सामाजिक >> जीवन ज्वार जीवन ज्वारगुरुदत्त
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रोचक व प्रेरणाप्रद उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
जिस प्रकार समुद्र में ज्वार उठता है और कालान्तर में भाटा आता है। इस पर
भी यह सागर के वश की बात नहीं है कि वह उठते ज्वार को भाटे में या भाटे को
ज्वार में परिवर्तित कर सके।
उसी प्रकार कामनाओं का ज्वार जब जीवों में उठता है तो उसका विरोध भी प्रायः असम्भव हो जाता है। हाँ, मनुष्य में इस ज्वार का विरोध करने की शक्ति है। जिस प्रकार मनुष्य सागर के ज्वार व भाटे को नौका में बैठ कर झेलने में सक्षम है, उसी तरह वह अपने आत्म-बल द्वारा कामनाओं को वश में करने में भी सक्षम है।
भारतीय शास्त्रों में माना है कि मानव में दस इन्द्रियां और ग्यारहवां मन विद्यमान होते हैं। इन्द्रियां विषयों को ग्रहण करती हैं। परन्तु मन इन इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखता है।
लेखक श्री गुरुदत्त ही हैं जो ऐसे गूढ़ विषयों को सामाजिक उपन्यास के माध्यम से अत्यन्त ही रोचक शैली में प्रस्तुत करते हैं। यही कारण रहा है कि उपन्यासकार गुरुदत्त के पाठकों की निरन्तर मांग रहती है कि उनके सभी उपन्यास उपलब्ध रहने चाहियें।
निश्चित ही यह कृति अत्यन्त रोचक व प्रेरणाप्रद सिद्ध होगी। जो एक लेखक के अमर होने का प्रमाण है।
उसी प्रकार कामनाओं का ज्वार जब जीवों में उठता है तो उसका विरोध भी प्रायः असम्भव हो जाता है। हाँ, मनुष्य में इस ज्वार का विरोध करने की शक्ति है। जिस प्रकार मनुष्य सागर के ज्वार व भाटे को नौका में बैठ कर झेलने में सक्षम है, उसी तरह वह अपने आत्म-बल द्वारा कामनाओं को वश में करने में भी सक्षम है।
भारतीय शास्त्रों में माना है कि मानव में दस इन्द्रियां और ग्यारहवां मन विद्यमान होते हैं। इन्द्रियां विषयों को ग्रहण करती हैं। परन्तु मन इन इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखता है।
लेखक श्री गुरुदत्त ही हैं जो ऐसे गूढ़ विषयों को सामाजिक उपन्यास के माध्यम से अत्यन्त ही रोचक शैली में प्रस्तुत करते हैं। यही कारण रहा है कि उपन्यासकार गुरुदत्त के पाठकों की निरन्तर मांग रहती है कि उनके सभी उपन्यास उपलब्ध रहने चाहियें।
निश्चित ही यह कृति अत्यन्त रोचक व प्रेरणाप्रद सिद्ध होगी। जो एक लेखक के अमर होने का प्रमाण है।
भूमिका
यह बायौलाजी (प्राणी-शास्त्र) का सिद्धान्त है कि प्राणी पैदा होता है,
वृद्धि पाता है, सन्तान उत्पन्न करता है, बूढ़ा होता है और निकम्मा हो इस
संसार को छोड़ जाता है। यह सिद्धान्त सब जीव-जन्तुओं और वनस्पतियों में
समान है। इस पर भी मनुष्य इतर जीवन-जन्तुओं और वनस्पति-जगत से भिन्न है।
क्यों और किस बात में ? यही इस पुस्तक का विषय है।
समुद्र में ज्वार उठता है और कालान्तर में भाटा आता है। इस पर भी यह सागर के वश की बात नहीं है कि वह उठते ज्वार का विरोध कर सके अथवा भाटे में ज्वार ला सके।
कामान्ध प्राणी काम के आवेग में बह जाता है। इस काम के ज्वार का विरोध करना प्रायः असम्भव होता है। हां, मनुष्य में इस ज्वार के विपरीत जाने की इच्छा और सामर्थ्य होती है। दुर्बल प्राणी ज्वार में बह जाते हैं और कहीं-के-कहीं ले जाकर फेंक दिये जाते हैं। मनुष्य नौका में बैठा ज्वार का विरोध करता हुआ जा सकता है। अपने मार्ग पर जाने में बाधा तो अनुभव करता है, परन्तु आत्म-विश्वास रखने वाला मानव ज्वार का विरोध करने की क्षमता रखता है।
कैसे ?
इसे भारतीय शास्त्र में, मनुष्य में एक विकसित मन के कारण माना है। प्राणी में पंचभौतिक शरीर के अतिरिक्त दस इन्द्रियां और ग्यारहवां मन विद्यमान होते हैं। इन्द्रियां विषयों का ग्रहण करती हैं, परन्तु मन इन इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखता है।
उपनिषद् में प्राणी को एक रथ के तुल्य माना है इस रथ की पांच ज्ञान-इन्द्रियां पांच घोड़ों के तुल्य मानी हैं। मन रथ पर सारथि का कार्य करता है और आत्मा रथ का स्वामी, मन इन्द्रियों से कार्य कराता है।
रथ का सारथि जितना योग्य होता है, रथ उतना ही ठीक मार्ग पर ठीक ढंग से चलेगा। जहां सारथि दुर्बल होता है, वहां रथ के घोड़े अपनी वासनाओं के अधीन रथ को कुपथ पर ले जाते हैं। यही अवस्था प्राणियों की है।
इतर जीव-जन्तुओं में मन दुर्बल, अविकसित होता है। उन्नत प्राणियों में मन अधिक और अधिक शक्तिशाली होता है। इस कारण उन्नत प्राणी, प्राणी-शास्त्र के उस सिद्धान्त का, जो आरम्भ में वर्णन किया है, समर्थन नहीं करते। जीवन का ज्वार अर्थात् वासनाओं का वेग आता है और उस वेग में, जहां इतर प्राणी बह जाते हैं, वहां मानव-मन इन्द्रियों पर नियन्त्रण रख, उस वेग का विरोध कर सकता है।
सब मानवों के भी मन एक,ससमान सबल नहीं होते। किसी में तो इन्द्रियां दुर्बल होती हैं और वे वासना के भी आवेग के प्रभाव को अनुभव नहीं कर सकतीं और मन सहज ही उनको आवेग से बचा लेता है और कहीं मन दुर्बल होता है और इन्द्रियों पर नियन्त्रण नहीं रख सकता। यही कारण है कि मनुष्य मनुष्य में, समान परिस्थितियों में भी, भिन्न भिन्न व्यवहार दृष्टिगोचर होता है। सबल इन्द्रियों पर सबल मन ही नियन्त्रण रख सकता है।
मन को सबल बनाने के लिए उचित संस्कार ही योग्य होते हैं। संस्कार पूर्व जन्म के कर्मों के फल के अथवा वर्तमान जन्म में शिक्षा-दीक्षा, परम्पराओं तथा परिस्थितियों के अधीन होते हैं।
इस कारण भारतीय जीवन-चर्या में संस्कारों की बहुत महिमा है, गर्भाधान के समय से लेकर मरणापर्यन्त मानव जीवन को श्रेष्ठ संस्कारों के अधीन रखने का यत्न किया गया है।
ये संस्कार ही मानव जीवन की इतर प्राणियों के जीवन से भिन्नता प्रदान करते हैं। यूं तो कुत्ते-बिल्लियों को भी सिखाया जाता है। उनके मन पर भी संस्कार डालकर, उनसे अपनी प्रकृति के विपरीत कार्य कराने का यत्न किया जाता है, परन्तु इसमें सफलता उतनी नहीं मिलती, जितनी मनुष्य की अवस्था में मिलती है। प्राणी-शास्त्र का सिद्धान्त, कि संतान उत्पन्न कर प्राणी निकम्मा हो जाता है और प्रकृति उसको मौत का ग्रास बना देती है, मानव के विषय में ठीक नहीं बैठता। मानव-मन युवावस्था से ऊपर निकलकर अधिक और अधिक उपयोगी होता जाता है।
भारतीय समाज में संन्यासी, जो सन्तानोत्पत्ति की आयु से ऊपर निकल गया होता है, मानव-कल्याण में अधिक उपयोगी कार्य करने के योग्य माना जाता है। संन्यासी की महिमा अन्य तीनों आश्रमवासियों से अधिक होती है। यह इस कारण कि मनुष्य में एक अति उन्नत मन होता है, जो संस्कारों को संचित करने की अपार तथा अद्भुत शक्ति रखता है। ज्यूं-ज्यूं संस्कार संचित होते जाते हैं, मनुष्य अधिक और अधिक उपयोगी बनता जाता है।
यह भाव हैं, जिनको इस ‘जीवन-ज्वार’ उपन्यास में, व्यक्त करने का यत्न किया गया है।
शेष तो उपन्यास है। पात्र, स्थान इत्यादि काल्पनिक ही हैं।
समुद्र में ज्वार उठता है और कालान्तर में भाटा आता है। इस पर भी यह सागर के वश की बात नहीं है कि वह उठते ज्वार का विरोध कर सके अथवा भाटे में ज्वार ला सके।
कामान्ध प्राणी काम के आवेग में बह जाता है। इस काम के ज्वार का विरोध करना प्रायः असम्भव होता है। हां, मनुष्य में इस ज्वार के विपरीत जाने की इच्छा और सामर्थ्य होती है। दुर्बल प्राणी ज्वार में बह जाते हैं और कहीं-के-कहीं ले जाकर फेंक दिये जाते हैं। मनुष्य नौका में बैठा ज्वार का विरोध करता हुआ जा सकता है। अपने मार्ग पर जाने में बाधा तो अनुभव करता है, परन्तु आत्म-विश्वास रखने वाला मानव ज्वार का विरोध करने की क्षमता रखता है।
कैसे ?
