोई भी उपन्यास पढ़ना आरम्भ करने पर समाप्त किये बिना छोड़ा नहीं जा सकता।

भूमिका

मानव-समाज का निर्माण तो मनुष्य-मनुष्य में सम्बन्ध बनने से ही हुआ है। समाज का बीज स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध में है। इसी सम्बन्ध का विस्तार परिवार और फिर जाति, बिरादरी, राष्ट्र और अंत में मानव समाज है।
परन्तु देखा जाता है कि मानव जहाँ समाज बनाकर रहना चाहते हैं वहाँ वे परस्पर लड़ने-झगड़ने अर्थात् शत्रुता करने तथा युद्ध करने में भी अपना हित मानते हैं।
इस विषय में कुछ दार्शनिक कहते हैं कि मनुष्य-समाज में विकास हो रहा है, इस कारण यह काल व्यतीत होने के साथ-साथ अपने समाज के घेरे को विस्तार दे रहा है। सृष्टि के आरम्भ में तो मनुष्य का समाज पुरुष और स्त्री की परिधि से भी संकुचित था, अर्थात् दोनों में लैंगिक सम्बन्ध होता था और पशुओं की भाँति इस कृत्य के उपरान्त दोनों एक-दूसरे को भूल जाते थे। अनुभव ने मनुष्य को विवश किया कि उसे पुरुष-स्त्री में सम्बन्ध स्थायी बनाना चाहिए और फिर परिवार अर्थात् इस सम्बन्ध से सर्जित बच्चों को साथ रखना चाहिए। यह परिवार बन गया। इसी प्रकार अनुभव से मनुष्य को परिवार से कबीले, कबीलों से जाति और जातियों से राष्ट्र की कल्पना करने में विवश होना पड़ा और आज ईसा की बीसवीं शताब्दी में अन्तर्राष्ट्रीय समाज की कल्पना और उस कल्पना के कार्यान्वित करने का कार्य आरम्भ हो गया।

समाज का यह इतिहास प्रत्यक्ष में तो सत्य ही प्रतीत होता है, वास्तव में यह ऐसा है नहीं। इसका प्रमाण यह है कि मनुष्य परिवार में रहता हुआ भी परस्पर लड़ता-झगड़ता देखा जाता है। भाई-भाई में शत्रुओं से अधिक तीव्र शत्रुता भी यत्र-तत्र देखी जाती है। जाति, बिरादरी अथवा एक राष्ट्र में भी परस्पर घोर संघर्ष चल रहे हैं। यही व्यवस्था अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भी देखी जाती है। यदि पहले भाई ही भाई की हत्या करते देखे जाते थे तो आज भी वैसी घटनाएँ हो रही हैं। कदाचित् पहले से कम नहीं। पति-पत्नियों में वैमनस्य के लक्षण भी कम नहीं हुए हैं। पत्नियों की हत्याएँ तथा पत्नियों की आत्महत्याएँ पहले से कम नहीं हुई। कुछ संख्या में अधिक ही दृष्टिगोचर हो रही हैं। देश-देश में युद्धों और संघर्षों की मात्राओं में कमी दिखाई नहीं देती। यदि पिछली शताब्दी के युद्धों में कुछ सहस्रों की हत्याएँ होती थीं तो आज युद्ध छिड़ जाने पर लाखों की हत्याएँ होती देखी जा रही हैं। ऐसा अनुमान है कि भविष्य में कोई बड़ा युद्ध हुआ तो करोड़ों मरेंगे।

