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घर की बात

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :169
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5274
आईएसबीएन :81-88388-35-7

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सामाजिक पृष्ठभूमि पर आधारित उपन्यास...

Ghar Ki Bat

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रकाशकीय

आजीवन साहित्य साधना में लीन रहने वाले  गुरूदत्त का नाम अजर व अमर है; जिन्होंने अपने उत्कृष्ट साहित्य से अपना व भारत भूमि का नाम विदेशों में आलौकिक किया और भारत के यश व गौरव में वृद्धि की।
इनका जन्म लाहौर (वर्तमान पाकिस्तान) में सन् 1894 को हुआ था। तब लाहौर भारत का ही एक अंग था। ये आधुनिक विज्ञान के छात्र थे और पेशे से वैद्य थे। रसायन विज्ञान से एम.एस-सी. (स्नातकोत्तर) किया; किन्तु वैदिक साहित्य के व्याख्याता बने और साहित्य सृजन व साहित्य साधना में लग गये।

साहित्य साधना का सफर इन्होंने ‘स्वाधीनता के पथ पर’ नामक उपन्यास से किया और इस उपन्यास के प्रकाशन ने इन्हें लाखों-करोड़ों पाठकों के हृदय का सम्राट बना दिया और ये यश व प्रसिद्धि की सीढ़ियाँ चढ़ते चले गये। इसके बाद श्री गुरूदत्त ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और राजनीति, समाज व इतिहास आदि पर अपनी कलम चलाते हुए एक के बाद एक, एक से बढ़कर एक लगभग 200 उपन्यासों का सृजन किया।
इसी प्रकार आजीवन साहित्य साधना में रत रहते हुए 8 अप्रैल 1989 को इन्होंने दिल्ली में अपना शरीर त्याग दिया और अपना सारा साहित्य भारत भूमि को समर्पित कर दिया।

अब ‘रजत प्रकाशन’ मेरठ से श्री गुरूदत्त के उपन्यासों का प्रकाशन करते हुए हमें अपार गौरव का अनुभव हो रहा है। साथ ही हिन्दी भाषी पाठकों के लिए तो यह हर्ष का विषय है कि श्री गुरूदत्त का साहित्य अब उन्हें सुलभ प्राप्त हुआ करेगा।
‘घर की बात’ श्री गुरूदत्त का सामाजिक पृष्ठभूमि पर आधारित एक लोकप्रिय उपन्यास है। जो भाषा शैली, कथानक, शब्द संयोजन, मनोरंजन, ज्ञान वह प्रस्तुतिकरण प्रत्येक दृष्टिकोण से उत्कृष्ट है।

शहरी संस्कृति से प्रभावित होकर, भटके हुए युवा वर्ग को भारतीय संस्कृति द्वारा मार्गदर्शन पर आधारित इस उपन्यास की कथावस्तु अत्यंत ही शिक्षाप्रद है। श्री गुरूदत्त के इस उपन्यास में आज के भटके हुए युवा वर्ग के लिए संदेश है कि अपने नैतिक मूल्यों व प्राचीन संस्कृति की अवहेलना घातक है और इसका परिणाम केवल और केवल पतन ही है।
वास्तव में यह उपन्यास आज के भटके हुए युवा वर्ग के लिये संजीवनी बूटी की तरह है, जो उन्हें  चरित्र हननता व नैतिक मूल्यों  की गिरावट से बचाता है।

आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि गुरूदत्त जी की कलम से निकला यह सारगर्भित, उद्देश्यपूर्ण, मनोरंजक व रोचक उपन्यास सभी वर्ग के पाठको को पसन्द आयेगा और वे गुरूदत्त के प्रशंसकों की सूची में शामिल हो जायेंगे। एक पत्र द्वारा अपनी प्रतिक्रिया 
से अवश्य अवगत करायें।