इसे भारतीय शास्त्र में, मनुष्य में एक विकसित मन के कारण माना है। प्राणी में पंचभौतिक शरीर के अतिरिक्त दस इन्द्रियां और ग्यारहवां मन विद्यमान होते हैं। इन्द्रियां विषयों का ग्रहण करती हैं, परन्तु मन इन इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखता है।
उपनिषद् में प्राणी को एक रथ के तुल्य माना है इस रथ की पांच ज्ञान-इन्द्रियां पांच घोड़ों के तुल्य मानी हैं। मन रथ पर सारथि का कार्य करता है और आत्मा रथ का स्वामी, मन इन्द्रियों से कार्य कराता है।
रथ का सारथि जितना योग्य होता है, रथ उतना ही ठीक मार्ग पर ठीक ढंग से चलेगा। जहां सारथि दुर्बल होता है, वहां रथ के घोड़े अपनी वासनाओं के अधीन रथ को कुपथ पर ले जाते हैं। यही अवस्था प्राणियों की है।
इतर जीव-जन्तुओं में मन दुर्बल, अविकसित होता है। उन्नत प्राणियों में मन अधिक और अधिक शक्तिशाली होता है। इस कारण उन्नत प्राणी, प्राणी-शास्त्र के उस सिद्धान्त का, जो आरम्भ में वर्णन किया है, समर्थन नहीं करते। जीवन का ज्वार अर्थात् वासनाओं का वेग आता है और उस वेग में, जहां इतर प्राणी बह जाते हैं, वहां मानव-मन इन्द्रियों पर नियन्त्रण रख, उस वेग का विरोध कर सकता है।
सब मानवों के भी मन एक,ससमान सबल नहीं होते। किसी में तो इन्द्रियां दुर्बल होती हैं और वे वासना के भी आवेग के प्रभाव को अनुभव नहीं कर सकतीं और मन सहज ही उनको आवेग से बचा लेता है और कहीं मन दुर्बल होता है और इन्द्रियों पर नियन्त्रण नहीं रख सकता। यही कारण है कि मनुष्य मनुष्य में, समान परिस्थितियों में भी, भिन्न भिन्न व्यवहार दृष्टिगोचर होता है। सबल इन्द्रियों पर सबल मन ही नियन्त्रण रख सकता है।
मन को सबल बनाने के लिए उचित संस्कार ही योग्य होते हैं। संस्कार पूर्व जन्म के कर्मों के फल के अथवा वर्तमान जन्म में शिक्षा-दीक्षा, परम्पराओं तथा परिस्थितियों के अधीन होते हैं।
इस कारण भारतीय जीवन-चर्या में संस्कारों की बहुत महिमा है, गर्भाधान के समय से लेकर मरणापर्यन्त मानव जीवन को श्रेष्ठ संस्कारों के अधीन रखने का यत्न किया गया है।
ये संस्कार ही मानव जीवन की इतर प्राणियों के जीवन से भिन्नता प्रदान करते हैं। यूं तो कुत्ते-बिल्लियों को भी सिखाया जाता है। उनके मन पर भी संस्कार डालकर, उनसे अपनी प्रकृति के विपरीत कार्य कराने का यत्न किया जाता है, परन्तु इसमें सफलता उतनी नहीं मिलती, जितनी मनुष्य की अवस्था में मिलती है। प्राणी-शास्त्र का सिद्धान्त, कि संतान उत्पन्न कर प्राणी निकम्मा हो जाता है और प्रकृति उसको मौत का ग्रास बना देती है, मानव के विषय में ठीक नहीं बैठता। मानव-मन युवावस्था से ऊपर निकलकर अधिक और अधिक उपयोगी होता जाता है।
भारतीय समाज में संन्यासी, जो सन्तानोत्पत्ति की आयु से ऊपर निकल गया होता है, मानव-कल्याण में अधिक उपयोगी कार्य करने के योग्य माना जाता है। संन्यासी की महिमा अन्य तीनों आश्रमवासियों से अधिक होती है। यह इस कारण कि मनुष्य में एक अति उन्नत मन होता है, जो संस्कारों को संचित करने की अपार तथा अद्भुत शक्ति रखता है। ज्यूं-ज्यूं संस्कार संचित होते जाते हैं, मनुष्य अधिक और अधिक उपयोगी बनता जाता है।
यह भाव हैं, जिनको इस ‘जीवन-ज्वार’ उपन्यास में, व्यक्त करने का यत्न किया गया है।
शेष तो उपन्यास है। पात्र, स्थान इत्यादि काल्पनिक ही हैं।
गुरुदत्त
प्रथम परिच्छेद
1
लाहौर चर्च रोड पर एक व्यक्ति सूट-बूट पहने, बाईसिकल भगाता चला जा रहा था।
वह चर्च रोड से माल रोड, माल रोड से अनारकली, और म्यूजियम रोड से होता हुआ
गर्वनमेन्ट कॉलेज जा पहुँचा। कॉलेज में विद्यार्थी बाईसिकलों पर, पैदल,
कोई कोई मोटरों में, आ रहे थे। प्रायः विद्यार्थी जब उस बाईसिकल पर जाते
हुए व्यक्ति से चार आँख होते, तो कोई हाथ जोड़, कोई दाहिना हाथ उठा और कोई
कोई केवल मुख से ‘गुड मॉर्निंग सर !’’ बोल
अभिवादन
करते। वह व्यक्ति सबको, एक हाथ उठा, उनके अभिवादन का उत्तर देता जाता था।
बाईसिकल पर जा रहा व्यक्ति पद्मदेव था। यह कॉलेज में इतिहास का प्रोफेसर था। उसके अतिरिक्त पद्मदेव यूनिवर्सिटी की हिस्टोरिकल सोसायटी का अध्यक्ष इण्टर कॉलिजिएट ड्रामेटिक क्लब का प्रधान, विद्यार्थी सहायक समिति का प्रधान और कॉलेज की स्पोर्ट्स का प्रबन्धक था।
यह माना जाता था कि प्रोफेसर पद्मदेव कॉलेज के प्रिन्सिपल का दाहिना हाथ है। वह निर्धन, साधन-विहीन विद्यार्थियों का स्वःनिर्मित संरक्षक माना जाता था। वह विद्यार्थियों के प्रत्येक कार्य में सलाहकार होता था।