हमारा विचार है कि इस विषय में विकास की बात सत्य नहीं। मनुष्य तो मनुष्य ही है। वह आदिसृष्टि से आज तक मानसिक विकास में वहीं-का-वहीं ही खड़ा है जहां वह था। जहाँ तक छोटे से बड़े सामाजिक घेरे दिखाई देते हैं वे आर्थिक, राजनैतिक और तकनीकी सामर्थ्य में परिवर्तन होने, मनुष्य बनाने में विवश हो रहे हैं। इस विवशता के नीचे मन की अवस्था ज्यों-की-त्यों ही है। परिणाम यह है कि हत्याएँ, आत्महत्याएँ, षड्यन्त्र, परस्पर छल-कपट और फिर युद्ध पहले से अधिक संख्या में और तीव्रता से हो रहे हैं।
कारण यह है कि मनुष्य एक बुद्धिशील जीव है और बुद्धियाँ सब में समान नहीं है। इस कारण मतभेद और असहनशीलता सर्वथा नि:शेष नहीं हो सकते।
यह बुद्धि का ही आविष्कार है कि संसार में अपने और पराये की कल्पना बनी है। मेल-मिलाप, मित्रता, पारिवारिक सम्बन्ध तथा देश में राष्ट्रीय सम्बन्ध और अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में देशों के परस्पर सम्बन्ध अपने और पराये के विचार से ही बन रहे हैं।

पिछले दो विश्वयुद्धों में अमेरिका इंगलैण्ड के साथ सम्मिलित रहा था। द्वितीय विश्वयुद्ध में हिटलर और स्टालिन सहयोगी बने थे। यहाँ भी सहयोग चल नहीं सका। इंगलैण्ड और रूस में भी मित्रता बनी थी, परन्तु युद्ध की अस्वाभाविक परिस्थिति के समाप्त होते ही दोनों में सिर-फुटौअल होने लगी। यही बात अमेरिका और रूस की हो गई है।
अमेरिका ने चीन के कम्युनिस्टों की अनजाने अथवा जान-बूझकर सहायता की और इसका कटु परिणाम हुआ। इन सबमें कारण यह है कि अपने और पराये में पहचान करने में भूल हुई थी।
यही बात सब क्षेत्रों मे समान रूप में होती देखी जाती है। सम्बन्धों में बीज-रूप में पुरुष-स्त्री का सम्बन्ध है। इसमें भी अपने और पराये की पहचान ही सम्बन्ध के स्थायी, सुखद और सहिष्णुतापूर्ण होने में कारण होती है।
अत: अपने और पराये की विवेचना इस पुस्तक का विषय है। शेष तो उपन्यास ही है और पात्र, स्थान तथा घटनाएँ काल्पनिक है। साथ ही किसी के भी मान-अपमान का प्रयोजन नहीं है।

गुरुदत्त

प्रथम परिच्छेद

‘‘परेश ! आ गए हो ?’’ एक प्रौढ़ा स्त्री ने अठारह-उन्नीस वर्ष के कुमार से पूछ लिया। परेशकुमार युवक का नाम था। वह मकान की ड्योढ़ी में अपना बिस्तर और सन्दूक रख मकान में आ, माँ के चरण स्पर्श कर सामने खड़ा इधर-उधर देखने लगा था।
माँ ने पूछ लिया, ‘‘कब तक छुट्टियाँ हैं ?’’
‘‘माँ ! चौदह जुलाई को हाजिर होना है।’’ परेश ने अपनी खोज के विषय का उल्लेख कर दिया, ‘‘मालती कहाँ है, माँ ?’’
‘‘तो तुमको मिली नहीं ? कह रही थी ‘बस का समय हो रहा है। भैया इसी बस में आ रहा होगा।’ मैं समझी थी कि तुमको बस-स्टैंड पर देखने गई है।’’
‘‘वहाँ तो दिखाई नहीं दी। दादा कहाँ है ?’’