प्रथम परिच्छेद
1

सुधा और कामिनी कनाट प्लेस से अपने-अपने लिये श्रृंगार सामग्री खरीद कर लायी थीं।
दोनों मोटर में कोठी पहुँची थीं और क्रीम, पाउडर, लिपस्टिक, नेल पालिश, कंघे, हेयर आयल, इत्यादि सामान पैकेट में लपेटा हुआ उठा, मोटर से उतर कोठी के ड्राइंगरूम में जा पहुंचीं। दोनों सगी बहिनें थी अविवाहित थीं और कालेज में पढ़ती थीं। बड़ी, सुधा, कालेज में चतुर्थ श्रेणी में थी और बी. ए. की परीक्षा देने वाली थी। छोटी, कामिनी, अभी प्रथम श्रेणीं में थी। इसने पिछले वर्ष मैट्रिक्युलेशन की परीक्षा पास की थी। दोनों बहिनें इन्द्रप्रस्थ गर्ल्स कालेज में पढ़ती थीं। घर की मोटर गाड़ी उनको लेने जाया करती थी। आज जब घर आने लगीं तो कामिनी ने कह दिया, ‘‘मेरा हेयर आयल समाप्त हो गया है। मैं वह लेती जाऊंगी।’

इस पर सुधा ने कहा, ‘ओह ! याद आ गया। मेरी क्रीम समाप्त हुए तो कई दिन हो चुके हैं, परन्तु कालेज से लौटते समय नित्य भूल जाती हूँ। रात को सोने से पहले जब क्रीम लगानी होती है तो याद आती है। आज तुमने याद करा दिया। ओ ! शम्भु’, सुधा ने ड्राइवर को कह दिया, ‘कनाट प्लेस एम्पायर से होते हुए चलना।’
जब ये एम्पायर स्टोर में क्रीम और हेयर आयल खरीदने लगीं तो वहां अन्य अनेक प्रकार के श्रृंगार प्रसाधन खरीदने लग गयीं। सेल्समैन ने सब सामान एक ही पैकिट में बंधवा दिया और दाम वसूल करने वाले ने एक ही रसीद बना सब दाम इकट्ठा ही ले लिया। सब दाम सुधा ने दिया। दोनों लड़कियों का विचार था कि घर चलकर सामान बांट लेंगी और फिर दाम का बंटवारा भी कर लेंगी।

उनके पिता की कोठी हेली रोड पर थी। नाम था शरणदास। देश विभाजन के समय शरणदास अपनी पूर्ण चल-सम्पत्ति लेकर दिल्ली आ गया था और हेली रोड पर एक मुसलमान रईस की कोठी से अपना लाहौर अनारकली बाजार वाला चार मन्जिला मकान बदले में देकर रहने लगा था। शरणदास लाहौर में भी ठेकेदारी करता था और दिल्ली में भी आकर ठेकेदारी करने लगा था।
कोठी के ड्राइंगरूम में बैठ लड़कियां अपना-अपना सामान लेकर हिसाब-किताब कर रही थीं कि उनकी माँ साधना उनकी आवाज सुन ड्राइंगरूम में आ गयी। बोतलें, शीशियां, डिब्बियां आदि दो ढेरों में रखी देख, माँ ने पूछ लिया, ‘यह क्या उठा लायी हो ?’

लड़कियां मां को उस सामान के विषय में बताना नहीं चाहती थीं। वे माँ को एक सरल चित्त, नयी दुनिया के व्यवहार से अपरिचित और सादा जीवन व्यतीत करने वाली स्त्री मानती थीं। वे समझती थीं कि यदि मां को बताया तो वे सामान क्या-क्या है और किस-किस मतलब के लिये है तो बड़ी व्याख्या करनी पड़ेगी, इसलिए सुधा ने कह दिया, ‘मां कुछ नहीं ये लड़कियों के काम की वस्तुएं हैं।’
‘तो यह कालेज में पढ़ायी जाती हैं ?’ माँ ने मुस्कराते हुये पूछ लिया।
इसका उत्तर कामिनी ने दिया ‘हां माँ कुछ ऐसी ही बात है।’
माँ ने मुस्कराते हुए ही कहा, ‘ठीक है, मैंने भी कालेज की किताबें कभी पढ़ी थीं। फिर भी मेरे जमाने की आवश्यकता नहीं। कदाचित् मुझमें जानने की योग्यता भी नहीं। पर, तुम्हारी कालेज की किताबें कहां हैं ?’