इसके अतिरिक्त सार्वजनिक वक्ता, समाचार-पत्रों में लेखक और नगर के सार्वजनिक कार्यों में एक जानकार व्यक्ति माना जाता था। इन सब कार्यों में भाग लेता हुआ पद्मदेव ‘उच्चकोटि के इतिहास का जानकार’ के नाम से प्रसिद्ध था।
कॉलेज के विद्यार्थियों में वह इतना सर्वप्रिय था कि प्रायः प्रोफेसर उससे ईर्ष्या करने लगे थे। उसको कॉलेज में नौकर हुए पांच वर्ष ही हुए थे कि वहाँ की हलचलों में जीवनदाता समझा जाने लगा था। इस सब पर भी विद्यार्थी उसको अपने शिक्षण-कार्य के लिए सदैव तैयार होकर आया पाते थे। किसी भी विद्यार्थी ने कोई भी प्रश्न पूछा कि वह उसके उत्तर के लिए सदा तत्पर रहता था। केवल इतना ही नहीं, जब भी कोई उस द्वारा उपस्थित घटना का प्रमाण माँगता तो वह पुस्तक, प्रायः पृष्ठ और प्रसंग तक बताने के लिए तैयार रहता था।
सबसे विशेष बात उसकी उन घटनाओं की विवेचना होती थी। उस विवेचना पर अन्य विवेचना पर अन्य विशेषज्ञ हँसा करते थे, परन्तु सामने तर्क करते समय झुक जाते थे। इससे ईर्ष्याग्नि पर घृत पड़ जाता था।
पद्मदेव बाईसिकल स्टैण्ड पर पहुँचा, कैरियर पर रखी नोट बुक ले, बाईसिकल वहाँ खड़ी कर ताला लगा, स्टाफ रूम में चला गया। उस समय वहाँ एक अन्य प्रोफेसर बैठा सिगरेट पी रहा था। वह पद्मदेव को आया देख, मुस्कराकर उसका अभिवादन कर बोला, ‘पद्मजी ! कल से यहां प्रचार हो रहा है कि आपको कॉलेज की सेवाओं से मुक्त किया जा रहा है।’’
‘‘और वह क्यों ? इस विषय में भी तो कुछ चर्चा होगी।’’
‘‘प्रोफेसर ढींगरा कह रहे थे कि प्रिन्सिपल साहब के पास आज्ञा आ चुकी है, परन्तु वे आज्ञा आप तक पहुँचाने में संकोच अनुभव कर रहे हैं।’’
‘‘और उन्होंने ढींगरा साहब को बताने में संकोच अनुभव नहीं किया ?’’
‘‘वह देखो, ढींगरा साहब स्वयं आ गये हैं। क्यों ढींगरा ! कल वाली बात में तथ्य क्या है ?’’
ढींगरा ने माथे पर त्योरी चढ़ाकर प्रश्नकर्ता की ओर देखते हुए कहा, ‘‘मिर्जा, तुम्हारे पेट में बात पचती नहीं। मैंने तो अपना अनुमान बताया था, और तुम उसको तथ्य मानकर उगलने लगे।’’
पद्मदेव ने हँसते हुए कहा, ‘‘मिर्जा साहब की यह ‘विशफुल थिंकिंग’ (इच्छानुकूल विचार) की सूचक है। देखिए मिर्जा साहब ! हम हिन्दू हैं। पूर्वजन्म के कर्मफल को भाग्य का नाम देते हैं और भाग्य को अटल मानते हैं। इससे हम भविष्य के विषय में चिन्ता नहीं करते हुए वर्तमान में विचरते हैं।’’
इस पर ढींगरा ने कह दिया, ‘‘पद्मदेव ! यह तुम्हारा हिन्दूपन, भाग्य कर्म इत्यादि की मीमांसा ही है, जो पंजाब सरकार को अरुचिकर प्रतीत हो रही है।’’
‘‘मुझको इसका भारी शोक है। मैं प्रोफेसर इसलिए नियुक्त नहीं हुआ कि मैं हिन्दू बनकर रहूँगा। अथवा कर्मफल मीमांसा की निन्दा किया करूँगा। मैं इतिहास पढ़ाने के लिए नियुक्ति हुआ हूँ और वह मैं पढ़ा रहा हूँ। अपना कर्त्तव्यपालन करता हुआ, मैं अपने अथवा किसी के भविष्य की चिन्ता नहीं करता।’’
ढींगरा मुस्कराकर चुप कर रहा। मिर्जा मुहम्मद बशीर अहदम ‘स्टाफ-रूम’ से बाहर चला गया। पद्मदेव ने, अपनी नोट-बुक खोल उसमें से पढ़ना आरम्भ कर दिया। ढींगरा सामने कुर्सी पर बैठा कुछ देर तक पद्मदेव का गम्भीर मुख देखता रहा। तत्पश्चात् वह भी उठकर बाहर निकल गया।
कॉलेज की घण्टी बजी और पद्मदेव नोट-बुक बंद कर, अपनी श्रेणी में पढ़ाने चला गया। मिर्जा ‘पर्शियन’ पढ़ाता था। वह भी अपनी श्रेणी को पढ़ाने चला गया था। ढींगरा इस पीरियड में खाली था। वह ‘स्टाफ-रूम’ में से उठकर बाहर पेड़ के नीचे आ खड़ा हुआ था। वह पद्मदेव के साथ उसके कॉलेज से निकाले जाने के विषय पर बात करना नहीं चाहता था। पद्मदेव को मिर्जा साहब की यह सूचना सुनाने पर भी, निश्चिन्तता से बैठे देख, विस्मित-सा वह उसका मुख देखता रहा था।
ढींगरा को बाहर खड़ा देख एक विद्यार्थी सामने आया और ‘गुड-मॉर्निग कर पूछने लगा, ‘‘सर ! यह हमारे इतिहास के प्रोफेसर के विषय में क्या बात फैल रही है ?’’
‘‘क्या फैल रही है ?’’
‘‘यही कि वे कॉलेज से जा रहे हैं।’’
‘‘प्रो. पद्मदेव से ही पूछना ठीक रहेगा। मैं कुछ नहीं जानता।’’
‘‘मिर्जा साहब प्रोफेसर अन्सारी से कह रहे थे कि आप ही यह बात बता रहे थे। हम विद्यार्थी इससे चिन्ता अनुभव कर रहे हैं।’’
‘‘क्यों ? तुम लोग क्यों चिन्ता अनुभव कर रहे हो ? तुम तो इतिहास के विद्यार्थी भी नहीं।’’
‘‘जी, मैं उनकी कृपा से चालीस रुपये मासिक का वजीफा पा रहा हूँ।’’
‘‘वे अपनी जेब से देते हैं क्या ?’’
