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ऐतिहासिक >> महाकाल

महाकाल

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :140
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5283
आईएसबीएन :81-88388-38-6

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महाकवि कलहण के ग्रन्थ राजतरंगिणी से लेकर एक अनुपम कृति...

Mahakal

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हिन्दी के महान साहित्यकारों में से एक, श्री गुरुदत्त की कलम से निकले 250 ग्रन्थों में से एक सशक्त ऐतिहासिक उपन्यास है महाकाल !
इस घटना प्रधान उपन्यास के भावो को प्रकट करने के लिए बीज महाकवि कलहण के ग्रन्थ राजतरंगिणी से लेकर एक अनुपम कृति देने का सफल यत्न ही है महाकाल !

एक ऐतिहासिक घटना से प्रेरित मनोरंजक उपन्यास जिसे गुरुदत्त जी ने अपनी कल्पना शक्ति से बेहद मनोरंजक, सरस, सरल व रोचक तो बना ही दिया है, साथ ही ज्ञान का अपार भण्डार भी प्रस्तुत किया है।

भूमिका

‘महाकाल’ एक उपन्यास है। इसका कथानक कल्हण के ऐतिहासिक ग्रन्थ राजतरंगिणी की एक कथा पर आधारित है।
कल्हण एक कवि था, इस कारण उसका ग्रंथ राजतरंगिणी कवि की कल्पनाओं की उड़ानों और उपमाओं तथा अलंकारों से अतिरंजित है। इस पर भी यह इतिहास है तिथिकाल से युक्त। महाभारत काल से लेकर मुसलमानी काल के आरम्भ तक का श्रृंखलाबद्ध कश्मीर का इतिहास इसमें है।
‘महाकाल’ उपन्यास है, इसमें औपन्यासिकता का आभास स्वाभाविक है। घटना-प्रधान उपन्यास में अपनी कल्पना का भी समावेश है। इस पर भी बीज राजतरंगिणी की कथा ही है।

कथा इस प्रकार है, कश्मीर के एक राजा मेघवाहन हुए हैं। महाराज मेघवाहन ही थे जिन्होंने भारत में बाहर वर्षीय कुम्भों के समारोह की प्रथा आरम्भ की थी। मेघवाहन का पुत्र प्रवरसेम था और उसके दो पुत्र थे- हिरण्य और तोरमाण। दोनों भाई प्रेमपूर्वक राज्यकार बांटकर चलाते रहे। तोरमाण राज्य की अर्थ-व्यवस्था देखता था। उस काल में मुद्राएँ साहूकार चलाते थे। तोरमाण की पत्नी काशिराज की पुत्री होने से अपने पिता के राज्य की प्रथा चलाने की प्रेरणा देने लगी और राज्य की ओर से निश्चित भार की दीनार नाम की मुद्रा प्रचलित कर दी गई। मुद्रा पर नाम तोरमाण का मुद्रित किया गया।

बड़े भाई हिरण्य को पत्नी ने भड़काया और कहा कि अपने नाम से मुद्रा चलाकर छोटा भाई स्वयं राजा बनना चाहता है। बड़े भाई हिरण्य को जब संदेह हुआ तो उसने छोटे भाई को बन्दीगृह में डाल दिया। उसकी पत्नी अंजना उसके साथ ही बन्दीगृह में रहने लगी। वहां उसके गर्भ ठहरा तो वह बन्दीगृह से निकल आलोप हो गयी। सुदूर पूर्व में राज्य के भीतर ही एक गांव में एक कुम्हार के घर में छुपे रहकर उसने पुत्र को जन्म दिया और पुत्र का नाम उसके बाबा के नाम पर प्रवरसेन रख दिया। मां को भय था कि हिरण्य अपनी पत्नी के सिखाने पर उसके पुत्र को न मरवा दे, इस कारण वह गुप्त स्थान पर एक कुम्हार के परिवार में रहती हुई पुत्र प्रवरसेन का गांव में ही पालन-पोषण करती रही।
कुछ काल के उपरांत बन्दीगृह में तोरमाण का देहान्त हो गया और कुछ ही समय उपरान्त हिरण्य भी नि:संतान मर गया। इस प्रकार राज्यविहीन हो गया। तब मन्त्रिगण मंत्री-सभा बना राज्य चलाने लगे। कई वर्ष तक मन्त्रिमण्डल राज्य चलाता रहा। इस काल में मन्त्रियों में कोई प्रमुख नहीं था। इस कारण सब लूट-खसोट करने लगे। अराजकता बढ़ने लगी तो मन्त्रियों ने यह उचित समझा कि भारत-सम्राट विक्रमादित्य से कहा जाये कि कोई अपने आधीन राजा वहां शासन करने के लिए भेज दें।