‘‘प्रभु गाँव में गया है। कह रहा था कि लाला गोवर्धनलाल से कुछ काम है।’’
परेश माँ की बात सुन बाहर ड्योढ़ी में रखे समान को भीतर लाने चला गया। माँ उठी और उसने अपने बड़े लड़के प्रभुदत्त की पत्नी कामिनी को आवाज दे दी, ‘‘बहू !...बहू !’’
कामिनी अपने कमरे में सो रही थी। गर्मी की ऋतु में मध्याह्न का भोजन कर वह सो रही थी। जब माँ ने उसके कमरे के बाहर आकर आवाज दी तो वह उठी और भीतर से ही कहने लगी, ‘‘ माँ जी आई ।’’
‘‘देखो, परेश आ गया है। वह प्रात: का ही चला हुआ है और उसने अभी खाया-पिया कुछ नहीं होगा।’’
कामिनी कमरे से निकल आई और रसोईघर में चली गई। परेश अपना सामान अपने कमरे में रख आया और भाभी को रसोईघर में जाते देख बोला, ‘‘भाभी, नमस्ते ! मैं आ गया हूँ।’’
कामिनी ने घूमकर परेश की ओर देख मुस्कराकर पूछ लिया, ‘‘परेश ! ठीक हो ?’’
‘‘हाँ भाभी !’’ वह अभी इधर-उधर देख रहा था। उसे मालती बहन दिखाई नहीं दे रही थी। उसने भाभी से भी पूछ लिया, ‘‘मालती नहीं दिखाई दे रही, भाभी ?’’
‘‘आ जाएगी। तुम ज़रा सुस्ता तो लो !’’
‘‘तो कहीं गई है?’’ परेश ने पूछ लिया। वह रसोईघर के बाहर खड़ा था और कामिनी आग सुलगा रही थी। उसने परेश के प्रश्न का उत्तर केवल इतना दिया, ‘‘भोजन तैयार है, परेश ! साग गरम कर रही हूँ।’’

परेश लखनऊ के कॉलेज में पढ़ता था। ग्रीष्म ऋतु के अवकाश के कारण पंतनगर आया था। उसका एक सहपाठी मुहम्मद दीन था। वह भी उसीके साथ थर्ड ईयर में पढ़ता था। यद्यपि दोनों ने विषय भिन्न-भिन्न लिये हुए थे, इसपर भी दोनों एक ही स्थान के रहनेवाले होने से परस्पर मेल-मुलाकात रखते थे। मुहम्मद दीन ने बी.ए. में उर्दू अरबी और अर्थशास्त्र लिया हुआ था। परेश ने विज्ञान लिया हुआ था। उसका विचार बी.एस.सी. की परीक्षा पास करने के उपरान्त डॉक्टरी के कॉलेज में पढ़ने का था। मुहम्मद दीन तो किसी स्कूल में अध्यापक बनने की तैयारी कर रहा था।
मुहम्मद दीन ने पिछले दिन परेश से पूछा था, ‘परेश ! घर कब चल रहे हो?’
‘कल प्रात:काल पाँच बजे सियालदह-दिल्ली एक्सप्रेस से बरेली और वहाँ से बस के द्वारा अपने घर।’
‘मैं भी तो उसीमें जा रहा हूँ। तुम किस दर्जे में यात्रा किया करते हो ?’
‘थर्ड क्लास में। क्यों, किसलिए पूछ रहे हो ?’

‘हमारे गाँव का एक और स्टूडेंट लखनऊ में है न ! हरिमोहन।’
‘हाँ। सरकारी कॉलेज में पढ़ता है। वह सेठ राधेश्याम का लड़का है।’
‘वह भी जा रहा है, परन्तु वह फ़र्स्ट क्लास में सफर करता है। साथ ही वह कह रहा था कि रामपुर से बस पकड़ने में सहूलियत रहती है।’
‘भाई! वह रास्ता लम्बा है। खर्चा अधिक पड़ता है।’
‘हाँ ! वह मुझे अपने साथ चलने को कहता था। मैंने उसको तो कुछ कहा नहीं, परन्तु मैं उसके साथ नहीं जा रहा।’
‘उसको कह देते, ‘साथ ले चलना है तो भाड़ा दे दो।’ धनी बाप का बेटा है।’
‘वह तो कहता था कि वह सब खर्च कर देगा, मगर मैंने सुबह की गाड़ी से जाने का फैसला किया है।’