‘‘वे विद्यार्थी सहायक समिति के प्रधान हैं। इस समिति के कोष को वे ही एकत्रित कर रहे हैं।’’
‘‘यह बात तो ठीक नहीं। मैं समझता हूँ कि इस समिति का जो भी प्रधान होगा, वह धन का प्रबन्ध करने लगेगा।’’
एन.सी. ढींगरा ने कह तो दिया और उस विद्यार्थी के प्रश्न का उत्तर दिये बिना उसको टाल भी दिया, परन्तु उसको मिर्जा पर बहुत क्रोध चढ़ आया। वह एक ऐसी बात, जो अभी घोषित नहीं हुई थी, ढींगरा का नाम ले लेकर प्रचलित कर रहा था।
बात ठीक थी। ढींगरा को यह सूचना श्रीमती चोपड़ा से प्राप्त हुई थी और श्रीमती चोपड़ा ढींगरा की सहेली थी। चोपड़ा कॉलेज का प्रिन्सिपल था।
प्रिन्सिपल की पत्नी नसीम और ढींगरा की पत्नी सुरैया इसलामिया कॉलेज की ग्रैजुएट थीं और कट्टर मुसलमानिन थीं। चोपड़ा और ढींगरा हिन्दू परिवारोत्पन्न थे। पत्नियों की घनिष्ठता के कारण ढींगरा भी प्रिन्सिपल साहब से बहुत सहृदयता से मिलता था। अतः जब भी प्रिन्सिपल साहब की अथवा उनके कार्यालय की कोई बात, ढींगरा के नाम से प्रचारित होती थी, तो वह सत्य माननी ही पड़ती थी।
अतः विद्यार्थी को, जब ढींगरा ने कहा कि विद्यार्थी सहायक समिति का जो भी प्रधान होगा, धन उसको मिलेगा ही, विश्वास हो गया कि पद्मदेव का पत्ता कॉलेज से कट गया है।
पद्मदेव कॉलेज के जीवन की आत्मा थी। अतः समाचार जंगल की आग की भांति कॉलेज में फैल गया।
कॉलेज की तीन श्रेणियों को पढ़ाकर जब पद्मदेव घर जाने के लिए तैयार हुआ तो कॉलेज के पचास-साठ विद्यार्थी उसको घेरकर खड़े हो गए।
‘‘सर ! सर !!’ वे पूछने लगे, ‘‘हम यह जानना चाहते हैं कि क्या आप कॉलेज छोड़ रहे हैं ?’’
‘‘किसने कहा है आपको ?’’
‘‘किसी ने भी कहा हो; श्रीमान्, यह बात सत्य नहीं है न ?’’
‘‘मुझको अभी कोई आज्ञा-पत्र नहीं मिला और मैं स्वेच्छा से कॉलेज छोड़ नहीं रहा।’’
‘‘आप प्रिन्सिपल साहब से पता करिये। हमें सूचना मिली है कि सरकार की आज्ञा उनके पास आ चुकी है।’’
‘‘तो तुम्हारी यह इच्छा है कि मैं अपना ‘परवाना राहदारी’ लेने के लिए स्वयं हाजिर हो जाऊं ? देखो, मुझको इस आज्ञा को लेने जाने की आवश्यकता नहीं है। मुझको इस विषय में चिन्ता भी नहीं। जब भी बात होनी होगी, वह हो जायगी।’’
‘‘परन्तु सर !’’ एक लड़के ने कह दिया, ‘‘हमको चिन्ता है। हम नहीं चाहते कि आप-जैसे विद्वान् और कर्मठ व्यक्ति के पथ-प्रदर्शन से हम वंचित कर दिए जाएँ।’’
‘‘माई डियर स्टूडेण्टस ! आप लोगों को चिन्ता नहीं करनी चाहिए। जो भी इस स्थान पर आयेगा, वह आपका पथ-पदर्शन करेगा।’’
‘‘तो इसका अर्थ यह है कि आपको अपने यहाँ से जाने की सूचना है ?’’
‘‘सूचना नहीं है। इस पर भी यहाँ का वातावरण यह कह रहा है कि मुझको जाना ही होगा।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘मैं स्वयं नहीं जानता। जब किसी घटना में कारण प्रतीत न हो, तब उसके विषय में विवेचना करनी अति कठिन है। मैं कहता हूँ कि आप लोगों को चिन्ता त्याग कर, अपनी पढ़ाई में लगे रहना चाहिए।’’
इतना कह पद्मदेव ने बाईसिकल के पैडल पर पांव रखा और घर की ओर चल पड़ा।
पद्मदेव का घर चर्च रोड पर एक कोठी में था। वह आते हुए विचार कर रहा था कि यह समाचार जिस प्रकार कॉलेज में विख्यात हुआ है, ठीक नहीं हुआ। वह अपने कॉलेज के कार्य के विषय में बहुत सार्वजनिक प्रदर्शन के पक्ष में नहीं था, परन्तु ढींगरा और मिर्जा की मूर्खता से बात फैल गई थी।
इससे कुछ दिन पूर्व, प्रिन्सिपल ने डायरेक्टर ऑफ एजूकेशन के एक पत्र का हवाला देते हुए उसको कहा था, ‘‘पद्मदेव ! सरकार तुम्हारी ‘पुलिटिकल ऐक्टिविटीज, (राजनीतिक कार्य) को पसंद नहीं करती और डायरेक्टर महोदय ने लिखा है कि मैं तुम्हारे कार्यों पर प्रकाश डालूँ। तुमको सावधान रहना चाहिए।’’
‘‘तो आपने प्रकाश डाला होगा ?’’ पद्मदेव ने पूछा था।
‘‘हाँ, मैंने लिखा है कि राजनीति का ज्ञान रखना एक इतिहास के शिक्षक का स्वभाविक कार्य है। एक सरकारी नौकर का राजनीति में सक्रिय भाग लेना वर्जित है और दोनों बातों में आकाश-पाताल का अन्तर है।
‘‘जहाँ तक मेरा ज्ञान है,’’ मैंने लिख दिया है-‘‘आप राजनीति में किसी प्रकार का सक्रिय भाग नहीं लेते।’’
इस पर पद्मदेव ने कहा था, ‘‘आपने ठीक लिखा है। मैं आपका आभारी हूँ, परन्तु सरकार की भावना को भी समझता हूँ। वह जानती है कि इतिहास के शिक्षक राजनीति में सक्रिय भाग भले ही न लेते हों, परन्तु वे भावी राजनीति के निर्माता हो सकते हैं। कदाचित् मुझसे सरकार को इसी बात का भय है।
सरकार चाहती है कि जिस राजनीतिक आधार पर वह स्थापित हुई है, वह आधार हिल न सके। जब हम इतिहासज्ञ उस आधार को इतिहास की घटनाओं से दुर्बल बताते हैं, तो सरकार समझती है कि हम उसकी जड़ों को हिला रहे हैं वह यह नहीं चाहती। अतः वर्तमान राजनीति के विषय में एक शब्द भी कहे बिना, जब इतिहास का ज्ञाता कहता है कि बल के आधार पर स्थापित राज्य सदा निष्फल होते हैं, तो सरकार समझती है कि हम उसकी निन्दा करते हैं।’’
मिस्टर चोपड़ा पद्मदेव का मुख देखता रह गया। पद्मदेव ने अपने वक्तव्य को समझाने के लिए कह दिया, ‘‘मेरे कहने का अर्थ यह है कि इतिहासज्ञ वर्तमान के साथ सम्बन्ध न रखता हुआ भी, भविष्य के साथ गहरा सम्बन्ध रखता है। उसकी इतिहास की विवेचना भावी इतिहास की निर्माता होने वाली होती है।’’
‘‘ऐनी वे’’, प्रिन्सिपल ने कह दिया, ‘‘मैंने उत्तर भेज दिया है। मेरा कहना यह है कि आप सार्वजनिक पत्रों में अपने लेख न लिखा करिये।’’
‘‘मैं भविष्य में सावधान रहूँगा।’’
सत्य बात यह नहीं थी। यह न तो पद्मदेव के लेख थे, न ही उसका किसी राजनीतिक कार्य में भाग लेना था। यह उसके प्रति कॉलेज के प्रोफेसरों में ईर्ष्या थी, जिसका परिणाम यह हुआ था।
पंजाब के शिक्षा-मंत्री एक मुसलमान थे, जो मुसलमानों के मतदान से ही निर्वाचित हुए थे। वह अपने मतदाताओं के सम्मुख यह कसम खा चुके थे कि भारत के मुसलमानों को हिन्दुओं के बराबर के अधिकार तथा पद दिलाकर रहेंगे। उस नीति के अन्तर्गत शिक्षा-विभाग को, पूर्ण रूप में, इस्लाम से ओत-प्रोत करने की योजना में यह एक पग था। इस पग का सुझाव, कॉलेज के मुसलमान प्रोफेसर शिक्षा-मंत्री से मिलकर, दे आए थे। उनमें मिर्जा साहब भी एक थे। मिर्जा मुहम्मद बशीर अहमद मन्त्री महोदय के निर्वाचन-क्षेत्र में रहते थे और अरबी-फारसी के आलम होने के कारण मुसलमानों में बहुत प्रभाव रखते थे।
मिर्जा साहब की बात सुनकर मन्त्री महोदय ने पूछा, ‘‘आप एक-आध हिन्दू के भी कॉलेज में रहने को सहन नहीं कर सकते क्या ?’’
