विविध उपन्यास >> आवरण आवरणगुरुदत्त
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एक सामाजिक उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
आधार-भूमि
जैसे वस्त्र शरीर का आवरण है अथवा शरीर आत्मा का आवरण है, इसी प्रकार
विचार तथा भावनाओं का आवरण भी होता है। वस्त्र की रक्षा करने में कोई भी
व्यक्ति शरीर को हानि नहीं पहुँचाएगा, न ही शरीर के लिए कोई आत्मा का हनन
करना चाहेगा। इसी प्रकार विचारों में आवरण गौण और भीतर का संरक्षित भाव
मुख्य माना जाना चाहिए।
कठिनाई वहाँ पड़ती है, जहाँ कोई आत्मा का अस्तित्व माने ही नहीं। ऐसे व्यक्ति के लिए शरीर ही सब कुछ होता है। अथवा कभी कोई शरीर को हेय और आवरण को मुख्य मानने लगे। इस अवस्था में आवरण उपयुक्त न होने पर मृत्यु तक हो सकती है।
ऐसी ही परिस्थिति विचारों, भावनाओं इत्यादि में भी हो जाती है। सिद्धान्तों को गौण मान, रीति-रिवाज, जो सिद्धान्तों के आवरण मात्र होते हैं, को मुख्य मानने वाले भी संसार में विद्यमान् हैं और उसके लिए लड़ मरते हैं।
मनुष्य तो प्रायः सब एक समान होते हैं, परन्तु भिन्न-भिन्न आवरणों में भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हैं। एक गौरवर्णीय हिन्दुस्तानी यूरोपियन पहिरावे में युरोपियन प्रतीत होने लगता है, इसी प्रकाश केश और दाढ़ी रखने से कोई सिख प्रतीत होने लगता है और सुन्नत इत्यादि चिह्न बनाने से मुसलमान।
कभी रीति-रिवाज की इतनी महिमा हो जाती है कि इसके आवरण में सिद्धांतात्मक विचार और भाव लुप्तप्राय हो जाते हैं। उदाहरण के रूप में देवता का स्वरूप हनुमान्-सरीखा होना चाहिए अथवा गणेश जैसा ? राधा-कृष्ण की मूर्ति उपास्य हो अथवा शिव की ? ये विवाद हैं आवरण के। इन विवादों में भगवान् की पूजा तथा उपासना गौण हो जाती है और मूर्ति की रूपरेखा मुख्य बन जाती है।
एक व्यक्ति सन्ध्योपासना पूर्वाभिमुख बैठकर करता है, कोई दूसरा नमाज़ पश्चिमाभिमुख हो करता है। ये पूर्व-पश्चिम सर्वथा गौण हैं। इस पर कभी-कभी विचारशील व्यक्ति भी इस बाहरी बात को मुख्य मानकर परस्पर झगड़ पड़ते हैं।
आर्य समाज जैसी संस्था भी, जो अपने को बु्द्धिशील व्यक्तियों का समूह मानती है, हवन करते समय धोती पहननी चाहिए, पर बहुत बल देती है।
इसी प्रकार राजनीति और आर्थिक विधि-विधान में भी मनुष्य तत्त्व को छोड़ रीति-रिवाज अथवा विधि-विधान पर बल देने लगते हैं। राज्य-कार्य में देशवासियों की रक्षा और जनता की सुख-सुविधा ही तथ्य की बात है। इस तथ्य की प्राप्ति के अनेक उपाय हो सकते हैं, परंतु जब कोई राज्य अथवा राजनीतिक दल यह कहे कि उससे प्रतिपादित उपाय ही ठीक है और अन्य उपायों पर विचार भी नहीं करना, तो यही कहा जा सकता है कि तथ्य को छोड़ वे आवरण पर मुग्ध हो रहे हैं।
आजकल के मानव की स्थिति देख किसी भी पन्थ, समुदाय और विचारधारा का उदाहरण लिया जा सकता है, परन्तु उस पन्थ, समुदाय इत्यादि के विरोध का आशय नहीं है। यह कल्पना की गई है, जो आवरण को छोड़ तथ्य को पहचानते हैं। अतएव यहाँ किसी पन्थ, समुदाय अथवा विचारधारा का विरोध करना उद्देश्य नहीं परन्तु उस प्रवृत्ति का, जिससे लोग तथ्य को भूल बाहरी आवरण पर लड़ने-झगड़ने लगते हैं, दिग्दर्शन-मात्र ही मुख्य उद्देश्य है।
मानव सब समान हैं और उनका उद्देश्य एक है, परन्तु पथ न्यारे-न्यारे हैं। पंथों का विवाद उद्देश्यों में भिन्नता के कारण ही होना चाहिए। उद्देश्य एक होने पर भिन्न-भिन्न पन्थ रीति-रिवाजों से झगड़े का कारण नहीं होने चाहिएँ।
प्रान्तीयता अथवा जातीयता एक जन-समूह की उन्नति के लक्ष्य से निर्मित हुए हैं, न कि मनुष्य-मनुष्य में घृणा उत्पन्न करने के लिए। ये सीमाएँ मानव-हित में बनी हैं, मानव की हत्या करने के लिए नहीं। जैसे कपड़े शरीर की रक्षा के लिए होते हैं, वैसे ही प्रान्तीयता अथवा जातीयता मानवता की रक्षा के लिए है।
इसी प्रकार किसी समाज में, सबका सुखपूर्वक रहना उद्देश्य है और समाज में व्यक्तिगत स्वातन्त्रता तथा इसकी सीमा निर्धारित करना पन्थ है। सामाजवादी ढ़ाचा हो अथवा व्यक्तिगत उद्योग अथवा यत्न हो, ये उद्देश्य प्राप्ति में साधन हैं। साधन आवश्यक होते हुए भी जनता की सुविधा की तुलना में गौण हैं।
सरमायादारी से ही जनता का कल्याण हो सकता है अथवा समाजवादी ढाँचे से ही ऐसा होगा, ऐसा मानना यह मानने के तुल्य है कि धोती पहनकर ही यज्ञ पर बैठने से यज्ञ सफल होगा अथवा दाढ़ी मूँछ रखने से ही कोई पन्थ चल सकेगा।