इस दिन दोनों सहपाठी कॉलेज से प्रात: चार बजे रिक्शा में अपना सामान रख साढ़े चार बजे चारबाग स्टेशन पर आ पहुँचे और रेल में सवार हो पाँच बजे वहाँ से चलकर बरेली स्टेशन पर दस बजे पहुँच गए। वहाँ से बस पर सवार हो घर को चल पड़े।
मुहम्मद दीन परेश से परिचय तो रखता था, परन्तु उसकी मित्रता हरिमोहन से अधिक थी। उसने एक बात परेश से पूछी, ‘परेश ! मालती को जानते हो ?’
‘क्यों ? क्या बात है ?’
‘हरिमोहन को उसके बहुत पत्र आया करते है।’
‘सत्य ? कैसे जानते हो ?’
‘एक दिन वह मुझे अपने होस्टल में ले गया था। वहाँ उसके कमरे में चिट्ठियों का एक बहुत बड़ा बंडल पड़ा था। मैंने पूछा-बहुत चिट्ठियाँ इकट्ठी कर रखी हैं ? हाँ, कहके उसने वह बंडल उठा एक बड़े लिफाफे में रख अलमारी में रख दिया। उसे चिट्ठियाँ छुपाते देख मुझे एक शक हुआ तो मैंने पूछ लिया-किसकी हैं दोस्त ?’
‘गाँव की एक लड़की है-मालती।’
‘इससे अधिक उसने कुछ नहीं बताया।’

‘कोई होगी।’ बात टालते हुए परेश ने कह दिया, परन्तु मन में वह परेशान हो रहा था। बस-स्टैंड पर वे एक बजे के लगभग पहुँचे। दोनों ने अपना-अपना सामान उठाया और अपने-अपने घर को चल दिए। इसी कारण घर पहुंचते ही उसने माँ से पूछा था, ‘मालती किधर है ?’
माँ के उत्तर से उसकी बेचैनी बढ़ी ही थी। मालती बस-स्टैंड पर नहीं थी। वह घर पर भी नहीं थी। भाभी के उत्तर से उसे सन्देह हुआ कि वह जानती है कि वह कहाँ है। इससे कुछ सन्तोष अनुभव करता हुआ वह अपने कमरे में गया। बूट उतार यात्रा के वस्त्र बदले। धोती, कुर्ता, पाँव में चप्पल पहन वह रसोईघर को चल पड़ा।
कामिनी ने खाना परस दिया-साग, भाजी, चटनी। और माँ के कहने पर बनी खीर रखी थी, वह उसने गरम किए बिना रख दी। भोजन करते हुए परेश ने पुन: मालती के विषय में पूछ लिया, ‘‘माँ जी कह रही थीं कि मालती बस-स्टैंड पर गई हैं, परन्तु वह वहाँ तो नहीं थी !’’
कामिनी ने पूछ लिया, ‘तुम्हारी बस किस समय आई है ?’’
‘‘वह एक बजे यहाँ पहुँची थी।’’

‘‘और वह दस बजे की यहाँ से गई हुई है।’’
‘‘मैंने तो लिखा था कि घर एक बजे पहुँचूँगा।’’
‘‘पर परेश ! वह तुमसे मिलने नहीं गई।’’
‘‘तो किससे मिलने गई है?’’ परेश का माथा ठनका और उसे मुहम्मद दीन की बात सत्य मालूम होने लगी।
कामिनी ने केवल यह कह दिया, ‘उससे ही पूछ लेना। वह आने ही वाली होगी।’’
परेश भोजन कर चुका था कि मालती घर में प्रवेश करती दिखाई दी। परेश बाहर प्रांगण में हाथ धो कुल्ला कर रहा था कि उसने मालती को आते देखा।

उसने परेश की ओर आते हुए पूछ लिया, ‘‘भैया, आ गए हो ?’’
‘‘यही मैं तुमसे पूछने वाला था कि मालती ! आ गई हो ?’’
‘‘मैं ज़रा हरिमोहन को देखने गई थी।’’
‘कौन हरिमोहन ?’’
‘‘तो तुम नहीं जानते ? लाला राधेश्याम के लड़के हैं न ?’’
‘‘तुम उसको कैसे जानती हो ?’’
‘‘वह माया का भाई है न ?’’
‘‘माया कौन है ?’’
‘‘मेरी सहेली है। हम एक श्रेणी में पढ़ती है।’’