‘‘देखिए साहब ! इस समय हिन्दुओं की संख्या कॉलेज और शिक्षा-विभाग में अधिक है।’’
‘‘आप शिक्षा-विभाग की बात छोड़िये। कॉलेज में सीनियर प्रोफेसरशिप में कितने हिन्दू हैं ?’’
‘‘पांच हैं।’’ मिर्जा साहब ने कह दिया, ‘‘प्रिन्सिपल साहब हैं, मिस्टर चोपड़ा इकनौमिक्स के प्रोफसर ढींगरा, इतिहास के प्रोफेसर पद्मदेव गणित में मिस्टर गुप्ता और फिजिक्स के मलहोत्रा हैं। इनके मुकाबले में मैं हूँ, एक केमिस्ट्री के प्रोफेसर और एक फिलौसोफी के प्रोफेसर मुसलमान हैं। पांच के मुकाबले में हम तीन हैं।’’
मन्त्री ने हँसते हुए कहा, ‘‘मिर्जा साहब ! आप चोपड़ा और ढींगरा को हिन्दू समझते हैं क्या ? दोनों की पत्नियाँ मुसलमानिन हैं। चोपड़ा तो कलमा भी पढ़ चुके हैं और ढींगरा गोमांस इत्यादि खाते हैं। ये दोनों इस समय तो नास्तिक हैं, खुदा को नहीं मानते, परन्तु इनकी औलाद मुसलमान होने वाली है।’’
मिर्जा साहब इसका प्रतिरोध नहीं कर सके। मन्त्री महोदय की गणना के अनुसार तीन हिन्दूओं के मुकाबले में पांच मुसलमान थे, परन्तु मिर्जा साहब तो हिन्दू-मुसलमान के प्रश्न से भी ऊपर पद्मदेव की ख्याति से ईर्ष्या करते थे। इस कारण वे कहने लगे, ‘‘पर साहब ! यह काफिर तो जाना ही चाहिए। उस दिन कॉलेज की डिबेटिंग क्लब में इसने कहा था कि हिन्दुस्तान की हदूद हिन्दुकुश से लेकर बर्मा इरावती नदी तक है। मौका मौका पर इन हदूद में बाहरी हमलों की वजह से रद्दो-बदल होते रहे हैं, परन्तु जब-जब भी मुल्क ताकतवर होता रहा है, हिन्दुस्तान, जिसको वह भारत के नाम से याद करता है, अपनी कुदरती हद तक पहुँच जाता रहा है। ऐसे खतरनाक आदमी का तो कॉलेज में रखना ठीक नहीं होगा।’’
‘‘पर मिर्जा साहब ! बात तो वह ठीक ही कहता है। हिन्दुओं की एक किताब है महाभारत। उसमें युधिष्ठिर के बारे में लिखा है कि उसने अपना चक्रवर्ती राज्य चलाया था और वह राज्य इतनी दूर-दूर तक फैला हुआ था। चक्रवर्ती राजा का मतलब ही यह होता था, जो इतने बड़े मुल्क हुकूमत कायम कर सके और हिन्दुओं में अनेकों चक्रवर्ती राजा हुए हैं।’’
‘‘कुछ भी हो साहब ! इस प्रकार के प्रोफेसर और ऐसी तालीम हमें नहीं चाहिए। मैंने तो लैथाब्रिज की तवारीख पढ़ी है। उसमें तो लिखा था कि आर्यों के बुजुर्ग खेती बाड़ी करते थे, जाहिल थे और हिन्दुस्तान छोटे-छोटे राज्यों में बंटा हुआ था।’’
मन्त्री साहब हँस पड़े और बोले, ‘‘अच्छी बात है। मैं इसकी बाबत प्रिन्सिपल को लिखूँगा और फिर हम इसके मुतअल्लिक कुछ तो कर सकेंगे।
बाईसिकल पर जा रहा व्यक्ति पद्मदेव था। यह कॉलेज में इतिहास का प्रोफेसर था। उसके अतिरिक्त पद्मदेव यूनिवर्सिटी की हिस्टोरिकल सोसायटी का अध्यक्ष इण्टर कॉलिजिएट ड्रामेटिक क्लब का प्रधान, विद्यार्थी सहायक समिति का प्रधान और कॉलेज की स्पोर्ट्स का प्रबन्धक था।
यह माना जाता था कि प्रोफेसर पद्मदेव कॉलेज के प्रिन्सिपल का दाहिना हाथ है। वह निर्धन, साधन-विहीन विद्यार्थियों का स्वःनिर्मित संरक्षक माना जाता था। वह विद्यार्थियों के प्रत्येक कार्य में सलाहकार होता था।
इसके अतिरिक्त सार्वजनिक वक्ता, समाचार-पत्रों में लेखक और नगर के सार्वजनिक कार्यों में एक जानकार व्यक्ति माना जाता था। इन सब कार्यों में भाग लेता हुआ पद्मदेव ‘उच्चकोटि के इतिहास का जानकार’ के नाम से प्रसिद्ध था।
कॉलेज के विद्यार्थियों में वह इतना सर्वप्रिय था कि प्रायः प्रोफेसर उससे ईर्ष्या करने लगे थे। उसको कॉलेज में नौकर हुए पांच वर्ष ही हुए थे कि वहाँ की हलचलों में जीवनदाता समझा जाने लगा था। इस सब पर भी विद्यार्थी उसको अपने शिक्षण-कार्य के लिए सदैव तैयार होकर आया पाते थे। किसी भी विद्यार्थी ने कोई भी प्रश्न पूछा कि वह उसके उत्तर के लिए सदा तत्पर रहता था। केवल इतना ही नहीं, जब भी कोई उस द्वारा उपस्थित घटना का प्रमाण माँगता तो वह पुस्तक, प्रायः पृष्ठ और प्रसंग तक बताने के लिए तैयार रहता था।
सबसे विशेष बात उसकी उन घटनाओं की विवेचना होती थी। उस विवेचना पर अन्य विवेचना पर अन्य विशेषज्ञ हँसा करते थे, परन्तु सामने तर्क करते समय झुक जाते थे। इससे ईर्ष्याग्नि पर घृत पड़ जाता था।
पद्मदेव बाईसिकल स्टैण्ड पर पहुँचा, कैरियर पर रखी नोट बुक ले, बाईसिकल वहाँ खड़ी कर ताला लगा, स्टाफ रूम में चला गया। उस समय वहाँ एक अन्य प्रोफेसर बैठा सिगरेट पी रहा था। वह पद्मदेव को आया देख, मुस्कराकर उसका अभिवादन कर बोला, ‘पद्मजी ! कल से यहां प्रचार हो रहा है कि आपको कॉलेज की सेवाओं से मुक्त किया जा रहा है।’’
‘‘और वह क्यों ? इस विषय में भी तो कुछ चर्चा होगी।’’
‘‘प्रोफेसर ढींगरा कह रहे थे कि प्रिन्सिपल साहब के पास आज्ञा आ चुकी है, परन्तु वे आज्ञा आप तक पहुँचाने में संकोच अनुभव कर रहे हैं।’’
‘‘और उन्होंने ढींगरा साहब को बताने में संकोच अनुभव नहीं किया ?’’
‘‘वह देखो, ढींगरा साहब स्वयं आ गये हैं। क्यों ढींगरा ! कल वाली बात में तथ्य क्या है ?’’