तथ्य अथवा आडम्बर, शरीर अथवा आवरण, उद्देश्य अथवा विधि-विधान ‘आवरण’ पुस्तक का विषय है। इस विषय को एक कथानक में गूँथने का यत्न किया गया है।
पुस्तक उपन्यास है। पात्रादि सब काल्पनिक हैं। किसी व्यक्ति अथवा समुदाय के विरोध अथवा मान-अपमान से इसका सम्बन्ध नहीं। उक्त विषय की विवेचना ही इसका उद्देश्य है।
शेष पाठकों के अपने पढ़ने और समझने की बात है।
कठिनाई वहाँ पड़ती है, जहाँ कोई आत्मा का अस्तित्व माने ही नहीं। ऐसे व्यक्ति के लिए शरीर ही सब कुछ होता है। अथवा कभी कोई शरीर को हेय और आवरण को मुख्य मानने लगे। इस अवस्था में आवरण उपयुक्त न होने पर मृत्यु तक हो सकती है।
ऐसी ही परिस्थिति विचारों, भावनाओं इत्यादि में भी हो जाती है। सिद्धान्तों को गौण मान, रीति-रिवाज, जो सिद्धान्तों के आवरण मात्र होते हैं, को मुख्य मानने वाले भी संसार में विद्यमान् हैं और उसके लिए लड़ मरते हैं।
मनुष्य तो प्रायः सब एक समान होते हैं, परन्तु भिन्न-भिन्न आवरणों में भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हैं। एक गौरवर्णीय हिन्दुस्तानी यूरोपियन पहिरावे में युरोपियन प्रतीत होने लगता है, इसी प्रकाश केश और दाढ़ी रखने से कोई सिख प्रतीत होने लगता है और सुन्नत इत्यादि चिह्न बनाने से मुसलमान।
कभी रीति-रिवाज की इतनी महिमा हो जाती है कि इसके आवरण में सिद्धांतात्मक विचार और भाव लुप्तप्राय हो जाते हैं। उदाहरण के रूप में देवता का स्वरूप हनुमान्-सरीखा होना चाहिए अथवा गणेश जैसा ? राधा-कृष्ण की मूर्ति उपास्य हो अथवा शिव की ? ये विवाद हैं आवरण के। इन विवादों में भगवान् की पूजा तथा उपासना गौण हो जाती है और मूर्ति की रूपरेखा मुख्य बन जाती है।
एक व्यक्ति सन्ध्योपासना पूर्वाभिमुख बैठकर करता है, कोई दूसरा नमाज़ पश्चिमाभिमुख हो करता है। ये पूर्व-पश्चिम सर्वथा गौण हैं। इस पर कभी-कभी विचारशील व्यक्ति भी इस बाहरी बात को मुख्य मानकर परस्पर झगड़ पड़ते हैं।
आर्य समाज जैसी संस्था भी, जो अपने को बु्द्धिशील व्यक्तियों का समूह मानती है, हवन करते समय धोती पहननी चाहिए, पर बहुत बल देती है।
इसी प्रकार राजनीति और आर्थिक विधि-विधान में भी मनुष्य तत्त्व को छोड़ रीति-रिवाज अथवा विधि-विधान पर बल देने लगते हैं। राज्य-कार्य में देशवासियों की रक्षा और जनता की सुख-सुविधा ही तथ्य की बात है। इस तथ्य की प्राप्ति के अनेक उपाय हो सकते हैं, परंतु जब कोई राज्य अथवा राजनीतिक दल यह कहे कि उससे प्रतिपादित उपाय ही ठीक है और अन्य उपायों पर विचार भी नहीं करना, तो यही कहा जा सकता है कि तथ्य को छोड़ वे आवरण पर मुग्ध हो रहे हैं।
आजकल के मानव की स्थिति देख किसी भी पन्थ, समुदाय और विचारधारा का उदाहरण लिया जा सकता है, परन्तु उस पन्थ, समुदाय इत्यादि के विरोध का आशय नहीं है। यह कल्पना की गई है, जो आवरण को छोड़ तथ्य को पहचानते हैं। अतएव यहाँ किसी पन्थ, समुदाय अथवा विचारधारा का विरोध करना उद्देश्य नहीं परन्तु उस प्रवृत्ति का, जिससे लोग तथ्य को भूल बाहरी आवरण पर लड़ने-झगड़ने लगते हैं, दिग्दर्शन-मात्र ही मुख्य उद्देश्य है।
मानव सब समान हैं और उनका उद्देश्य एक है, परन्तु पथ न्यारे-न्यारे हैं। पंथों का विवाद उद्देश्यों में भिन्नता के कारण ही होना चाहिए। उद्देश्य एक होने पर भिन्न-भिन्न पन्थ रीति-रिवाजों से झगड़े का कारण नहीं होने चाहिएँ।
प्रान्तीयता अथवा जातीयता एक जन-समूह की उन्नति के लक्ष्य से निर्मित हुए हैं, न कि मनुष्य-मनुष्य में घृणा उत्पन्न करने के लिए। ये सीमाएँ मानव-हित में बनी हैं, मानव की हत्या करने के लिए नहीं। जैसे कपड़े शरीर की रक्षा के लिए होते हैं, वैसे ही प्रान्तीयता अथवा जातीयता मानवता की रक्षा के लिए है।
इसी प्रकार किसी समाज में, सबका सुखपूर्वक रहना उद्देश्य है और समाज में व्यक्तिगत स्वातन्त्रता तथा इसकी सीमा निर्धारित करना पन्थ है। सामाजवादी ढ़ाचा हो अथवा व्यक्तिगत उद्योग अथवा यत्न हो, ये उद्देश्य प्राप्ति में साधन हैं। साधन आवश्यक होते हुए भी जनता की सुविधा की तुलना में गौण हैं।
सरमायादारी से ही जनता का कल्याण हो सकता है अथवा समाजवादी ढाँचे से ही ऐसा होगा, ऐसा मानना यह मानने के तुल्य है कि धोती पहनकर ही यज्ञ पर बैठने से यज्ञ सफल होगा अथवा दाढ़ी मूँछ रखने से ही कोई पन्थ चल सकेगा।