‘ओह ! सुधा लपक कर उठी और बाहर मोटर की तरफ भागी। ड्राइवर मोटर लेकर लाला जी के काम पर चला गया था। वहाँ से लाला जी को लेकर आना था। सुधा एम्पायर स्टोर में खरीदी हुई वस्तुएं बांटने के विचार में इतनी लीन हो गई थी कि वह मोटर में से किताबें निकलना भी भूल गयी थी। वैसे तो वह जानती थी कि मोटर में से किताबें गुम नहीं हो सकतीं।
सुधा जब ड्राइंगरूम में वापिस आयी तो कमिनी उत्सुकता से सुधा के लौटने का मार्ग देख रही थी। सुधा ने आते ही कहा, ‘किताबें तो मोटर में ही रह गयी हैं और मोटर पिता जी को लेने काम पर चली गयी है।’
‘तो आ जायेंगी।’ कामिनी ने निश्चिन्त भाव में कह दिया, ‘कामिनी, आठ रूपये दस आने तुम्हारे हिसाब के बनते  हैं। लाओ, जल्दी लाओ।’

कामिनी ने हाथ में दस का नोट पकड़ा हुआ था, वह उसने सुधा की ओर बढ़ाया तो सुधा के मुख पर चिन्ता की रेखाएं देख स्तब्ध रह गयी। मां दोनों लड़कियों का नाटक देख रही थी और समझ रही थी कि कुछ गड़बड़ अवश्य है। परन्तु स्वभाव वश कुछ पूछ नहीं रही थी और दोनों के मुख पर मुस्कराती हुई देख रही थी। सुधा ने नोट पकड़ लिया और अपनी पर्स में से एक रूपया छः आने निकाल छोटी बहिन के सामने रखी तिपाई पर रख दिये। तदनन्तर सामान उठा चुपचाप अपने कमरे चली गयी। कामिनी भी शेष धन और सामान उठा रही थी कि मां ने पूछ लिया, ‘सुधा के मुख का रंग फीका क्यों पड़ गया है ?’
कामिनी ने सामान बटोरते हुए कह दिया, ‘माँ, कुछ नहीं। यह लड़कियों की बात है।’
वास्तव में वह स्वयं भी विस्मित थी कि सुधा को क्या हो  गया है ? मां को तो दोनों लड़कियां अपने मन की बात न बताने के लिये इसी प्रकार टाल दिया करती थीं।

कामिनी के दूसरी बार यह कहने पर कि यह लड़कियों की  बात है, मां खिलखिलाकर हँस पड़ी। उसके मुख से अनायास ही निकल गया, ‘हाँ, मैं तो लड़की रही ही नहीं।’
कामिनी ने इस ओर ध्यान नहीं दिया और अपना सामान व शेष रेजगारी लेकर अपने कमरे में चली गयी। मां उसे जाते हुए देखती रह गयी। वह अनुभव कर रही थी कि जब से लड़कियां कालेज में भरती हुई हैं तब से वे अपने आपको बहुत बुद्घिमान और अनुभवी समझने लगी हैं। लड़कियों का यह विचार उसे पसंद नहीं था। इस पर भी वह अनावश्यक पूछ-ताछ करना अनुचित समझती थी। हां, वह सतर्क अवश्य थी और उनकी गतिविधि को देख अपना अनुमान लगाया करती थी।