विक्रमादित्य ने अपनी सभा के कवि मातृगुप्त को वहां भेज दिया। इस विक्रमादित्य के विषय में राजतरंगगिणी ने कहा है कि वह शकों को देश से बाहर करने वाला था। इससे यह भास मिलता है कि वह विक्रमादित्य गुप्त परिवार का शासक चन्द्रगुप्त द्वितीय था। इससे यह अनुमान भी ठीक प्रतीत होता है कि मातृगुप्त विख्यात कवि कालिदास ही था। एक बात और भी इस कल्पना का समर्थन करती है। वह यह कि कालिदास के माता-पिता का ज्ञान नहीं।
यहां यह बता देना भी अति उपयुक्त होगा कि कुछ आचार्य इस विक्रमादित्य को गुप्त परिवार का नहीं मानते। न ही मातृगुप्त को रघुवंश का रचियता मानते हैं।

हमारा विचार है कि चंद्रगुप्त द्वितीय को उसके पिता समुद्रगुप्त ने तब ही विक्रमादित्य की उपाधि से विभूषित कर दिया था, जब वह अभी राजकुमार ही था। वह उस समय भी शंकों से युद्ध में बहुत शौर्य प्रकट कर चुका था।
हमारे अनुमान में एक प्रमाण यह भी है कि विक्रमादित्य नाम का चक्रवर्ती राजा, जिससे किसी राज्य के लिए शासक मांगा गया; वह इतिहास में चंद्रगुप्त द्वितीय ही हो सकता है। इतिहास में इसके अतिरिक्त किसी अन्य विक्रमादित्य सम्राट् का उल्लेख नहीं मिलता।

हमारा यह भी अनुमान है कि यही विक्रमादित्य अर्थात् चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य द्वितीय की विक्रम संवत का प्रवर्तक हुआ है। जो तिथि-काल विदेशीय इतिहासज्ञों ने गुप्तकाल के लिए निश्चय किया है, वह अशुद्ध है।
इस विषय में विस्तृत विवेचना हम अपनी रचना ‘इतिहास में भारतीय परंपराएं’ में कर चुके हैं जिसे अधिक विस्तार पूर्वक ‘भारतवर्ष का इतिहास’ में दिया गया है।
वैसे ‘महाकाल’ एक उपन्यास ही है। किसी भाव को प्रकट करने के लिए बीज राजतरंगिणी से लेकर यथाशक्ति एक सुन्दर भेंट निर्माण करने का यत्न किया है।

गुरुदत्त

प्रथम परिच्छेद
1

मध्य रात्रि व्यतीत हो चुकी थी। दूर कोई पुरुष मधुर, रसमयी ध्वनि में गा रहा था, साथ में वीणा भी बज रही थी। रात्रि की निस्तब्धता में यह ध्वनि खुली खिड़की में से होकर राजप्रासाद के शयनागार में भी पहुँच रही थी।
महाराज विक्रमादित्य अपनी दोनों पत्नियों के साथ पलंग पर क्रीड़ा करते हुए सो रहे थे, परन्तु इस मधुर गान और वीणा की स्वर-लहरी ने उन्हें जगा दिया। कुछ देर तक वह अपनी पत्नी कुबेर के बाहुपाश में बंधे हुए लेटे रहे और वीणा तथा गाने की मधुर ध्वनि को सुनते रहे, परन्तु जब गीत का भाव समझ में आने लगा तो पत्नी की भुजाओं को अपने गले से निकाल, उठकर पलंग पर बैठ गए। उनकी दूसरी पत्नी, जो उनके दूसरी ओर लेटी हुई थी, पलंग पर बैठी संगीत सुन रही थी।
ध्रुवदेवी महाराज को उठकर बैठते देख मुस्कराती हुई उनकी ओर देखने लगी। महाराज ने उसे बैठे देख पूछ लिया, ‘‘तो तुम जाग रही हो ?’’
ध्रुवदेवी ने अधरों पर अंगुली रखते हुए महाराज को चुप रहने का संकेत दिया। वीणा बज रही थी और गाने वाला गा रहा था :

है चला जा रहा महाकाल.....