तथ्य अथवा आडम्बर, शरीर अथवा आवरण, उद्देश्य अथवा विधि-विधान ‘आवरण’ पुस्तक का विषय है। इस विषय को एक कथानक में गूँथने का यत्न किया गया है।
पुस्तक उपन्यास है। पात्रादि सब काल्पनिक हैं। किसी व्यक्ति अथवा समुदाय के विरोध अथवा मान-अपमान से इसका सम्बन्ध नहीं। उक्त विषय की विवेचना ही इसका उद्देश्य है।
शेष पाठकों के अपने पढ़ने और समझने की बात है।
गुरूदत्त
एक
:1:
लखनऊ के मेडिकल कॉलेज की पाँचवी श्रेणी में हरभजनसिंह एक पंजाबी युवक
पढ़ता था। पढ़ाई में अच्छा था। क्रियात्मक चीड़-फाड़ में नम्बर एक, कपड़े
पहनने में सर्वथा मॉडर्न और शरीर का हृष्ट-पुष्ट, पौने छः फुट लम्बा और
श्रेणी के सब विद्यार्थियों में से सिर निकालता हुआ।
आज गुरुपर्व था। आदिगुरु श्री गुरुनानक देव का जन्म-दिवस था। लखनऊ के बाज़ारों में श्री गुरु ग्रन्थ साहब की सवारी घूम रही थी और नगर-भर के सिख सवारी के साथ-साथ मण्डलियाँ बनाकर चल रहे थे। प्रेम, श्रद्धा और भक्ति का स्रोत बह रहा था। सहस्रों की संख्या में सिख नर-नारि, भक्ति-भाव के गीत गाते हुए सवारी के आगे-पीछे थे।
एक मोटर-ट्रक पर तख्तपोश, दरी, कालीन और चौकी, उस पर रेशमी गद्दा, गद्दे पर चन्दन की लकड़ी की बरागन, जिस पर श्री गुरु ग्रन्थ साहब खुला रखा था। यह गुलाबी रंग की रेशमी ज़रीदार चादर से ढँपा हुआ था। ऊपर पुष्प-मालाएँ चढ़ी थीं। गुरु ग्रन्थ साहब के पीछे सरदार वढ़ियामसिंह, लखनऊ के प्रसिद्ध ठेकेदार, हाथ में चँवर लिये बैठे थे। वे थोड़ी-थोड़ी देर के पश्चात् दरबार साहब पर चँवर झुला रहे थे। यह इस कारण नहीं था कि उस समय वहाँ मक्खियाँ थीं, जिनको इस पवित्र पुस्तक पर से हटाना था, यह एक पवित्र ग्रंथ के केवल आदर का प्रतीक ही था।
ऐसे अवसर पर श्री गुरु गन्थ साहब पर चँवर झुलाना एक अति मानयुक्त कार्य माना जाता था और यह मानयुक्त सेवा करने के लिए बड़े-बडे़ धनी-मानी लालायित रहते थे। इस पदवी को पाने के लिए लोग हज़ारों रुपए देने के लिए तैयार थे। इस वर्ष सरदार वढ़ियामसिंह ने सवारी में यह सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त करने के लिए सरक्युलर रोड पर बने गुरुद्वारे के लिए दस हज़ार रुपया दिया था।
हरभजनसिंह सरदार वढ़ियामसिंह का लड़का था। आज डॉक्टर खन्ना ने उसको और उसके साथियों को एक ऑपरेशन दिखाने के लिए बुलाया हुआ था। ऑपरेशन अपैण्डेसाइट्स का था। पाँच विद्यार्थी, तीन नर्सें और दो डॉक्टर इस समय उपस्थित थे।
रोगी को मांस में एक-दो बार असह्या वेदना होती थी और डॉक्टरों की सम्मति थी कि ऑपरेशन होना चाहिए। रोगी मान गया था।
डॉक्टर खन्ना ने क्लोरोफॉर्म देने के पश्चात् विद्यार्थियों को, जो मुख पर श्वेत पट्टियाँ बाँधे हुए थे, एक छोटा-सा व्याख्यान दे दिया। तदनन्तर पेट चीर डाला आँतों को एक ओर कर डॉक्टर ने अपैण्डेसाइट्स कला दिखाई और खट से काटकर बाहर चिलमची में रख दी।
इसके पश्चात् घाव को सीकर आँतों को ठीक स्थान पर रखकर बाहर से पेट को सी दिया। आधे घण्टे में चीरे के काम से निवृत्त होकर सब लोग अवकाश पा गए। अचेत रोगी को नर्सें गाड़ी में रखकर ऑपरेशन थियेटर से बाहर ले गईं।
डॉक्टर और विद्यार्थियों ने मुख से पट्टियाँ खोलीं, अपने ऐपरॉन उतारे, हाथ धोए और इधर-उधर की बातें करते हुए बाहर निकल आए। विद्यार्थियों में तीन लड़के और दो लड़कियाँ थीं। जब डॉक्टर खन्ना अपनी मोटर में सवार हो चला तो विद्यार्थियों ने भी एक-दूसरे से छुट्टी ली। हरभजनसिंह जाने लगा तो एक लड़की ने पूछ लिया, ‘‘आप किधर जा रहे हैं ?’’
‘‘शहर, अमीनाबाद पार्क की ओर। गुरु ग्रन्थ साहब की सवारी देखने का विचार है।’’
लड़की हँस पड़ी और बोली, ‘‘अच्छा, बाई-बाई।’’ वह हज़रतगंज को जाने के लिए एक रिक्शा वाले से बात करने लगी।
‘‘नीलादेवी, हँसी क्यों हैं ?’’
‘‘कुछ नहीं, आप जाइए।’’ इतना कह वह मुस्कराई और रिक्शे वाले से बोली, ‘‘क्या लोगे ?’’
‘‘छः आने सरकार !’’
‘‘चलो।’’ यह कह वह लपककर रिक्शे पर चढ़ गई। हरभजन सिंह अपनी बाइसिकल पर सवार हो रिक्शे के साथ-साथ जाता हुआ पूछने लगा, ‘‘कुछ तो बात है, नीलादेवी !’’
नीला हँसी और कहने लगी, ‘‘मुझे उस दिन की बात याद आ गई थी, जब मैं हनुमानजी को प्रसाद चढ़ाने जा रही थी और आपने देख लिया था। आपने कहा था, एक डॉक्टर को मिट्टी के लोंदे पर पुष्प-पत्र चढ़ाते हुए लज्जा आनी चाहिए।’’
‘‘परन्तु आज वह बात क्यों स्मरण आ गई है ?’’
‘‘सवारी जो देखने जा रहे हैं आप ?’’
‘‘तो क्या यह भी लज्जा की बात है ?’’