वह अभी खड़ी-खड़ी विचार ही कर रही थी कि सुधा की घबराहट  का कारण किस प्रकार जाने कि उसका बड़ा लड़का नरेश आया और माँ को वहां ड्राइंगरूम में परेशानी में खड़ा देख पूछने लगा, ‘माँ ! यहां क्या कर रही हो ? उधर क्या देख रही हो ?’ माँ लड़कियों की बात लड़के को बताना नहीं चाहती थी। उसने कह दिया, ‘सुधा और कामिनी अभी कालेज से आयी हैं और मैं देख रही थी कि चाय के लिये कब आती हैं ?
नरेश अपनी धुन में सवार था। वह माँ के वहां खड़े होने के कारण को सुन अपनी बात कहने लगा, ‘माँ, मैं तुमको एक सूचना देने आया हूँ।’
‘तुम भी चाय पीने के लिये आ जाओ...... ।’
नरेश ने बात बीच में ही काटते हुए कहा, ‘नहीं, मां ! बात यहीं सुन लो। सुधा और कामिनी को मैं पीछे बताऊँगा।’
‘हां, बताओ।’ माँ ने उत्सुकता से लड़के के मुख पर देखते हुए पूछा।
नरेश ने छत की ओर देखते हुए कहा, ‘मैंने अपना एक घर बना लिया है।’

मां की हँसी निकल गयी। उसने पूछा, ‘कैसा घर बना लिया है ? लकड़ी का, सीमेण्ट-पत्थर का, ईंट व चूने का अथवा मिट्टी गारे का ?’ नरेश ने माँ के भाव को न समझते हुए कह दिया, ‘मां वह तो पिता जी से राय करके बनवाऊंगा। अभी तो मेट्रोपोलिटन होटल में कमरों का एक सेट लेकर रहने का प्रबन्ध कर लिया है।’
‘तो इसे तुम घर कहते हो। उससे अच्छे कमरे तो यहां पर हैं।’
‘पर, माँ ! वह सब से पृथक रहना चाहती है।’
अब तो माँ का माथा ठनका और उसने पूछा, ‘वह कौन ?’
‘माँ ! तुम्हारी बहू !’
‘कहां से पकड़ लाये हो उसे, कैसे पकड़ लाये हो और क्यों पकड़ लाये हो ?’

‘अपने कार्यालय में  टाइपिस्ट का काम करती थी। आज कचहरी में मजिस्ट्रेट के सामने विवाह कर लिया है और अब होटल में रहने का प्रबन्ध कर, तुम्हें सूचना देने आया हूं।’
माँ रोष से मुख में एकत्रित हो रही थूक को यत्न से गले के नीचे उतारते हुए पूछने लगी, ‘अपने पिता जी को बता आये हो अथवा नहीं ?’
‘माँ, तुम बताओ, नाराज तो नहीं हो ? यदि तुम प्रसन्न होगी तो फिर पिताजी और बहिनों को बताऊंगा।’
‘और यदि प्रसन्न न हुई, तो क्या करोगे ?’
‘तो फिर उससे विचार करूंगा कि क्या करना चाहिये ?’
‘अर्थात जैसा वह कहेगी वैसा करोगे ?’
‘माँ, यह तो करना ही होगा। इस पर भी मेरी राय है कि तुमको भी प्रसन्न रखना चाहिये।’

‘मैं तो इस बात से प्रसन्न हूँ कि वह पृथक में रहना चाहती है। हां, जब कभी तुम और वह यहाँ आकर रहना चाहोगे तब प्रसन्नता, अप्रसन्नता के विषय में विचार करना होगा।’
लड़के ने अभी भी गर्व से फूलते हुए कहा, ‘मैं तो दोनों अवस्थाओं में माँ का आशीर्वाद लेने आया हूँ।’
मां को यह सब कुछ सर्वथा अटपटा प्रतीत हो रहा था। वह इस नयी परिस्थिति पर विचार करती हुई ड्राइंगरूम में लगे सोफे पर बैठ गयी और एक दीर्घ निःश्वास लेकर बोली, ‘माँ का आशीर्वाद तो सदा रहेगा, परन्तु आशीर्वाद फलेगा तब, जब बुद्धि का प्रयोग करोगे।’
‘मां....।’ वह आगे कह नहीं सका। इस समय उसकी बहिनें अपने-अपने कमरों से बाहर आ गयी थीं। वे अब चिन्तित नहीं थीं। दोनों मध्यान्होत्तर की चाय पीने के लिये आयी थीं। उन्होंने अपने भाई को माँ के सामने खड़ा देख पूछ लिया, ‘भैया, चाय नहीं पियोगे ?’

