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राम कथा - अभियान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :178
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 529
आईएसबीएन :81-216-0763-9

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, छठा सोपान

खा-पीकर जब मन कुछ स्वस्थ हुआ और चिन्तन-मनन की प्रवृत्ति जागी तो इस उपवन के विषय में उनकी जिज्ञासा जागी। यह प्राकृत वन नहीं था-इतनी बात निश्चित थी। उस समय उसका स्वरूप ऐसा नहीं था, जिससे यह समझा जाता कि उपवन की देखभाल ठीक से की जा रही है; किन्तु उसे संवारने में कभी-न-कभी, मनुष्य की बुद्धि और हाथ सहयोग अवश्य देते हैं-यह स्पष्ट था। पुष्करिणी के नीचे कहीं जल का उत्स भी रहा होगा, क्यों कि पुष्करिणी जल से आप्लावित थी और अतिरिक्त जल अनेक छोटी-छोटी धाराओं के रूप में विभिन्न दिशाओं में बह रहा था।

''यहां निकट ही कोई प्रासाद होना चाहिए।'' अंगद बोले।

''मेरा भी ऐसा ही विचार है युवराज!''

''यदि यहां प्रासाद हो, तो उसमें देवी बैदेही को छुपाकर रखने की भी संभावना हो सकती है।'' नील ने अपना विचार प्रकट किया, ''इससे अधिक उत्तम और गोपनीय स्थान कौन-सा हो सकता है।''

''संभावना हो तो सकती है।'' जाम्बवान् बोले,'' क्योंकि इतने गोपनीय

स्थान पर बनाया गया प्रासाद, इस प्रकार के कार्यों के लिए उपयुक्त समझा जा सकता है। किन्तु, मेरे मन में एक शंका है।''

''क्या?'' सबकी दृष्टि जाम्बवान पर टिक गई।

''यदि रावण ने देवी वैदेही को यहां बंदिनी बनाकर रखा होता तो वह स्वयं भी वहीं निकट ही कहीं विद्यमान होता।...इन दोनों ही स्थितियों में यह स्थान इस प्रकार सुरक्षित न छोड़ा गया होता।''

''दोनों ही संभावनाओं में कुछ-न-कुछ तथ्य प्रतीत होता है।'' अंगद बोले, ''पर हम पहले प्रासाद तो खोज लें।''

''युवराज ठीक कहते हैं।''

वृक्षावलियों के बीच में से होते हुए, वे आगे बढ़े। वृक्षों का आरोपण निश्चित योजनानुसार हुआ था। प्रत्येक झुरमुट के साथ कुछ पुष्पलताएं लगी थीं और फूलों की कुछ क्यारियां थीं। ऊंचे-ऊंचे वृक्षों की पंक्तियों की प्राचीर के पीछे विभिन्न प्रकार के फूलों के पौधे थे...और उनके केन्द्र में सचमुच एक बहुत बड़ा प्रासाद खड़ा था।

वानरों के पग थम गए। इस एकांत में, इतने गोपनीय ढंग से बनाया गया, जाने यह किसका इतना भव्य प्रासाद था; और वे लोग बिना जाने-बूझे, बिना किसी की अनुमति के भीतर घुस आए थे। संभव है कि प्रासाद का स्वामी शत्रु-पक्ष का हो। उसकी सैनिक शक्ति का भी उन्हें कोई आभास नहीं था। कहीं ऐसा न हो कि स्वयं से कहीं अधिक समर्थ और शक्तिशाली शत्रु के अवरोध में पड़कर वे यहां बन्दी हो जाएं और किष्किंधा में किसी को उनकी स्थिति की कोई सूचना न हो...

अंगद कुछ चिन्तित दिखने लगे थे। वे दल के नायक थे। दल के प्रत्येक निर्णय और कर्म के लिए उत्तरदायी थे। दल की सुरक्षा का बोझा उन्हीं के कन्धों पर था, ''बिना जाने-बूझे हमें इस प्रकार भीतर नहीं घुस आना चाहिए था।''

''आप यहां ठहरें युवराज।'' हनुमान बोले,'' मैं प्रासाद के भीतर जाकर देखता हूं...।''

''नहीं!'' अंगद बोले, ''अब तो जो एक का भाग्य है, वही सबका है। हम सब इकट्ठे ही जाएंगे।''

आगे-आगे हनुमान और अंगद थे; दो-दो की पंक्तियों में शेष लोग उनके पीछे। उन्होंने प्रासाद के भीतर प्रवेश किया।

प्रासाद निर्जन पड़ा था-कहीं कोई मनुष्य अथवा पशु दिखाई नहीं पड़ रहा था। इतना बड़ा  प्रासाद और सर्वथा मानव-शून्यः न कोई वहां बसने वाला, न प्रतिहारी, रक्षक अथवा दास-दासियां। टूटा-फूटा, खंडित प्रासाद होता तो वे लोग मान लेते कि खंडहर समझकर स्वामी द्वारा उसका परित्याग कर दिया गया होगा...किन्तु वह खंडहर नहीं था।

सहसा हनुमान और अंगद रुक गए। उनके साथ ही सारी पंक्तियां थम गईं। उनके सामने, थोड़ी दूर पर तपस्विनी वेश में एक स्त्री बैठी थी। उसने वल्कल और मृगचर्म धारण कर रखे थे। उसकी आंखें ध्यान में मुंदी हुई थीं।

''क्या ये वैदेही हैं?'' अंगद ने धीरे से पूछा।

''नहीं!'' हनुमान बोले, ''यह तो कोई वृद्वा तापसी है।''

तापसी का ध्यान भंग हो गया। उसके मुंदे नेत्र खुल गए। ''आओ वत्स! कौन हो तुम लोग?'' स्त्री ने सहस्र उनका स्वागत किया, ''यह स्थान तो अत्यन्त गोपनीय है, तुम यहां कैसे पहुंच गए?''

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस

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