‘‘पढ़े-लिखे व्यक्ति को तो स्वयं समझ जाना चाहिए।’’
हरभजनसिंह हँस पड़ा। रिक्शा चलता गया और हरभजनसिंह की बाइसिकल उसके साथ-साथ थी। कुछ काल तक चुप रहने के पश्चात् हरभजनसिंह ने पूछा, ‘‘क्या समझ की बातें पुरुषों के लिए ही होती हैं और स्त्रियों ने इनसे फारख़ती ली हुई है ?’’
‘‘आप स्त्रियों की चिन्ता क्यों किया करते हैं ? वे तो अक्ल से फारख़ती लेती हैं और उस पर दखल भी कर लेती हैं। पुरुषों में विचारों की लचक नहीं होती। जब एक बार वह अक्ल को फारख़ती देते हैं तो फिर अक्ल की बात कर ही नहीं सकते।’’
‘‘यही तो बात है कि वे कभी अक्ल से सम्बन्ध-विच्छेद करते ही नहीं।’’
‘‘कदाचित् उनका कभी अक्ल में दखल हुआ ही नहीं।’’
इसके पश्चात् फिर दोनों चुप हो गए। रिक्शा चलता गया। हरभजनसिंह बाइसिकल पर साथ-साथ था। कुछ देर तक विचारकर उसने कहा, ‘‘नीलादेवी, आज क्या है, जो जली-कटी सुना रही हो ?’’
‘‘कभी ज़ुबान खराब होने पर फीकी वस्तु भी मिर्च की भाँति लगने लगती है। कुछ ऐसे ही मेरी साधारण-सी बात का आपको अनुभव हो रहा है।
‘‘देखिए, आपने कहा था कि मिट्टी के लोंदे पर फूल चढ़ाना एक लज्जा की बात है। मैंने आपसे एक पुस्तक की सवारी पर पुष्प चढ़ाने की बात कही तो आपको मेरी अक्ल से फारख़ती प्रतीत होने लगी। मैंने कहा कि पुरूषों का तो अक्ल में दखल होता ही नहीं तो यह आपको जली-कटी प्रतीत होने लगी। ऐसी अवस्था में बिगड़ी ज़ुबान के स्वाद की ही उपमा तो दी जा सकती है।’’
‘‘इसका अर्थ यह हुआ कि आप तो बहुत ही मधुर भाषण कर रही थीं, परन्तु मेरे मन की अवस्था ही बिगड़ी है, जिससे यह मुझको कड़वा प्रतीत हो रहा है।’’
‘‘कुछ ऐसा ही समझ में आ रहा है।’’
हरभजनसिंह को इस समय तो समझ नहीं आया कि नीला क्या कह रही है। वह क्रोधवश चुपचाप बाइसिकल चलाता गया। गोमती रोड से केसरबाग को रास्ता घूमा तो मोड़ पर नीला ने रिक्शा खड़ा करा लिया। नीला उतर पड़ी। हरभजनसिंह को अपने विचारों की धुन में पता नहीं चला कि नीला पीछे रह गई है। कुछ दूर जाने पर उसको विदित हुआ कि रिक्शा उसके साथ नहीं है। उसने घूमकर देखा, नीला रिक्शे से उतर रिक्शेवाले को पैसे दे रही थी। उसने बाइसिकल घुमा दी और नीला के पास पहुँच, बाइसिकल पर बैठे-बैठे, एक पाँव ज़मीन से लगाकर खड़े हो, पूछा, ‘‘यहाँ कहाँ जा रही हैं ?’’
‘‘माधुरी को तो आप जानते हैं, उससे मिलने जा रही हूँ।’’
‘‘उससे अथवा उसके भाई से ?’’
‘‘भाई आज यहाँ नहीं हैं। वे कलकत्ता गए हैं।’’
‘‘ओह ! तो उसके विषय में जानने जा रही हैं ?’’
‘‘उनके विषय में तो मुझको पता है। माधुरी कल बीमार थी, उसके विषय में जानने आई हूँ।’’
हरभजनसिंह के कटाक्ष व्यर्थ गए। वे न तो नीला को क्रुद्ध कर सके, न ही उनसे उसको घबराहट हुई। उसने साधारण रूप में उत्तर दिया और ‘बाई-बाई’ कहकर मकान में चली गई। हरभजनसिंह उसको जाते देखता रहा।
आज गुरुपर्व था। आदिगुरु श्री गुरुनानक देव का जन्म-दिवस था। लखनऊ के बाज़ारों में श्री गुरु ग्रन्थ साहब की सवारी घूम रही थी और नगर-भर के सिख सवारी के साथ-साथ मण्डलियाँ बनाकर चल रहे थे। प्रेम, श्रद्धा और भक्ति का स्रोत बह रहा था। सहस्रों की संख्या में सिख नर-नारि, भक्ति-भाव के गीत गाते हुए सवारी के आगे-पीछे थे।
एक मोटर-ट्रक पर तख्तपोश, दरी, कालीन और चौकी, उस पर रेशमी गद्दा, गद्दे पर चन्दन की लकड़ी की बरागन, जिस पर श्री गुरु ग्रन्थ साहब खुला रखा था। यह गुलाबी रंग की रेशमी ज़रीदार चादर से ढँपा हुआ था। ऊपर पुष्प-मालाएँ चढ़ी थीं। गुरु ग्रन्थ साहब के पीछे सरदार वढ़ियामसिंह, लखनऊ के प्रसिद्ध ठेकेदार, हाथ में चँवर लिये बैठे थे। वे थोड़ी-थोड़ी देर के पश्चात् दरबार साहब पर चँवर झुला रहे थे। यह इस कारण नहीं था कि उस समय वहाँ मक्खियाँ थीं, जिनको इस पवित्र पुस्तक पर से हटाना था, यह एक पवित्र ग्रंथ के केवल आदर का प्रतीक ही था।
ऐसे अवसर पर श्री गुरु गन्थ साहब पर चँवर झुलाना एक अति मानयुक्त कार्य माना जाता था और यह मानयुक्त सेवा करने के लिए बड़े-बडे़ धनी-मानी लालायित रहते थे। इस पदवी को पाने के लिए लोग हज़ारों रुपए देने के लिए तैयार थे। इस वर्ष सरदार वढ़ियामसिंह ने सवारी में यह सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त करने के लिए सरक्युलर रोड पर बने गुरुद्वारे के लिए दस हज़ार रुपया दिया था।
हरभजनसिंह सरदार वढ़ियामसिंह का लड़का था। आज डॉक्टर खन्ना ने उसको और उसके साथियों को एक ऑपरेशन दिखाने के लिए बुलाया हुआ था। ऑपरेशन अपैण्डेसाइट्स का था। पाँच विद्यार्थी, तीन नर्सें और दो डॉक्टर इस समय उपस्थित थे।