नरेश ने लड़कियों की ओर घूमकर कहा, ‘पियूंगा, परन्तु मां से एक बात पूछ रहा हूँ.....।’
कामिनी ने बात बीच में ही टोक कर पूछा, ‘हम से प्राइवेट ?’
‘हां भी और नहीं भी। यह माँ बतायेंगी।’
‘तो माँ, बताओ, हम से बात प्राइवेट है अथवा नहीं ?’
माँ ने लड़कियों कि तरफ ध्यान देते हुए लड़के से कहा, ‘मैंने तुम्हारे काम के लिये आशीर्वाद दे दिया है। चलो, अब चाय पी लो। शेष बात तुम्हारे पिता जी के आने पर करूँगी’।
‘पर मैं तो आप सब को चाय के लिये ‘इम्पीरियल’ में निमंत्रण देने आया हूँ।’
माँ के कुछ कहने से पूर्व ही कामिनी ने कह दिय़ा, ‘तो माँ ! सोच क्या रही हो ? चलो न।’
‘तुम्हारे पिताजी की और छोटे भाई की प्रतीक्षा कर रही हूँ।’

‘तो उनके आने पर सब चलेंगे ?’ कामिनी ने प्रसन्नता से उछलते हुए पूछ लिया।
नरेश ने भी मां को उत्तर देने का अवसर नहीं दिया और स्वयं कहने लगा, ‘माँ ! बहुत धन्यवाद है। मैं अति प्रसन्न हूं कि तुमने मेरा निमंत्रण स्वीकार कर लिया है।’
माँ समझ रही थी कि यह लोग उसे सीधी-साधी औरत समझ उससे वह काम कराने का यत्न कर रहे हैं जिसे वह पसंद नहीं करती। वह लड़कियों के व्यवहार को देख चुकी थी। वे उसे अनपढ़ और जमाने की गतिविधियों से अनभिज्ञ मानतीं थीं। प्रत्येक बात में वे उसे यह कहकर टाल देती थीं कि यह लड़कियों की बात है और यह लड़का अपने मन की बात चतुराई से उनके मुख से निकलवाना चाहता है। उसने तो इम्पीरियल में चाय लेने का उसका निमंत्रण अभी स्वीकार नहीं किया था कि वह लड़का नरेश उसका धन्यवाद भी कहने लगा है। इस पर भी उसने स्वभावानुकूल वह मुस्कराती हुई बच्चों की ओर देखती रही। उसके इस प्रकार प्रत्येक बात पर मुस्कराने के कारण ही बच्चे उसे एक अति सरल चित्त और नये जमाने की बातों को न जानने वाली स्त्री समझते थे। अपने को इस प्रकार समझे जाने पर साधना रुष्ट नहीं थी। वह जानती थी। कि वह समझती तो सबकुछ है, परन्तु अपनी समझी बात को न कहना बुद्धिमत्ता मानती थी। एक बात यह भी थी कि वह स्वभाव से हँसमुख थी और उसके मुख को देखकर प्रायः लोग उसे अनभिज्ञ मानते थे। वह स्वयं अपने को ऐसा न समझ दूसरों को अपने से कम ज्ञान वाला जान उनके कामों और कहने पर मुस्कराया अथवा हँसा करती थी।

देश विभाजन के उपरान्त स्वराज्य काल के ऊषा काल को सन्धि काल ही कहा जा सकता था। केवल राज्य परिवर्तन ही नहीं हुआ था, वरन मनोदगारों, आकांक्षाओं, योजनाओं, व्यवहार और आचरण में भी परिवर्तन होने लगे थे। लोग मान रहे थे युग आरम्भ हुआ है। रात से दिन निकला है। दुःख से सुख का काल आया है। भारत को उन्नति करने का स्वर्ण अवसर प्राप्त हुआ है और यह सन्धि काल है। इस सन्धि काल में सब कुछ बदलना चाहिये और पहले और आगे के इस संयोग काल में नयी बातें होनी चाहिये।