ढींगरा ने माथे पर त्योरी चढ़ाकर प्रश्नकर्ता की ओर देखते हुए कहा, ‘‘मिर्जा, तुम्हारे पेट में बात पचती नहीं। मैंने तो अपना अनुमान बताया था, और तुम उसको तथ्य मानकर उगलने लगे।’’
पद्मदेव ने हँसते हुए कहा, ‘‘मिर्जा साहब की यह ‘विशफुल थिंकिंग’ (इच्छानुकूल विचार) की सूचक है। देखिए मिर्जा साहब ! हम हिन्दू हैं। पूर्वजन्म के कर्मफल को भाग्य का नाम देते हैं और भाग्य को अटल मानते हैं। इससे हम भविष्य के विषय में चिन्ता नहीं करते हुए वर्तमान में विचरते हैं।’’
इस पर ढींगरा ने कह दिया, ‘‘पद्मदेव ! यह तुम्हारा हिन्दूपन, भाग्य कर्म इत्यादि की मीमांसा ही है, जो पंजाब सरकार को अरुचिकर प्रतीत हो रही है।’’
‘‘मुझको इसका भारी शोक है। मैं प्रोफेसर इसलिए नियुक्त नहीं हुआ कि मैं हिन्दू बनकर रहूँगा। अथवा कर्मफल मीमांसा की निन्दा किया करूँगा। मैं इतिहास पढ़ाने के लिए नियुक्ति हुआ हूँ और वह मैं पढ़ा रहा हूँ। अपना कर्त्तव्यपालन करता हुआ, मैं अपने अथवा किसी के भविष्य की चिन्ता नहीं करता।’’
ढींगरा मुस्कराकर चुप कर रहा। मिर्जा मुहम्मद बशीर अहदम ‘स्टाफ-रूम’ से बाहर चला गया। पद्मदेव ने, अपनी नोट-बुक खोल उसमें से पढ़ना आरम्भ कर दिया। ढींगरा सामने कुर्सी पर बैठा कुछ देर तक पद्मदेव का गम्भीर मुख देखता रहा। तत्पश्चात् वह भी उठकर बाहर निकल गया।
कॉलेज की घण्टी बजी और पद्मदेव नोट-बुक बंद कर, अपनी श्रेणी में पढ़ाने चला गया। मिर्जा ‘पर्शियन’ पढ़ाता था। वह भी अपनी श्रेणी को पढ़ाने चला गया था। ढींगरा इस पीरियड में खाली था। वह ‘स्टाफ-रूम’ में से उठकर बाहर पेड़ के नीचे आ खड़ा हुआ था। वह पद्मदेव के साथ उसके कॉलेज से निकाले जाने के विषय पर बात करना नहीं चाहता था। पद्मदेव को मिर्जा साहब की यह सूचना सुनाने पर भी, निश्चिन्तता से बैठे देख, विस्मित-सा वह उसका मुख देखता रहा था।
ढींगरा को बाहर खड़ा देख एक विद्यार्थी सामने आया और ‘गुड-मॉर्निग कर पूछने लगा, ‘‘सर ! यह हमारे इतिहास के प्रोफेसर के विषय में क्या बात फैल रही है ?’’
‘‘क्या फैल रही है ?’’
‘‘यही कि वे कॉलेज से जा रहे हैं।’’
‘‘प्रो. पद्मदेव से ही पूछना ठीक रहेगा। मैं कुछ नहीं जानता।’’
‘‘मिर्जा साहब प्रोफेसर अन्सारी से कह रहे थे कि आप ही यह बात बता रहे थे। हम विद्यार्थी इससे चिन्ता अनुभव कर रहे हैं।’’
‘‘क्यों ? तुम लोग क्यों चिन्ता अनुभव कर रहे हो ? तुम तो इतिहास के विद्यार्थी भी नहीं।’’
‘‘जी, मैं उनकी कृपा से चालीस रुपये मासिक का वजीफा पा रहा हूँ।’’
‘‘वे अपनी जेब से देते हैं क्या ?’’
‘‘वे विद्यार्थी सहायक समिति के प्रधान हैं। इस समिति के कोष को वे ही एकत्रित कर रहे हैं।’’
‘‘यह बात तो ठीक नहीं। मैं समझता हूँ कि इस समिति का जो भी प्रधान होगा, वह धन का प्रबन्ध करने लगेगा।’’
एन.सी. ढींगरा ने कह तो दिया और उस विद्यार्थी के प्रश्न का उत्तर दिये बिना उसको टाल भी दिया, परन्तु उसको मिर्जा पर बहुत क्रोध चढ़ आया। वह एक ऐसी बात, जो अभी घोषित नहीं हुई थी, ढींगरा का नाम ले लेकर प्रचलित कर रहा था।
बात ठीक थी। ढींगरा को यह सूचना श्रीमती चोपड़ा से प्राप्त हुई थी और श्रीमती चोपड़ा ढींगरा की सहेली थी। चोपड़ा कॉलेज का प्रिन्सिपल था।
प्रिन्सिपल की पत्नी नसीम और ढींगरा की पत्नी सुरैया इसलामिया कॉलेज की ग्रैजुएट थीं और कट्टर मुसलमानिन थीं। चोपड़ा और ढींगरा हिन्दू परिवारोत्पन्न थे। पत्नियों की घनिष्ठता के कारण ढींगरा भी प्रिन्सिपल साहब से बहुत सहृदयता से मिलता था। अतः जब भी प्रिन्सिपल साहब की अथवा उनके कार्यालय की कोई बात, ढींगरा के नाम से प्रचारित होती थी, तो वह सत्य माननी ही पड़ती थी।
अतः विद्यार्थी को, जब ढींगरा ने कहा कि विद्यार्थी सहायक समिति का जो भी प्रधान होगा, धन उसको मिलेगा ही, विश्वास हो गया कि पद्मदेव का पत्ता कॉलेज से कट गया है।
पद्मदेव कॉलेज के जीवन की आत्मा थी। अतः समाचार जंगल की आग की भांति कॉलेज में फैल गया।
कॉलेज की तीन श्रेणियों को पढ़ाकर जब पद्मदेव घर जाने के लिए तैयार हुआ तो कॉलेज के पचास-साठ विद्यार्थी उसको घेरकर खड़े हो गए।
‘‘सर ! सर !!’ वे पूछने लगे, ‘‘हम यह जानना चाहते हैं कि क्या आप कॉलेज छोड़ रहे हैं ?’’
‘‘किसने कहा है आपको ?’’
‘‘किसी ने भी कहा हो; श्रीमान्, यह बात सत्य नहीं है न ?’’
‘‘मुझको अभी कोई आज्ञा-पत्र नहीं मिला और मैं स्वेच्छा से कॉलेज छोड़ नहीं रहा।’’
‘‘आप प्रिन्सिपल साहब से पता करिये। हमें सूचना मिली है कि सरकार की आज्ञा उनके पास आ चुकी है।’’
‘‘तो तुम्हारी यह इच्छा है कि मैं अपना ‘परवाना राहदारी’ लेने के लिए स्वयं हाजिर हो जाऊं ? देखो, मुझको इस आज्ञा को लेने जाने की आवश्यकता नहीं है। मुझको इस विषय में चिन्ता भी नहीं। जब भी बात होनी होगी, वह हो जायगी।’’
‘‘परन्तु सर !’’ एक लड़के ने कह दिया, ‘‘हमको चिन्ता है। हम नहीं चाहते कि आप-जैसे विद्वान् और कर्मठ व्यक्ति के पथ-प्रदर्शन से हम वंचित कर दिए जाएँ।’’
‘‘माई डियर स्टूडेण्टस ! आप लोगों को चिन्ता नहीं करनी चाहिए। जो भी इस स्थान पर आयेगा, वह आपका पथ-पदर्शन करेगा।’’
‘‘तो इसका अर्थ यह है कि आपको अपने यहाँ से जाने की सूचना है ?’’