‘‘ओह ! वह हरी मिर्च ?’’ यह माया का उपनाम था। वह बहुत तीखा बोलती थी, इसी कारण हरी मिर्च के नाम से विख्यात थी। माया प्राय: मालती के साथ इस घर में आती थी, परन्तु परेश के प्राय: गाँव से बाहर पढ़ने के लिए गए होने से परेश के मस्तिष्क से निकल गई थी। साथ ही वह नहीं जानता था कि वह सेठ राधेश्याम की लड़की है। इस सूचना से वह सब समझ गया। इस समझने से उसके चित्त को शान्ति नहीं हुई। वह सुन चुका था कि मालती हरिमोहन को लखनऊ में पत्र लिखा करती है। यह पत्र सहेली के भाई से कुछ अधिक घनिष्ठता के सूचक थे। उसे तो माँ के अतिरिक्त किसी का पत्र नहीं मिलता था।
परेश अपने कमरे में गया तो मालती अपने कमरे में जाने लगी। परेश ने उसे बुला लिया, ‘‘मालती पढ़ाई कैसी चल रही है ?’’

मालती को विवश उत्तर देने के लिए भाई के साथ उसके कमरे की ओर आना पड़ा। उसने चलते हुए उत्तर दे दिया, ‘‘ठीक चल रही है। मैं इस वर्ष ‘हायर सेकेण्डरी’ पास कर लूँगी।’’
‘‘और आगे क्या पढ़ने का विचार है ?’’
‘‘और पढ़कर क्या करूँगी ?’’
‘‘चिट्ठी लिखने का ढंग तो आ जाएगा !’’
‘‘वह तो आता है।’’ मालती ने व्यंग्य न समझते हुए कह दिया।
‘‘कहाँ आता है ? मैं दस मास के उपरांत घर आ रहा हूँ और तुमने कभी पत्र तो लिखा नहीं है ?’’
‘‘माँ जी पत्र लिखती हैं, और उनको उत्तर आता है, सो समाचार मिल जाता है।’’
‘‘पर हरिमोहन की माँ उसको पत्र नहीं लिखती क्या जो तुमको लिखने पड़ते हैं ?’’

इस समय वह कमरे में परेश की कुर्सी पर बैठ चुकी थी और परेश अपनी खाट पर, जिस पर अभी बँधा बिस्तर और बंद ट्रंक रखा था, बैठ गया था। उसने देखा कि मालती का मुख लाल हो गया है।
मालती ने अपनी घबराहट को छुपाने के लिए पूछ लिया, ‘‘तो हरिमोहन जी ने कुछ बताया है ?’’
‘‘मेरे साथ उसकी बोलचाल बहुत कम है। परंतु वह किसी अन्य को बता रहा था। मालती ! उसको बस-स्टैंड पर लेने गई थीं क्या ?’’
‘‘बस-स्टैंड पर नहीं। मैं तो माया से मिलने उसके घर गई थी। वहाँ वह भी मिला था।’’
‘‘तो यह बात थी ! अच्छा अब तुम जाओ। भाभी ने खीर अधिक खिला दी है और नींद आ रही है।’’
मालती को यह परमात्मा की कृपा अनुभव हुई और वह उठ अपने कमरे में चली गई। परेश को नींद नहीं आई थी। वह तो इस सूचना को माँ तक पहुँचाने का विचार कर रहा था।

पर माँ इसमें क्या कर सकेगी ? वह समझ नहीं सका। उसको बड़े भाई का विचार आया। वह तो मालती को पढ़ाने के ही विरुद्ध था। यह तो परेश के आग्रह पर ही उसे स्कूल में पढ़ने के लिए भेजा गया था। गाँव की पाठशाला में तो पाँचवी श्रेणी तक ही स्कूल था। गाँव से एक मील के अन्तर पर फार्म के कर्मचारियों के बच्चों के लिए एक सैकण्डरी स्कूल खोला गया था।
परेश के पिता का देहान्त हो चुका था। इस कारण परेश ने भाभी की सिफारिश लगवा मालती को स्कूल में भरती कराने के लिए भाई की स्वीकृति ले ली थी। इस बात को अब पाँच वर्ष हो चुके थे। वह स्वयं उस समय नौंवी श्रेणी में पढ़ता था।
इस समय उसको भाभी की याद आई। उसको खयाल आया कि उसके द्वारा इस विषय में कुछ यत्न करना चाहिए। वह तो अभी यह भी नहीं समझ सका था कि क्या यत्न करना चाहिए।
वह उठा और भाभी कामिनी के कमरे में जा पहुँचा। वह अपने छोटे बच्चे को दूध पिला रही थी। उसने देवर को आते देखा तो स्तनों को, जो बच्चे के मुख में थे, आँचल से ढाँप लिया और पूछने लगी, ‘‘कुछ मुझे कहने आए हो, परेश ?’’
‘‘हाँ भाभी !’’