2


स्वराज्य के ऊषा काल में अभी पूर्ण प्रकाश नहीं हुआ था कि शरणदास ने अपने पांव दिल्ली में जमा लिये। वह लाहौर तो जुलाई 1947 के प्रथम सप्ताह में ही छोड़ आया था। अपनी पूर्ण चल-सम्पत्ति वह दिल्ली में कुछ बैकों के द्वारा, कुछ अपने साथ हवाई जहाज में लाद कर और कुछ वहां बेचकर, नकदी जेब में डालकर ले आया था। दिल्ली पहुँच उसने एक मुसलमान ठेकेदार इस्माईल अब्बासी से अचल सम्पत्ति के अदला-बदली का विचार उपस्थित किया। अब्बासी का विचार था कि उसे दिल्ली छोड़ने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। इस पर शरणदास ने अपने मन की बात बता उससे कहा, ‘अब्बासी साहब, इन कांग्रेसी नेताओं के आश्वासनों पर विश्वास कर रहे हैं ? धोखा खाओगे। याद रखो जो लोग अपनी जाति और विचार के लोगों की रक्षा नहीं कर सके वे विजातियों और विरोधी विचार वालों की रक्षा कैसे कर सकेंगे ? मैं जब लाहौर से आने लगा था तो मुझे भी  वहां के नेताओं ने यह समझाया था कि गांधी जी और कांग्रेस पर भरोसा रखो। पाकिस्तान में भी हिन्दू रह सकेंगे और अपना जीवन सुख-सुविधा से व्यतीत कर सकेंगे।’

मैंने उससे यह कहा था, ‘अन्तरिम सरकार बने नौ महीने से ऊपर हो चुके हैं। इन नौ महीनों में न तो सरकार बलवे और हत्यायें करने वालों को पकड़ सकी और न ही इनका होना रोक सकी है। अभी तो अंग्रेजों का बनाया हुआ शासन का ढांचा ज्यों का त्यों उपस्थित है, परन्तु लोग अपनी नाक के नीचे दिल्ली में भी होने वाली हत्यायें, बलवे, अग्निकाण्ड रोक नहीं सके। मैं समझता हूँ कि यह रोक सकेंगे भी नहीं। इनमें कुछ दोष हैं।
‘मुझको समझाने वाले नेता ने कहा, ‘पर लाला जी। आपको किस बात की चिन्ता है ? आप माडल टाउन में रहते हैं। वहाँ यह शहरी गुण्डे पहुंच नहीं सकते और फिर आपके पास तो पिस्तौल और बन्दूक का लाइसैन्स भी है। यह सब झगड़े, फसाद, हत्यायें तो गरीब आदमियों की होती हैं।