रोगी को मांस में एक-दो बार असह्या वेदना होती थी और डॉक्टरों की सम्मति थी कि ऑपरेशन होना चाहिए। रोगी मान गया था।
डॉक्टर खन्ना ने क्लोरोफॉर्म देने के पश्चात् विद्यार्थियों को, जो मुख पर श्वेत पट्टियाँ बाँधे हुए थे, एक छोटा-सा व्याख्यान दे दिया। तदनन्तर पेट चीर डाला आँतों को एक ओर कर डॉक्टर ने अपैण्डेसाइट्स कला दिखाई और खट से काटकर बाहर चिलमची में रख दी।
इसके पश्चात् घाव को सीकर आँतों को ठीक स्थान पर रखकर बाहर से पेट को सी दिया। आधे घण्टे में चीरे के काम से निवृत्त होकर सब लोग अवकाश पा गए। अचेत रोगी को नर्सें गाड़ी में रखकर ऑपरेशन थियेटर से बाहर ले गईं।
डॉक्टर और विद्यार्थियों ने मुख से पट्टियाँ खोलीं, अपने ऐपरॉन उतारे, हाथ धोए और इधर-उधर की बातें करते हुए बाहर निकल आए। विद्यार्थियों में तीन लड़के और दो लड़कियाँ थीं। जब डॉक्टर खन्ना अपनी मोटर में सवार हो चला तो विद्यार्थियों ने भी एक-दूसरे से छुट्टी ली। हरभजनसिंह जाने लगा तो एक लड़की ने पूछ लिया, ‘‘आप किधर जा रहे हैं ?’’
‘‘शहर, अमीनाबाद पार्क की ओर। गुरु ग्रन्थ साहब की सवारी देखने का विचार है।’’
लड़की हँस पड़ी और बोली, ‘‘अच्छा, बाई-बाई।’’ वह हज़रतगंज को जाने के लिए एक रिक्शा वाले से बात करने लगी।
‘‘नीलादेवी, हँसी क्यों हैं ?’’
‘‘कुछ नहीं, आप जाइए।’’ इतना कह वह मुस्कराई और रिक्शे वाले से बोली, ‘‘क्या लोगे ?’’
‘‘छः आने सरकार !’’
‘‘चलो।’’ यह कह वह लपककर रिक्शे पर चढ़ गई। हरभजन सिंह अपनी बाइसिकल पर सवार हो रिक्शे के साथ-साथ जाता हुआ पूछने लगा, ‘‘कुछ तो बात है, नीलादेवी !’’
नीला हँसी और कहने लगी, ‘‘मुझे उस दिन की बात याद आ गई थी, जब मैं हनुमानजी को प्रसाद चढ़ाने जा रही थी और आपने देख लिया था। आपने कहा था, एक डॉक्टर को मिट्टी के लोंदे पर पुष्प-पत्र चढ़ाते हुए लज्जा आनी चाहिए।’’
‘‘परन्तु आज वह बात क्यों स्मरण आ गई है ?’’
‘‘सवारी जो देखने जा रहे हैं आप ?’’
‘‘तो क्या यह भी लज्जा की बात है ?’’
‘‘पढ़े-लिखे व्यक्ति को तो स्वयं समझ जाना चाहिए।’’
हरभजनसिंह हँस पड़ा। रिक्शा चलता गया और हरभजनसिंह की बाइसिकल उसके साथ-साथ थी। कुछ काल तक चुप रहने के पश्चात् हरभजनसिंह ने पूछा, ‘‘क्या समझ की बातें पुरुषों के लिए ही होती हैं और स्त्रियों ने इनसे फारख़ती ली हुई है ?’’
‘‘आप स्त्रियों की चिन्ता क्यों किया करते हैं ? वे तो अक्ल से फारख़ती लेती हैं और उस पर दखल भी कर लेती हैं। पुरुषों में विचारों की लचक नहीं होती। जब एक बार वह अक्ल को फारख़ती देते हैं तो फिर अक्ल की बात कर ही नहीं सकते।’’
‘‘यही तो बात है कि वे कभी अक्ल से सम्बन्ध-विच्छेद करते ही नहीं।’’
‘‘कदाचित् उनका कभी अक्ल में दखल हुआ ही नहीं।’’
इसके पश्चात् फिर दोनों चुप हो गए। रिक्शा चलता गया। हरभजनसिंह बाइसिकल पर साथ-साथ था। कुछ देर तक विचारकर उसने कहा, ‘‘नीलादेवी, आज क्या है, जो जली-कटी सुना रही हो ?’’
‘‘कभी ज़ुबान खराब होने पर फीकी वस्तु भी मिर्च की भाँति लगने लगती है। कुछ ऐसे ही मेरी साधारण-सी बात का आपको अनुभव हो रहा है।
‘‘देखिए, आपने कहा था कि मिट्टी के लोंदे पर फूल चढ़ाना एक लज्जा की बात है। मैंने आपसे एक पुस्तक की सवारी पर पुष्प चढ़ाने की बात कही तो आपको मेरी अक्ल से फारख़ती प्रतीत होने लगी। मैंने कहा कि पुरूषों का तो अक्ल में दखल होता ही नहीं तो यह आपको जली-कटी प्रतीत होने लगी। ऐसी अवस्था में बिगड़ी ज़ुबान के स्वाद की ही उपमा तो दी जा सकती है।’’
‘‘इसका अर्थ यह हुआ कि आप तो बहुत ही मधुर भाषण कर रही थीं, परन्तु मेरे मन की अवस्था ही बिगड़ी है, जिससे यह मुझको कड़वा प्रतीत हो रहा है।’’
‘‘कुछ ऐसा ही समझ में आ रहा है।’’
हरभजनसिंह को इस समय तो समझ नहीं आया कि नीला क्या कह रही है। वह क्रोधवश चुपचाप बाइसिकल चलाता गया। गोमती रोड से केसरबाग को रास्ता घूमा तो मोड़ पर नीला ने रिक्शा खड़ा करा लिया। नीला उतर पड़ी। हरभजनसिंह को अपने विचारों की धुन में पता नहीं चला कि नीला पीछे रह गई है। कुछ दूर जाने पर उसको विदित हुआ कि रिक्शा उसके साथ नहीं है। उसने घूमकर देखा, नीला रिक्शे से उतर रिक्शेवाले को पैसे दे रही थी। उसने बाइसिकल घुमा दी और नीला के पास पहुँच, बाइसिकल पर बैठे-बैठे, एक पाँव ज़मीन से लगाकर खड़े हो, पूछा, ‘‘यहाँ कहाँ जा रही हैं ?’’