गायन में रस था, भाव था और स्वर-वैचित्र्य था।
महाराज विक्रमादित्य को राजगद्दी पर बैठे बीस वर्ष से ऊपर हो चुके थे। महाराज तो स्वयं प्राय: पाटलिपुत्र में ही रहते थे, उनका प्रतिनिधि वररुचि मंत्री के रूप में उज्जयनी में राज्य चलाता था। ध्रुवदेवी को पाटलिपुत्र का जलवायु अनुकूल नहीं बैठता था और प्राय: उज्जयनी में ही रहती थी। महाराज दूसरी पत्नी कुबेर के साथ वहाँ आते-जाते रहते थे।
लगभग एक वर्ष की अनुपस्थिति के उपरान्त विक्रम उज्जयनी में दो दिन हुये आये थे। आज शयनागार में सोये-सोये इस रसमयी मधुर ध्वनि से उनकी नींद खुल गई। विक्रम को यह देख विस्मय हुआ कि ध्रुवदेवी पहले ही जाग रही थी। वह अपना विस्मय उससे प्रकट करने लगे तो उसने होठों पर अंगुली रखकर महाराज को चुप रखने के लिए कह दिया। गाने वाला गा रहा था :


है चला जा रहा महाकाल........


कुछ समय तक वीणा बजती रही और गाने वाले ने आगे गाना आरम्भ कर दिया:


टिक-टिक करता चला जा रहा है जीवन का विकराल काल।
खेल-कूद में निकल गया बाल्यकाल और यौवन काल।।
है चला जा रहा महाकाल


ध्रुवदेवी और विक्रम मंत्र-मुग्ध हुए सुन रहे थे। कुछ समय तक वीणा झंकार करती रही। गाने वाले ने फिर गाना आरम्भ कर दिया :

अति सुन्दर लुभायमान है यौवन में उन्माद भरा यह।
फूल-फूल पर फुदक-फुदक कर करता रहता जीवन रसाल।।
है चला जा रहा महाकाल।


विक्रमादित्य कुछ पूछना चाहते, परन्तु ध्रुवदेवी अभी भी संगीत सुनने का आग्रह कर रही थी। गीत चल रहा था :


जल कुंभ में हो छेद जैसे जीवन रस रिसता है वैसे।
रिक्त कुम्भ की भांति ही तो जीवन का है अन्तकाल।।
है चला जा रहा महाकाल।
इसमें रस नित भरता जा तू बूंद-बूंद कर जीवन घट को।
अन्तकाल तक रहे भरा यह सुकर्मों से हो जग निहाल।।
है चला जा रहा महाकाल।
जीवन के अवलोकन पर तब पाएगा अवशेष बहुत हैं।
 किया हुआ है तुच्छ कार्य अनकिया हुआ है अति विशाल।।
है चला जा रहा महाकाल।


वीणा तो संगीत समाप्त होने पर भी बज रही थी और बीच-बीच में यह स्वर गूंजने लगता था- ‘है चला जा रहा महाकाल।’
शयनागार की निस्तब्धता भंग ध्रुवदेवी ने। उसने पूछा, ‘‘नहीं समझे महाराज ?’’
‘‘नहीं, यह कौन है ? यह कवि मातृगुप्त तो नहीं ?’’
‘‘हाँ, आपके मित्र महाकवि मातृगुप्त ही हैं।’’
‘‘ओह, समझ गया, कालिदास !’’
‘‘हाँ, महाराज ! यह अपने परिचितों से कहते रहते हैं कि उनका नाम मातृगुप्त है।’’
‘‘यह अपने माता-पिता का नाम नहीं जानता। अपने पालने वाले को ही जानता है। वह भी अब नहीं रहा। इसी कारण वह अपने को मातृगुप्त के नाम से विख्यात कर रहा है।’’
‘‘रात के समय, जब यह गाता है तो पूरा राजप्रासाद गूंज उठता है।’’
‘‘जीवन से कुछ निराश प्रतीत होता है।’’

‘‘उसके स्वर से तो ऐसा प्रतीत नहीं होता। गीत के भाव में भी निराशा अनुभव नहीं होती।
एक लम्बी जीवन-यात्रा का ही संकेत प्रतीत होता है। यह कह रहा है कि इस यात्रा में अभी करने को बहुत कुछ है।’’
‘‘यह यहाँ दिन-भर क्या करता रहता है ? अब तो यह हमें मिलने भी नहीं आता।’’
‘‘परन्तु आपने उसे कभी बुलाया भी तो नहीं।’’