‘‘तो आ जाओ।’’ वह स्वयं तो खाट पर बैठी थी। उसका बड़ा लड़का जो इस समय चार वर्ष का था, भूमि पर बैठा अपने टूटे-फूटे खिलौनों से खेल रहा था।
परेश ने कमरे में दूसरी खाट पर बैठते हुए कहा, ‘‘भाभी ! जानती हो मालती कहाँ गई थी ?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘और तुमने उसको उनके घर जाने से मना नहीं किया ?’’
‘‘मना कैसे करती ? माया भी तो हमारे घर आती है !’’
‘‘पर भाभी ! वह तो माया के भाई से मिलने जाती है।’’
‘‘जानती हूँ। परन्तु यह मेरा अनुमान ही था, इस कारण जवान लड़की से कुछ कह नहीं सकी। माँ से इसलिए नहीं कहा कि वे इसे ननद-भाभी के झगड़े की बात समझ लेंगी।’’
‘‘और भैया से भी नहीं कहा ?’’

‘‘वे तो तब से ही कह रहे थे कि मालती वश में नहीं रहेगी, जब उसे सरकारी स्कूल में भरती कराया गया था।’’
‘‘भाभी ! यह तो ठीक नहीं हुआ। ’’
‘‘क्या हुआ है ?’’
‘‘मालती हरिमोहन, माया के भाई को चिट्ठियाँ लिखा करती हैं, जो हरिमोहन बहुत सँभालकर और छुपाकर रखता है।’’
‘‘और तुमने देख ली हैं ?’’
‘‘किसी ने तो देखी ही हैं। मैंने अभी मालती से पूछा था और यह जान उसका मुख लाल हो गया था।’’
‘‘यह ठीक तो नहीं हुआ। परन्तु अब तुम्हारे भैया से कहूँगी। वे तुमसे पूछेंगे तो उनको उसकी सब कारगुजारी बताना।’’
बात हो गई। अगले दिन प्रभुदत्त ने परेश से पूछ लिया, ‘‘मालती के विषय में क्या कह रहे थे अपनी भाभी से ?’’
इस पर परेश ने वह सब बात सुना दी जो उसने मालती के विषय में मुहम्मद दीन से सुनी थी।
‘‘वह गुलाम नबी का लड़का ?’’

‘‘हाँ, वह भी हमारी श्रेणी में पढ़ता है। कल हम लखनऊ से इकट्ठे आए हैं और उसने यह बात बताई है।’’
‘‘तो वह यह नहीं जानता कि मालती तुम्हारी बहन है ?’’
‘‘उसकी बात से तो यही मालूम होता है कि वह नहीं जानता।’’
‘‘देखो परेश ! मैंने तुम्हारी भाभी से कहा है कि वह मालती से पता करे कि सम्बन्ध और लगन कितनी गहरी है। यदि कुछ खराबी हो चुकी है तो मैं मालती की हत्या कर दूँगा।’’
‘‘परेश को इससे कँपकँपी हो उठी। उसने कह दिया, ‘‘आशा करनी चाहिए कि ऐसी कोई बात नहीं हुई होगी। इस पर भी मालती की हत्या के स्थान तो हरिमोहन की हत्या करनी चाहिए। मैं तो यह भी पसन्द करूँगा कि मालती का उससे विवाह हो जाए।’’

‘‘यह सम्भव नहीं। वह जाति के बनिया, हम ब्राह्मण। इस बात को छोड़ भी दूँ तो वह धनी-मानी आदमी और हम साधारण भूमिपति। यह नहीं हो सकेगा !’’

‘‘यदि वे नहीं मानेंगे तो हत्या करनी ही होगी। मान गए तो विवाह कर देंगे।’’
‘‘बहुत बदनामी होगी।’’
‘‘पर भैया ! हत्या तो इससे भी बड़ी बात होगी।’’



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