‘‘माधुरी को तो आप जानते हैं, उससे मिलने जा रही हूँ।’’
‘‘उससे अथवा उसके भाई से ?’’
‘‘भाई आज यहाँ नहीं हैं। वे कलकत्ता गए हैं।’’
‘‘ओह ! तो उसके विषय में जानने जा रही हैं ?’’
‘‘उनके विषय में तो मुझको पता है। माधुरी कल बीमार थी, उसके विषय में जानने आई हूँ।’’
हरभजनसिंह के कटाक्ष व्यर्थ गए। वे न तो नीला को क्रुद्ध कर सके, न ही उनसे उसको घबराहट हुई। उसने साधारण रूप में उत्तर दिया और ‘बाई-बाई’ कहकर मकान में चली गई। हरभजनसिंह उसको जाते देखता रहा।
:2:
नीलमणि डॉक्टर राधाकृष्ण सक्सेना की लड़की थी। डॉक्टर सक्सेना प्रभुदयाल,
माधुरी के पिता, मित्र थे। प्रभुदयाल बैरिस्टर थे। डॉक्टर साहब और
बैरिस्टर का परस्पर आना-जाना था। इससे लड़कियों का आना-जाना बना था।
राधाकृष्ण का मकान तो अमीनाबाद पार्क के किनारे पर था और प्रभुदयाल का घर
केसरबाग के चौराहे पर। डॉक्टर सक्सेना तो कई पीढ़ियों से लखनऊ में रहते
थे, परंतु प्रभुदयाल पंजाब जिला लुधियाना के रहने वाले थे। प्रभुदयाल के
पिता ने लखनऊ में ठेकेदारी का काम आरम्भ किया था और उससे लाखों रुपए कमाए
थे। उसी कमाई के आश्रय प्रभुदयाल विलायत से बैरिस्टर बन आया था।
प्रभुदयाल की अपनी प्रैक्टिस भी अच्छी-खासी थी और जीवन अति सुलभ हो रहा था। पंजाबी होने से सिख मत की छाप लिये हुए था। साथ ही विलायत में पाँच वर्ष तक रह आने से विचार-स्वतंत्रता उसके जीवन का एक अंग बन चुकी थी।
श्री गुरु नानकजी के जन्मदिन के अवसर पर, गुरुद्वारा के लिए प्रभुदयाल ने एक हज़ार रुपया दान लिखाया था।
आज जब गुरु ग्रन्थ साहब की सवारी केसरबाग के चौराहे पर आई, तो प्रभुदयाल और उसके परिवार के लोग अपने मकान के छज्जे पर देखने आ खड़े हुए। प्रभुदयाल सिर से नंगा था। उसकी लड़की माधुरी और उसकी सहेली नीलमणि के सिर पर से कपड़ा उतरा हुआ था।
सवारी के साथ प्रायः सिख जनता ही थी। पहले कुछ मण्डलियाँ भजन गाती हुई जा रही थीं। दो-तीन मण्डलियाँ तो केवल स्त्रियों की ही थी।
अब गुरु ग्रन्थ साहब की सवारी प्रभुदयाल के मकान के नीचे से गु़जरी तो प्रभुदयाल, उसकी लड़कियाँ तथा समीप खड़े अन्य लोग, जिनमें बैरिस्टर साहब की माँ भी थीं, श्री ग्रन्थ साहब पर पुष्प-वर्षा करने लगे। प्रभुदयाल ने पवित्र पुस्तक पर दो-तीन मुट्ठी-भर पुष्प-पंखुड़ियाँ बरसाईं।
ग्रन्थ साहब के पीछे बैठे पुरुष ने, जो उस पर चँवर झुला रहा था, इनको सिर नंगा देख कहा, ‘‘सिर ढाँप लीजिए, सिर ढाँप लीजिए।’’
प्रभुदयाल विस्मय में उसकी ओर देखने लगा। उस व्यक्ति ने कहा, ‘‘सिर ढाँप लीजिए।’’
प्रभुदयाल अभी भी इसका अर्थ नहीं समझा। उसने फूलों के पटार में से मुट्ठी भरकर पुष्प फिर पवित्र ग्रन्थ साहब की ओर फेंके। इस समय सवारी के साथ जाने वाले लोगों ने ग्रन्थ साहब के पीछे बैठे आदमी की आवाज़ सुन ली और सब-के-सब प्रभुदयाल और लड़कियों को ‘‘सिर ढाँपो, सिर ढाँपो’’ कहने लगे।
प्रभुदयाल, जो इंग्लैण्ड में व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का मज़ा चख चुका था, इस प्रकार के व्यवहार से चकित रह गया। उसने हाथ के संकेत से लोगों से कहा कि वे चलते जाएँ ग्रन्थ साहब एक ऊँचे तख्तपोश पर चौकी रखकर और उस पर बरागन लगाकर रखा था। इस कारण ग्रन्थ साहब छज्जे की ऊँचाई पर ही था। ग्रन्थ साहब के पीछे बैठे पुरुष ने प्रभुदयाल के हाथ के संकेत करने पर की सवारी चलती जाय, श्री दरबान साहब का अपमान समझा।
इस पर उसने माथे पर त्योरी चढ़ाकर कहा, ‘‘तुम पीछे हट जाओ।’’
प्रभुदयाल हँस पड़ा। वह मन में विचार करता था कि वह अपने मकान के छज्जे में खड़ा है, इस कारण उसको आज्ञा देना न केवल अनुचित है, प्रत्युत उद्दण्डता भी है। इस पर वह कहनेवाला था कि वे लोग अपना काम करें और उसकी ओर ध्यान न दें, परन्तु इस समय नीचे से पत्थर उठाकर उसकी ओर दे मारा। पत्थर उसके कान को छूता हुआ छज्जे की छत से टकराकर पीछे खड़े हुओं में जा गिरा। प्रभुदयाल को इससे क्रोध चढ़ आया और बोला, ‘‘सवारी चलाओ।’’