विक्रमादित्य इससे गंभीर विचार में मन में मग्न हो गये। महाराज को चुप देख ध्रुवदेवी ने वह दिन स्मरण करा दिया जब मंत्रिमण्डल छोटे भाई के स्थान पर बड़े भाई को शासक बनाना चाहता था। उस समय राजधानी पाटलिपुत्र के लक्ष-लक्ष नागरिक राजप्रसाद को घेरकर खड़े हो गये थे। उस लाखों की भीड़ के नेता कविवर कालिदास ही थे। मंत्रिमण्डल में हो रही चर्चा पर नागरिकों के इस प्रदर्शन का ही प्रभाव हुआ था कि छोटा भाई राजगद्दी पा गया था।
विक्रमादित्य को स्मरण आया तो क्षमा-भाव में कहने लगे, ‘‘हाँ, हमें उसे स्मरण रखना चाहिए था।’’
राजकुमार की साहित्यिक गोष्ठी के प्राय: सभी सदस्य, कुछ तो जीवन-कार्य से मुक्त हो चुके थे अथवा किसी-न-किसी राज्य-कार्य पर नियुक्त थे। कालिदास ने कभी राज्य-कार्य में रुचि प्रकट नहीं की थी और न ही विक्रमादित्य ने उसे किसी राज्य-कार्य के योग्य समझ उसकी किसी पद पर नियुक्ति की थी।

पलंग पर हलचल और वार्त्तालाप होता सुन महाराज की दूसरी पत्नी कुबेर की भी नींद खुल गई। वह भी उठकर बैठ गई और विस्मय से अपने पति और सह-पत्नी की ओर देखने लगी।
‘‘कुबेर, तुम अभी सो सकती हो। रात्रि अभी एक पहर से अधिक शेष है।’’
कुबेर ने मुस्कराते हुए पूछ लिया, ‘‘और आपके लिए दिन निकल आया है ?’’
इस पर तीनों हँसने लगे। विक्रम ने पूछा, ‘‘कुबेर, सुनो और बताओ यह कौन गा रहा है ?’’
इस समय मातृगुप्त गा रहा था :


है चला जा रहा महाकाल।
जीवन के अवलोकन पर तब पाएगा अवशेष बहुत हैं।
किया हुआ है तुच्छ काम अनकिया हुआ है अति विशाल।।
है चला जा रहा महाकाल।


‘‘तो महाराज,’’ कुबेर ने कह दिया, ‘‘अब सोना नहीं चाहिए। कुछ शेष कार्य कर लिया जाए।’’
‘‘हाँ, अभी मेरी कुबेर रानी का मन नहीं भरा।’’ विक्रमादित्य ने कहा और उसे अपने अंग-संग लगा लिया।
ध्रुवदेवी ने कहा, ‘‘कवि का भी तो मन भरा प्रतीत नहीं होता।’’ उसने पति का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते हुए फिर कहा, ‘‘महाराज, कवि को कृतकृत्य कर दीजिए। उसे राजप्रासाद में रहते हुए काल व्यतीत हो गया है।’’
‘‘हमें उसके दर्शन किए पाँच वर्ष से ऊपर हो चुके हैं।’’
‘‘आपके स्थान पर अगर मैं होती तो इसी समय उसे बुलाकर, उसकी इच्छा जान उसे निहाल कर देती।’’
‘‘इसी आधी रात के समय ?’’
‘‘परन्तु महाराज ! राज्य तो दिन-रात रहता है। शास्त्र कहता है :

दण्ड: शास्ति प्रजा: सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति।
दण्ड: सप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्म विदुर्बुधा:।।

(जब प्रजा सोती है तो दण्ड अर्थात् राज्य-कार्य जागता रहता है।)
‘‘ठीक है,’’ महाराज ने कहा, ‘‘कवि भी जाग रहा है। अभी उसकी अभिलाषा जानकर कुछ कर देता हूँ।’’
इस पर कुबेर ने महाराज के भुजापाश से निकलते हुए कहा, ‘‘महाराज, यह पुण्य-कार्य अविलम्ब करना चाहिए।’’



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