‘मैं उस की बात सुन हँस पड़ा। मैंने उसका कहा नहीं माना और मुझे यहाँ आये अभी दो सप्ताह भी नहीं हुए कि मुझे पता चला कि वही मुझको समझाने वाले व्यक्ति अपना सब कुछ लेकर शिमला जा पहुंचे हैं। वे पूर्वी पंजाब की सरकार में मिनिस्टर बनने की आशा कर रहे हैं। मुझे तो यह भी मालूम हुआ है कि वह अपना लाहौर अनारकली बाजार का मकान एक मुसलमान के पास कौड़ियों के दाम बेच आये हैं। इसलिये मियां साहब, मैं आपसे कहता हूँ कि आप अपनी कोठी मेरे मकान से बदल लीजिये। अभी तो मौका है। पन्द्रह अगस्त के बाद रजिस्ट्री कराना भी मुश्किल हो जायेगा।’
इस्माईल मन में तो शरणदास की बात को ठीक ही समझ रहा था। वह मन में विचार कर रहा था कि यदि दिल्ली में हिन्दु-मुसलमान फसाद हो गया तो मुसलमानों की यहां कौन रक्षा करेगा ? यह ठीक है कि कांग्रेसी नेता मुसलमानों को आश्वावासन दे रहे थे। परन्तु जब जनता बिगड़ जायेगी तो फिर तो परमात्मा भी उसके कोप का विरोध नहीं कर सकेगा। उसका मन भीतर ही भीतर बैठ रहा था और शरणदास उसके मुख के बदलते रंग देख अपने प्रस्ताव को स्वीकार किये जाने की आशा करने लगा था। उसने अपनी बात पर बल देने के लिये कह दिया, ‘अब्बासी साहब ! अनारकली बाजार में चार मन्जिला मकान है। नीचे चार दुकाने हैं। दुकानों के पीछे एक बहुत बड़ा गोदाम है। ऊपर की तीन मन्जिलें भी किराये पर लगी हुई हैं। सारे मकान का ढाई हजार महीने में किराया आता है। आपकी यह कोठी है। इसका किराया पांच-छः सौ रूपय महीने से ज्यादा नहीं हो सकता। मेरे मकान में किरायेदार सब के सब मुसलमान हैं और यहाँ आप कोठी के आधे हिस्से में रहते हैं और बकाया आधे हिस्से में जो मियां रहते थे, वे पहले ही भाग चुके हैं। बताइये है मन्जूर ?’

अब्बासी समझ गया कि अब तो जायदाद के बदले में जायदाद मिल रही है और कहीं बलवा हो गया और भागना पड़ा तो कुछ भी नहीं मिल सकेगा। वह मान रहा और फिर दो चार दिन में ही दिल्ली और लाहौर में कोठी और मकान की रजिस्ट्रियां हो गयीं।
जब शरणदास लाहौर में मकान की रजिस्ट्री कराने गया तो पड़ोसी और मित्रों ने उसको डरपोक और गद्दार कहा था, परन्तु शरणदास अपनी धुन में सवार था। वह पिछले कई वर्ष के इतिहास से यह समझ चुका था। कि उसमें अपने नेताओं से अधिक सूझ-बूझ है। यह जुलाई का तीसरा सप्ताह था और पन्द्रह अगस्त को स्वराज्य के उदय होने के समय वह अपने परिवार के साथ हेली रोड की कोठी में मजे से रह रहा था।
सितम्बर के मध्य तक वह सरकारी रजिस्टरों में प्रथम श्रेणी का ठेकेदार लिखा जा चुका था। सन् 1948 के आरम्भ में वह अपने अपने कारोबार में लग गया था। बच्चे स्कूल, कालिजों में भरती हो चुके थे और जीवन सुख एवं शांति से व्यतीत होने लगा था।

लाला जी का बड़ा लड़का नरेश पंजाब यूनिवर्सिटी की एम. ए. की परीक्षा सन् 1947 में देने वाला था। वहाँ की अव्यवस्था के कारण परीक्षा नहीं दे सका। सन् 1947 में वह हिन्दु कालेज में प्रवेश पा गया और और उसे उसी वर्ष परीक्षा में बैठने की स्वीकृति मिल गयी। नरेश से छोटी सुधा थी। वह लहौर में बी. ए. की प्रथम श्रेणी में पढ़ती थी और दिल्ली में आकर सन् 1949 में इन्द्रस्थ गर्ल्स कालेज में भरती हो गयी। सुधा के छोटे भाई का नाम महेश था। वह दिल्ली में आकर नवीं श्रेणी में पढ़ने लगा था। उसे भी डी.ए.वी. स्कूल में प्रवेश मिल गया था। कामिनी भी अभी स्कूल में पढ़ती थी। वह चावड़ी बाजार कन्या पाठशाला में भरती हुई थी।
नरेश ने परीक्षा पास की और तीन चार महीने में बुक कीपिंग और टाईप राईटिंग का काम सीख पिता जी के कार्यालय में प्रबन्ध करने लगा। शरणदास तो काम देखता था और नरेश कार्यालय में बैठा हुआ कारोबार का हिसाब-किताब और पत्र-व्यवहार करता था।
सन् 1950 आ गया। लाला शरणदास एक अच्छा और सफल ठेकेदार माना जाने लगा। इसके साथ ही नरेश के लिये सगाइयें आनी आरम्भ हो गयीं। नरेश विवाह करने से इंकार कर रहा था। उसके माता-पिता इस इंकारी पर परेशानी अनुभव कर रहे थे। एक दिन शरणदास ने अपनी पत्नी से कहा, ‘भली औरत, अपनी बुद्धि का एक अंश मात्र भी तुमने अपने बेटे को नहीं दिया। उसने आज लाला बनारसी दास को बहुत सख्त बातें कही हैं। मैं समझता हूँ कि उसको बात करने की भी अक्ल नहीं।