इस पर तो पत्थरों की बौछार होने लगी। प्रभुदयाल का माथा फटा। नीलमणि की कनपटी पर गहरा घाव हो गया। माधुरी को भी चोटें आईं और कई अन्य वहाँ खड़े हुओं को भी चोटें आईं। प्रभुदयाल भागा हुआ भीतर गया और अपना पिस्तौल उठा लाया। इस समय तक छज्जों में सब लोग पीछे कमरे में हट आए थे। प्रभुदयाल को पिस्तौल लेकर छज्जे की ओर जाते देख नीलमणि ने उसका मार्ग रोक लिया। उसने कहा, ‘‘काका, यह ठीक नहीं। यहीं ठहरिए और सवारी निकल जाने दीजिए।’’
नीचे लोग जोश से भरे हुए मकान को आग लगा देने की आवाज़ें कसने लगे थे। इस समय हरभजनसिंह, जो सवारी के साथ-साथ था, लपककर ट्रक की छत पर चढ़ गया और कहने लगा, ‘‘खालसा वीरो ! गुरु महाराज का अपमान करने वाले सब भाग गए हैं। पंथ की विजय हुई है। अब और झगड़ा करने की आवश्यकता नहीं। इस कारण मेरा निवेदन है कि चलना चाहिए।’’
हरभजनसिंह नीला को प्रभुदयाल के मकान पर छोड़ बाइसिकल से अमीनाबाद पार्क की ओर सवारी के साथ होने के लिए चल पड़ा था। उसने बाइसिकल एक परिचित की दुकान पर रखी और स्वयं सवारी में सम्मिलित हो गया। वह उस ट्रक के, जिस पर दरबार साहब रखा था, साथ-साथ चल रहा था। उसका पिता ग्रन्थ साहब की सेवा के लिए ग्रन्थ साहब पर चँवर कर रहा था।
हरभजनसिंह ने पूर्ण झगड़ा, जो प्रभुदयाल के साथ हुआ था, देखा था। जब सवारी के लोग सीमा से बाहर हो मकान को आग लगाने की धमकी देने लगे तो उसने ट्रक पर चढ़कर, संगत को शान्त करने का यत्न किया। परन्तु किसी ने यह समझा कि हरभजनसिंह दरबार साहब का अपमान करने के लिए ट्रक पर चढ़ गया है। इससे उसको इतना क्रोध चढ़ आया कि वह हरभजन सिंह का कथन सुन और समझ नहीं सका। उस आदमी में इतना धैर्य भी नहीं रहा था कि वह देखे कि ट्रक पर चढ़ने वाला एक सिख युवक ही है। वह हरभजन सिंह के पीछे ट्रक के होमगार्ड पर चढ़ गया और उसने हरभजनसिंह का पाँव पकड़ कर उसे नीचे घसीट लिया।
हरभजनसिंह को स्वप्न में भी यह विचार नहीं आ सकता था कि उससे यह आशा की जाएगी कि वह दरबार साहब का अपमान कर सकता है। वह बेख़बर खड़ा था और जब उसका पाँव घसीटा गया तो वह लुढ़क कर नीचे गिर गया। वह गिरते-गरते बाँह के बल भूमि पर पड़ा और उसकी बाँह की मोच निकल गई। गिरते समय उसकी पगड़ी और केश खुल गए।
हरभजनसिंह के पिता ने यह कांड देखा तो डॉक्टर लोगों को कहा, ‘‘यह क्या कर रहे हो ? एक गुरु के प्यारे को किस लिए धकेला है। ?’’
बहुत कठिनाई से लोग शान्त हुए और सवारी आगे चली। यह शान्ति स्थापित करने में पुलिस ने कम-से-कम भाग लिया।
हरभजनसिंह अपनी पगड़ी ले जलूस से बाहर निकल आया। बाँह में मोच आने के कारण वह पगड़ी बाँध नहीं सका। अतएव वह पगड़ी बगल में दबाए, अपने मित्र की दुकान पर, जहां उसने अपने बाइसिकल रखी थी, चला आया। वहाँ उसने-अपने मित्र से ही रुमाल लेकर सिर पर बाँध लिया और ताँगें पर सवार हो, अपने मकान कैण्टोनमैण्ट रोड पर चला गया।
प्रभुदयाल की अपनी प्रैक्टिस भी अच्छी-खासी थी और जीवन अति सुलभ हो रहा था। पंजाबी होने से सिख मत की छाप लिये हुए था। साथ ही विलायत में पाँच वर्ष तक रह आने से विचार-स्वतंत्रता उसके जीवन का एक अंग बन चुकी थी।
श्री गुरु नानकजी के जन्मदिन के अवसर पर, गुरुद्वारा के लिए प्रभुदयाल ने एक हज़ार रुपया दान लिखाया था।
आज जब गुरु ग्रन्थ साहब की सवारी केसरबाग के चौराहे पर आई, तो प्रभुदयाल और उसके परिवार के लोग अपने मकान के छज्जे पर देखने आ खड़े हुए। प्रभुदयाल सिर से नंगा था। उसकी लड़की माधुरी और उसकी सहेली नीलमणि के सिर पर से कपड़ा उतरा हुआ था।
सवारी के साथ प्रायः सिख जनता ही थी। पहले कुछ मण्डलियाँ भजन गाती हुई जा रही थीं। दो-तीन मण्डलियाँ तो केवल स्त्रियों की ही थी।
अब गुरु ग्रन्थ साहब की सवारी प्रभुदयाल के मकान के नीचे से गु़जरी तो प्रभुदयाल, उसकी लड़कियाँ तथा समीप खड़े अन्य लोग, जिनमें बैरिस्टर साहब की माँ भी थीं, श्री ग्रन्थ साहब पर पुष्प-वर्षा करने लगे। प्रभुदयाल ने पवित्र पुस्तक पर दो-तीन मुट्ठी-भर पुष्प-पंखुड़ियाँ बरसाईं।
ग्रन्थ साहब के पीछे बैठे पुरुष ने, जो उस पर चँवर झुला रहा था, इनको सिर नंगा देख कहा, ‘‘सिर ढाँप लीजिए, सिर ढाँप लीजिए।’’
प्रभुदयाल विस्मय में उसकी ओर देखने लगा। उस व्यक्ति ने कहा, ‘‘सिर ढाँप लीजिए।’’
प्रभुदयाल अभी भी इसका अर्थ नहीं समझा। उसने फूलों के पटार में से मुट्ठी भरकर पुष्प फिर पवित्र ग्रन्थ साहब की ओर फेंके। इस समय सवारी के साथ जाने वाले लोगों ने ग्रन्थ साहब के पीछे बैठे आदमी की आवाज़ सुन ली और सब-के-सब प्रभुदयाल और लड़कियों को ‘‘सिर ढाँपो, सिर ढाँपो’’ कहने लगे।