‘‘सूचना नहीं है। इस पर भी यहाँ का वातावरण यह कह रहा है कि मुझको जाना ही होगा।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘मैं स्वयं नहीं जानता। जब किसी घटना में कारण प्रतीत न हो, तब उसके विषय में विवेचना करनी अति कठिन है। मैं कहता हूँ कि आप लोगों को चिन्ता त्याग कर, अपनी पढ़ाई में लगे रहना चाहिए।’’
इतना कह पद्मदेव ने बाईसिकल के पैडल पर पांव रखा और घर की ओर चल पड़ा।
पद्मदेव का घर चर्च रोड पर एक कोठी में था। वह आते हुए विचार कर रहा था कि यह समाचार जिस प्रकार कॉलेज में विख्यात हुआ है, ठीक नहीं हुआ। वह अपने कॉलेज के कार्य के विषय में बहुत सार्वजनिक प्रदर्शन के पक्ष में नहीं था, परन्तु ढींगरा और मिर्जा की मूर्खता से बात फैल गई थी।
इससे कुछ दिन पूर्व, प्रिन्सिपल ने डायरेक्टर ऑफ एजूकेशन के एक पत्र का हवाला देते हुए उसको कहा था, ‘‘पद्मदेव ! सरकार तुम्हारी ‘पुलिटिकल ऐक्टिविटीज, (राजनीतिक कार्य) को पसंद नहीं करती और डायरेक्टर महोदय ने लिखा है कि मैं तुम्हारे कार्यों पर प्रकाश डालूँ। तुमको सावधान रहना चाहिए।’’
‘‘तो आपने प्रकाश डाला होगा ?’’ पद्मदेव ने पूछा था।
‘‘हाँ, मैंने लिखा है कि राजनीति का ज्ञान रखना एक इतिहास के शिक्षक का स्वभाविक कार्य है। एक सरकारी नौकर का राजनीति में सक्रिय भाग लेना वर्जित है और दोनों बातों में आकाश-पाताल का अन्तर है।
‘‘जहाँ तक मेरा ज्ञान है,’’ मैंने लिख दिया है-‘‘आप राजनीति में किसी प्रकार का सक्रिय भाग नहीं लेते।’’
इस पर पद्मदेव ने कहा था, ‘‘आपने ठीक लिखा है। मैं आपका आभारी हूँ, परन्तु सरकार की भावना को भी समझता हूँ। वह जानती है कि इतिहास के शिक्षक राजनीति में सक्रिय भाग भले ही न लेते हों, परन्तु वे भावी राजनीति के निर्माता हो सकते हैं। कदाचित् मुझसे सरकार को इसी बात का भय है।
सरकार चाहती है कि जिस राजनीतिक आधार पर वह स्थापित हुई है, वह आधार हिल न सके। जब हम इतिहासज्ञ उस आधार को इतिहास की घटनाओं से दुर्बल बताते हैं, तो सरकार समझती है कि हम उसकी जड़ों को हिला रहे हैं वह यह नहीं चाहती। अतः वर्तमान राजनीति के विषय में एक शब्द भी कहे बिना, जब इतिहास का ज्ञाता कहता है कि बल के आधार पर स्थापित राज्य सदा निष्फल होते हैं, तो सरकार समझती है कि हम उसकी निन्दा करते हैं।’’
मिस्टर चोपड़ा पद्मदेव का मुख देखता रह गया। पद्मदेव ने अपने वक्तव्य को समझाने के लिए कह दिया, ‘‘मेरे कहने का अर्थ यह है कि इतिहासज्ञ वर्तमान के साथ सम्बन्ध न रखता हुआ भी, भविष्य के साथ गहरा सम्बन्ध रखता है। उसकी इतिहास की विवेचना भावी इतिहास की निर्माता होने वाली होती है।’’
‘‘ऐनी वे’’, प्रिन्सिपल ने कह दिया, ‘‘मैंने उत्तर भेज दिया है। मेरा कहना यह है कि आप सार्वजनिक पत्रों में अपने लेख न लिखा करिये।’’
‘‘मैं भविष्य में सावधान रहूँगा।’’
सत्य बात यह नहीं थी। यह न तो पद्मदेव के लेख थे, न ही उसका किसी राजनीतिक कार्य में भाग लेना था। यह उसके प्रति कॉलेज के प्रोफेसरों में ईर्ष्या थी, जिसका परिणाम यह हुआ था।
पंजाब के शिक्षा-मंत्री एक मुसलमान थे, जो मुसलमानों के मतदान से ही निर्वाचित हुए थे। वह अपने मतदाताओं के सम्मुख यह कसम खा चुके थे कि भारत के मुसलमानों को हिन्दुओं के बराबर के अधिकार तथा पद दिलाकर रहेंगे। उस नीति के अन्तर्गत शिक्षा-विभाग को, पूर्ण रूप में, इस्लाम से ओत-प्रोत करने की योजना में यह एक पग था। इस पग का सुझाव, कॉलेज के मुसलमान प्रोफेसर शिक्षा-मंत्री से मिलकर, दे आए थे। उनमें मिर्जा साहब भी एक थे। मिर्जा मुहम्मद बशीर अहमद मन्त्री महोदय के निर्वाचन-क्षेत्र में रहते थे और अरबी-फारसी के आलम होने के कारण मुसलमानों में बहुत प्रभाव रखते थे।
मिर्जा साहब की बात सुनकर मन्त्री महोदय ने पूछा, ‘‘आप एक-आध हिन्दू के भी कॉलेज में रहने को सहन नहीं कर सकते क्या ?’’
‘‘देखिए साहब ! इस समय हिन्दुओं की संख्या कॉलेज और शिक्षा-विभाग में अधिक है।’’
‘‘आप शिक्षा-विभाग की बात छोड़िये। कॉलेज में सीनियर प्रोफेसरशिप में कितने हिन्दू हैं ?’’
‘‘पांच हैं।’’ मिर्जा साहब ने कह दिया, ‘‘प्रिन्सिपल साहब हैं, मिस्टर चोपड़ा इकनौमिक्स के प्रोफसर ढींगरा, इतिहास के प्रोफेसर पद्मदेव गणित में मिस्टर गुप्ता और फिजिक्स के मलहोत्रा हैं। इनके मुकाबले में मैं हूँ, एक केमिस्ट्री के प्रोफेसर और एक फिलौसोफी के प्रोफेसर मुसलमान हैं। पांच के मुकाबले में हम तीन हैं।’’
मन्त्री ने हँसते हुए कहा, ‘‘मिर्जा साहब ! आप चोपड़ा और ढींगरा को हिन्दू समझते हैं क्या ? दोनों की पत्नियाँ मुसलमानिन हैं। चोपड़ा तो कलमा भी पढ़ चुके हैं और ढींगरा गोमांस इत्यादि खाते हैं। ये दोनों इस समय तो नास्तिक हैं, खुदा को नहीं मानते, परन्तु इनकी औलाद मुसलमान होने वाली है।’’
मिर्जा साहब इसका प्रतिरोध नहीं कर सके। मन्त्री महोदय की गणना के अनुसार तीन हिन्दूओं के मुकाबले में पांच मुसलमान थे, परन्तु मिर्जा साहब तो हिन्दू-मुसलमान के प्रश्न से भी ऊपर पद्मदेव की ख्याति से ईर्ष्या करते थे। इस कारण वे कहने लगे, ‘‘पर साहब ! यह काफिर तो जाना ही चाहिए। उस दिन कॉलेज की डिबेटिंग क्लब में इसने कहा था कि हिन्दुस्तान की हदूद हिन्दुकुश से लेकर बर्मा इरावती नदी तक है। मौका मौका पर इन हदूद में बाहरी हमलों की वजह से रद्दो-बदल होते रहे हैं, परन्तु जब-जब भी मुल्क ताकतवर होता रहा है, हिन्दुस्तान, जिसको वह भारत के नाम से याद करता है, अपनी कुदरती हद तक पहुँच जाता रहा है। ऐसे खतरनाक आदमी का तो कॉलेज में रखना ठीक नहीं होगा।’’