साधना ने मुस्कराते हुए पूछ लिया, ‘और ये बनारसी दास कौन हैं ?
‘दिल्ली के एक बहुत बड़े ठेकेदार हैं।
‘ये नरेश से किस मतलब से मिलने आये थे ?’
कुछ दिन हुए वह मेरे पास आये थे और अपनी लड़की की सगाई की बात कर रहे थे। मैंने कहा था, ‘लड़के को देख लीजिये, तब मैं उससे पूछूंगा।’ ऐसा प्रतीत होता है कि वे कल कार्यालय में नरेश को देखने आये थे। बनारसी दास जी ने नरेश से कुछ पूछा होगा। नरेश को यह समझ आया होगा कि वे उसकी सगाई के सम्बन्ध में आये हैं। इस पर नरेश ने लाला बनारसी दास जी से यह कहा मालूम होता है, ‘सगाई आपकी होनी है या और किसी की ?’
‘यह बात मुझे क्लब में लाला बनारसी दास जी ने बताई है। नरेश के इस प्रश्न पर बनारसी दास जी ने उससे कहा कि उसकी लड़की है। बी. ए. पास है, और उसके लिए उन्होंने नरेश को उपयुक्त समझा है। लाला जी ने बताया कि नरेश का मुख लाल हो गया और बोला, ‘जिसको विवाह करना है उसको मेरे पास भेज दो। मैं और वह निश्चय कर लेंगे। आप का बीच में आना मैं उचित नहीं समझता।’

‘बनारसी दास ने बताया है कि उसने लड़के को शान्त करने के लिये कहा कि वह लड़की के पिता हैं। उसका अपनी लड़की से स्नेह है और वह अपनी लड़की के विवाह पर एक लाख रूपया देने वाला है इसलिए वह एक दो बाते नरेश से पूछने आया है। नरेश अभी भी हवाई घोड़े पर सवार था और उसने यह कहा, ‘मैं इन बातों को नहीं जानता और न ही जानने में रूचि रखता हूँ। मेरी रूचि तो उसमें है जिससे मेरा विवाह होगा। यदि इच्छा हो तो लड़की को एक दिन यहां भेज दीजिए। मैं उसकी तुलना कुछ अन्य लड़कियों से जो मुझ से विवाह की उम्मीदवार हैं, करना चाहता हूं। बस मेरा यही कहना है। अब आप जा सकते हैं।
‘बनारसी दास जी ने यह कथा सुनाकर मुझे उलाहना दिया कि मैंने अपने लड़के को सभ्यता पूर्वक बात करने का ढंग भी नहीं सिखाया। मुझे यह सब बात सुन बड़ी लज्जा अनुभव हुई है और मैं समझता हूँ कि मुझसे अधिक दोष तुम्हारा है।’ साधना ने सहज स्वभाव उत्तर दे दिया, ‘बच्चे पांच वर्ष की वयस तक मेरी देख-रेख में रहे हैं। इसके उपरान्त वे अपने कालेजों के मास्टरों की देख-रेख में शिक्षा ग्रहण करते रहे हैं और अब दो वर्ष से नरेश आपकी देख-रेख में है। इस कारण नरेश के कामों का उत्तरदायित्व मैं अपना नहीं समझती।’                 

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