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राम कथा - अभियान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :178
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 529
आईएसबीएन :81-216-0763-9

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, छठा सोपान

एक

राम की दृष्टि प्रसवण गिरि के चरण प्रदेश पर गई। वानरों की अनेक सैनिक टुकड़ियां उनके आश्रम की ओर आ रही थीं। उनकी संख्या इतनी अधिक थी कि इस असाधारणता के कारण, राम के माथे पर भी चिन्ता की दों-रेखाएँ खिंच आईं।

''प्रातः हमारे जन-सैनिकों ने सुग्रीव के प्रासाद को घेरा था भैया! यह उसी का प्रतिकार तो नहीं है?''

''सुग्रीव इतना मूर्ख नहीं हो सकता।''

''किन्तु हमें सावधान तो रहना ही चाहिए।''

लक्ष्मण ने अनिन्द्य को संकेत किया। पलक झपकते ही समस्त आश्रमवासी शस्त्रबद्ध हो गए। किन्तु संशय की स्थिति अधिक देर तक नहीं टिक पाई। वे टुकड़ियां वानर सैनिकों की ही थीं, किन्तु उनमें से किसी के भी हाथ में कोई शस्त्र नहीं था। फिर वे टुकड़ियां आश्रम के बाहर ही, कुछ दूरी पर रुक गई थीं। लगा जैसे वे लोग किसी की प्रतीक्षा कर रहे हैं। थोड़ी ही देर में प्रसवण के पग-प्रदेश में एक शिविका आकर रुकी और उसमें से सुग्रीव उतरे। लक्ष्मण को दिए गए अपने वचन के अनुसार, वे आ पहुंचे थे। पर्वत के ऊपर पैदल ही चढ़े और सबसे पहले आश्रम में उन्होंने प्रवेश किया। वे सारे सैनिक सुग्रीव के ही समान, राम के सम्मुख हाथ जोड़कर खड़े हो गए।

''यह क्या कर रहे हो वानरराज।'' राम ने कुछ विस्मय के स्वर में कहा।

''आर्य! मेरी श्री, कीर्ति और सदा से चला आने वाला वानरों का यह राज्य प्रायः नष्ट हो चुका था। आप तथा आपके वीर भाई के प्रताप से इन सबकी पुनः प्रतिष्ठा हुई है। कृतज्ञता तथा उपकार को न मानने वाला पशु है। मैं अपने प्रमाद में ग्रस्त होकर अब तक जो पाप कर चुका हूं आपसे उसकी क्षमा-याचना करने तथा यथासंभव आपकी सेवा करने के लिए उपस्थित हुआ हूं।''

सुग्रीव, राम के सम्मुख घुटनों के बल बैठ गए और अपने जुड़े हुए हाथों पर अपना माथा टेक दिया। राम तत्काल आगे बड़े और उन्होंने कंधों से पकड़कर सुग्रीव को उठाया और हृदय से लगा लिया, ''मैं सौमित्र से सब कुछ सुन चुका हूं मित्र! आत्मग्लानि से अपने तेज को क्षीण मत करो। मैत्री समानता के आधार पर होती है। हम दोनों मित्र हैं। यदि इस प्रकार दीन व्यवहार करेंगे तो मैत्री टिक नहीं पाएगी।''

सुग्रीव प्रकृतिस्थ होकर राम के निकट एक शिला पर बैठ गए, ''राम, मैं दो कार्य साथ-साथ करना चाहता हूं, एक देवी जानकी की खोज में विभिन्न दिशाओं में खोजियों को भेजना और दूसरे वानर-यूथों को आसन्न राक्षस-युद्ध में, रावण की सेनाओं से युद्ध कर सकने योग्य प्रशिक्षण देना।''

''तीन कार्य एक साथ करो मित्र!'' राम सस्मित बोले, ''दो, जो तुमने कहें हैं और तीसरा-वानर प्रजा के हित, कल्याण कार्यों तथा किष्किंधा के निर्माण कार्यों को पूर्णता की ओर बढ़ाना।''

''हां! वह भी!'' सुग्रीव बोले, ''किन्तु देवी जानकी की खोज के लिए विभिन्न दिशाओं में भेजे जाने वाले वानरों का चयन महत्त्वपूर्ण कार्य है।'' वे निमिष-भर रुककर बोले, ''मेरा ऐसा विचार है कि हम संधान-टोलियों को यथासंभव प्रत्येक दिशा में भेजें, किन्तु अधिक संभावना यही है कि जानकी को रावण लंका में ही ले गया होगा। ऐसा मैं दो कारणों से समझता हूं : एक तो लंका की सुरक्षा-व्यवस्था की दृष्टि से और दूसरे, रावण सीता को अपने निकट ही रखना चाहेगा। इस समय उसके लंका में ही होने की संभावना अधिक है क्योंकि अन्यत्र कहीं से भी उसके किसी उत्पात के समाचार नहीं आ रहे हैं। इसलिए सबसे महत्त्वपूर्ण संधान-दल लंका की ओर ही जाना चाहिए। और उसमें सबसे योग्य व्यक्ति सम्मिलित होने चाहिए। मेरे विचार से हनुमान, अंगद, नील, तार, जाम्बवान् सुहोत्र, शरारि शरगुल्म, गज, गजाक्ष, गवय, वृषभ, मेद, द्विविध, गदमादन, उल्कामुख तथा असंग को दल में होना चाहिए।''

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस

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