‘‘पर मिर्जा साहब ! बात तो वह ठीक ही कहता है। हिन्दुओं की एक किताब है महाभारत। उसमें युधिष्ठिर के बारे में लिखा है कि उसने अपना चक्रवर्ती राज्य चलाया था और वह राज्य इतनी दूर-दूर तक फैला हुआ था। चक्रवर्ती राजा का मतलब ही यह होता था, जो इतने बड़े मुल्क हुकूमत कायम कर सके और हिन्दुओं में अनेकों चक्रवर्ती राजा हुए हैं।’’
‘‘कुछ भी हो साहब ! इस प्रकार के प्रोफेसर और ऐसी तालीम हमें नहीं चाहिए। मैंने तो लैथाब्रिज की तवारीख पढ़ी है। उसमें तो लिखा था कि आर्यों के बुजुर्ग खेती बाड़ी करते थे, जाहिल थे और हिन्दुस्तान छोटे-छोटे राज्यों में बंटा हुआ था।’’
मन्त्री साहब हँस पड़े और बोले, ‘‘अच्छी बात है। मैं इसकी बाबत प्रिन्सिपल को लिखूँगा और फिर हम इसके मुतअल्लिक कुछ तो कर सकेंगे।
2
यह सन् 1922 की बात थी। महात्मा गांधीजी का आन्दोलन समाप्त हो चुका था।
कांग्रेस दब चुकी थी। इसके प्रायः सभी नेता जेलों में थे। देश-भर में दफा
एक सौ चवालीस लगी थी, जिसके कारण जलसे-जलूस बंद थे। सन् इक्कीस की
धारा-सभाओं के निर्वाचनों में मुसलमान और हिन्दुओं के निर्वाचन पृथक-पृथक
हुए थे। मुसलमानों के प्रतिनिधि मुसलमानों के समाने उत्तरदायी थे और
हिन्दुओं के प्रतिनिधि हिन्दुओं के सामने। इसका परिणाम स्पष्ट था कि
मुसलमान सदस्य हिन्दुओं की किसी बात के लिए अपने को उत्तरदायी नहीं मानते
थे।
इन निर्वाचनों में एक बात यह हुई थी कि कांग्रेस ने निर्वाचनों का बहिष्कार किया था। जहाँ कांग्रेस ने प्रत्यक्ष रूप में, अपने प्रतिनिधियों को खड़ा नहीं किया था, वहाँ भंगी चमार, नाई खड़े कर उनका समर्थन किया था और वे जहाँ रायसाहब, रायबहादुरों को पराजित कर सके थे, वहाँ अनेक खड़े हुए विद्वानों को भी परास्त कर गये थे।
अतः इन विधान-सभाओं में, जहाँ मुसलमान मंत्री मुसलमानों के समर्थक पहुँच गये थे, हिन्दुओं के प्रतिनिधि सर्वथा अयोग्य अनपढ़ तथा वस्तु-स्थिति से अनभिज्ञ बन गये थे। यह बात 1924 तक चली। 1924 में नये निर्वाचन हुए। कांग्रेस ने अपने प्रतिनिधि कौंसिलों में भेजे, परन्तु वे तो वहां विघटन करने लगे थे।
पंजाब में शिक्षा-मंत्री एक पढ़े-लिखे मुसलमान थे। उन्होंने शिक्षा विभाग के हिन्दुओं की सफाई करनी आरम्भ कर दी। मुसलमान मन्त्रियों का यह कार्य चलता रहा और सन् 1924 आ गया। एक राजनीतिक भंवर में पद्मदेव की नौका फँस गई और उसके नाम ‘डायरेक्टर ऑफ एजूकेशन’ का एक पत्र प्रिन्सिपल को मिला। प्रिन्सिपल ने पत्र खोले बिना पद्मदेव तक पहुँचाने का निश्चय कर, चपरासी को वह पत्र, उसके घर पर जाकर दे आने की आज्ञा दी थी।
पत्र पिछले दिन आया थी और प्रिन्सिपल का अनुमान था कि यह पद्मदेव को कॉलेज से छुट्टी करने की आज्ञा है। उसने यह अनुमान अपनी पत्नी को बताया तो उसने अपनी सहेली सुरैया को बता दिया। सुरैया से प्रोफेसर ढींगरा को पता चला और वह मिर्जा को कह बैठा।
पद्मदेव घर पहुँचा तो चपरासी उसकी कोठी पर, उसको पत्र देने के लिए खड़ा था। चपरासी ने पत्र दिया तो पद्मदेव ने कहा, ‘‘मैं तो कॉलेज से ही आ रहा हूँ। वहीं यह पत्र क्यों नहीं दे दिया ?’’
‘‘प्रिन्सिपल साहब का हुक्म था कि यह पत्र घर पर ही जाकर दिया जाए।’’
पद्मदेव ने पत्र लिया और पिअन-बुक पर हस्ताक्षर कर दिये। चपरासी ने सलाम किया और बाईसिकल पर सवार हो चला गया।। पद्मदेव ने बाईसिकल अपने नौकर को दी और बरामदे में रखी कुर्सी पर बैठ, पत्र खोल पढ़ने लगा। लिखा था-
इन निर्वाचनों में एक बात यह हुई थी कि कांग्रेस ने निर्वाचनों का बहिष्कार किया था। जहाँ कांग्रेस ने प्रत्यक्ष रूप में, अपने प्रतिनिधियों को खड़ा नहीं किया था, वहाँ भंगी चमार, नाई खड़े कर उनका समर्थन किया था और वे जहाँ रायसाहब, रायबहादुरों को पराजित कर सके थे, वहाँ अनेक खड़े हुए विद्वानों को भी परास्त कर गये थे।
अतः इन विधान-सभाओं में, जहाँ मुसलमान मंत्री मुसलमानों के समर्थक पहुँच गये थे, हिन्दुओं के प्रतिनिधि सर्वथा अयोग्य अनपढ़ तथा वस्तु-स्थिति से अनभिज्ञ बन गये थे। यह बात 1924 तक चली। 1924 में नये निर्वाचन हुए। कांग्रेस ने अपने प्रतिनिधि कौंसिलों में भेजे, परन्तु वे तो वहां विघटन करने लगे थे।
पंजाब में शिक्षा-मंत्री एक पढ़े-लिखे मुसलमान थे। उन्होंने शिक्षा विभाग के हिन्दुओं की सफाई करनी आरम्भ कर दी। मुसलमान मन्त्रियों का यह कार्य चलता रहा और सन् 1924 आ गया। एक राजनीतिक भंवर में पद्मदेव की नौका फँस गई और उसके नाम ‘डायरेक्टर ऑफ एजूकेशन’ का एक पत्र प्रिन्सिपल को मिला। प्रिन्सिपल ने पत्र खोले बिना पद्मदेव तक पहुँचाने का निश्चय कर, चपरासी को वह पत्र, उसके घर पर जाकर दे आने की आज्ञा दी थी।
पत्र पिछले दिन आया थी और प्रिन्सिपल का अनुमान था कि यह पद्मदेव को कॉलेज से छुट्टी करने की आज्ञा है। उसने यह अनुमान अपनी पत्नी को बताया तो उसने अपनी सहेली सुरैया को बता दिया। सुरैया से प्रोफेसर ढींगरा को पता चला और वह मिर्जा को कह बैठा।
पद्मदेव घर पहुँचा तो चपरासी उसकी कोठी पर, उसको पत्र देने के लिए खड़ा था। चपरासी ने पत्र दिया तो पद्मदेव ने कहा, ‘‘मैं तो कॉलेज से ही आ रहा हूँ। वहीं यह पत्र क्यों नहीं दे दिया ?’’
‘‘प्रिन्सिपल साहब का हुक्म था कि यह पत्र घर पर ही जाकर दिया जाए।’’
पद्मदेव ने पत्र लिया और पिअन-बुक पर हस्ताक्षर कर दिये। चपरासी ने सलाम किया और बाईसिकल पर सवार हो चला गया।। पद्मदेव ने बाईसिकल अपने नौकर को दी और बरामदे में रखी कुर्सी पर बैठ, पत्र खोल पढ़ने लगा। लिखा था-
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