प्रभुदयाल, जो इंग्लैण्ड में व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का मज़ा चख चुका था, इस प्रकार के व्यवहार से चकित रह गया। उसने हाथ के संकेत से लोगों से कहा कि वे चलते जाएँ ग्रन्थ साहब एक ऊँचे तख्तपोश पर चौकी रखकर और उस पर बरागन लगाकर रखा था। इस कारण ग्रन्थ साहब छज्जे की ऊँचाई पर ही था। ग्रन्थ साहब के पीछे बैठे पुरुष ने प्रभुदयाल के हाथ के संकेत करने पर की सवारी चलती जाय, श्री दरबान साहब का अपमान समझा।
इस पर उसने माथे पर त्योरी चढ़ाकर कहा, ‘‘तुम पीछे हट जाओ।’’
प्रभुदयाल हँस पड़ा। वह मन में विचार करता था कि वह अपने मकान के छज्जे में खड़ा है, इस कारण उसको आज्ञा देना न केवल अनुचित है, प्रत्युत उद्दण्डता भी है। इस पर वह कहनेवाला था कि वे लोग अपना काम करें और उसकी ओर ध्यान न दें, परन्तु इस समय नीचे से पत्थर उठाकर उसकी ओर दे मारा। पत्थर उसके कान को छूता हुआ छज्जे की छत से टकराकर पीछे खड़े हुओं में जा गिरा। प्रभुदयाल को इससे क्रोध चढ़ आया और बोला, ‘‘सवारी चलाओ।’’
इस पर तो पत्थरों की बौछार होने लगी। प्रभुदयाल का माथा फटा। नीलमणि की कनपटी पर गहरा घाव हो गया। माधुरी को भी चोटें आईं और कई अन्य वहाँ खड़े हुओं को भी चोटें आईं। प्रभुदयाल भागा हुआ भीतर गया और अपना पिस्तौल उठा लाया। इस समय तक छज्जों में सब लोग पीछे कमरे में हट आए थे। प्रभुदयाल को पिस्तौल लेकर छज्जे की ओर जाते देख नीलमणि ने उसका मार्ग रोक लिया। उसने कहा, ‘‘काका, यह ठीक नहीं। यहीं ठहरिए और सवारी निकल जाने दीजिए।’’
नीचे लोग जोश से भरे हुए मकान को आग लगा देने की आवाज़ें कसने लगे थे। इस समय हरभजनसिंह, जो सवारी के साथ-साथ था, लपककर ट्रक की छत पर चढ़ गया और कहने लगा, ‘‘खालसा वीरो ! गुरु महाराज का अपमान करने वाले सब भाग गए हैं। पंथ की विजय हुई है। अब और झगड़ा करने की आवश्यकता नहीं। इस कारण मेरा निवेदन है कि चलना चाहिए।’’
हरभजनसिंह नीला को प्रभुदयाल के मकान पर छोड़ बाइसिकल से अमीनाबाद पार्क की ओर सवारी के साथ होने के लिए चल पड़ा था। उसने बाइसिकल एक परिचित की दुकान पर रखी और स्वयं सवारी में सम्मिलित हो गया। वह उस ट्रक के, जिस पर दरबार साहब रखा था, साथ-साथ चल रहा था। उसका पिता ग्रन्थ साहब की सेवा के लिए ग्रन्थ साहब पर चँवर कर रहा था।
हरभजनसिंह ने पूर्ण झगड़ा, जो प्रभुदयाल के साथ हुआ था, देखा था। जब सवारी के लोग सीमा से बाहर हो मकान को आग लगाने की धमकी देने लगे तो उसने ट्रक पर चढ़कर, संगत को शान्त करने का यत्न किया। परन्तु किसी ने यह समझा कि हरभजनसिंह दरबार साहब का अपमान करने के लिए ट्रक पर चढ़ गया है। इससे उसको इतना क्रोध चढ़ आया कि वह हरभजन सिंह का कथन सुन और समझ नहीं सका। उस आदमी में इतना धैर्य भी नहीं रहा था कि वह देखे कि ट्रक पर चढ़ने वाला एक सिख युवक ही है। वह हरभजन सिंह के पीछे ट्रक के होमगार्ड पर चढ़ गया और उसने हरभजनसिंह का पाँव पकड़ कर उसे नीचे घसीट लिया।
हरभजनसिंह को स्वप्न में भी यह विचार नहीं आ सकता था कि उससे यह आशा की जाएगी कि वह दरबार साहब का अपमान कर सकता है। वह बेख़बर खड़ा था और जब उसका पाँव घसीटा गया तो वह लुढ़क कर नीचे गिर गया। वह गिरते-गरते बाँह के बल भूमि पर पड़ा और उसकी बाँह की मोच निकल गई। गिरते समय उसकी पगड़ी और केश खुल गए।
हरभजनसिंह के पिता ने यह कांड देखा तो डॉक्टर लोगों को कहा, ‘‘यह क्या कर रहे हो ? एक गुरु के प्यारे को किस लिए धकेला है। ?’’
बहुत कठिनाई से लोग शान्त हुए और सवारी आगे चली। यह शान्ति स्थापित करने में पुलिस ने कम-से-कम भाग लिया।
हरभजनसिंह अपनी पगड़ी ले जलूस से बाहर निकल आया। बाँह में मोच आने के कारण वह पगड़ी बाँध नहीं सका। अतएव वह पगड़ी बगल में दबाए, अपने मित्र की दुकान पर, जहां उसने अपने बाइसिकल रखी थी, चला आया। वहाँ उसने-अपने मित्र से ही रुमाल लेकर सिर पर बाँध लिया और ताँगें पर सवार हो, अपने मकान कैण्टोनमैण्ट रोड पर चला गया।
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