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राम कथा - अभियान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :178
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 529
आईएसबीएन :81-216-0763-9

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, छठा सोपान


साहस कर, हनुमान आगे बढ़े। हाथ जोड़कर उन्होंने तापसी को प्रणाम किया और सादर बोले, ''माता, यदि प्रवेश वर्जित है तो हम अपराधी हैं। हमें क्षमा करना। वन में भटकते हुए, हम लोग भूख और प्यास से पीड़ित होकर, मार्ग भ्रष्ट हो, इधर चले आए हैं।''

''स्त्री ने क्षण-भर कुछ विचार किया और बोली, ''इतने लोगों के लिए भोजन तत्काल उपलब्ध  नहीं हो सकेगा। हां, फलाहार पर्याप्त है। तुम लोग फलों और जल से अपनी व्याकुलता मिटा लो; तब तक मैं भोजन का प्रबंध करा देती हूं...।''

''आप चिन्तित न हों माता।'' अनपेक्षित स्वागत पा हनुमान उल्लासित होकर बोले, ''अपनी व्याकुलता के कारण, हम आपकी अनुमति पाने तक धैर्य नहीं रख सके...यत्किचित मात्रा में कुछ-न-कुछ खा-पी चुके हैं।...अब यदि आपका परिचय मिल जाता...।''

''एक व्यग्रता मिटा चुके, दूसरी मिटाने का प्रयत्न कर रहे हो।'' तापसी के वृद्ध अधरों पर एक वात्सल्यपूर्ण मुस्कान आ विराजी, ''मैं इस प्रासाद की संरक्षिका, मेरुसावर्णि की कन्या, स्वयंप्रभा हूं।''

''और यह प्रासाद किसका है माता?''

''यह प्रासाद किसी समय मय दानव ने अपनी संपूर्ण विद्या के चमत्कार से अपने निवास के लिए निर्मित किया था। वस्तुतः वनों तथा पर्वत श्रेणियों की ओट में यह उसकी विहार-स्थली थी। सागर-तट पर यह सुन्दर प्रासाद कदाचित् उसने स्वयं को गुप्त रखने के लिए ही बनाया हो। यहां वह अपनी पत्नी हेमा के साथ रहा करता था; किन्तु हेमा के कारण ही इन्द्र से उसका विग्रह हुआ। हेमा यहां से चली गई। मय भी अधिक दिन यहां नहीं रहा। अपने बच्चों को लेकर जाने कहां चला गया। मैं उन दोनों के समय की, इस प्रासाद की संरक्षिका हूं। उन दोनों में से कोई भी अब तक इस ओर नहीं लौटा है और मैं इस प्रासाद की संरक्षिका बनी, उसके आने की प्रतीक्षा कर रही हूं।''

हनुमान ने आश्चर्य-भरी दृष्टि पहले रावण के श्वसुर मय दानव द्वारा बनाए गए, उस प्रासाद पर डाली और पुन-स्वयं को प्रासाद की संरक्षिका कहने वाली उस तपस्विनी पर! ''आप अकेली...?''

वृद्धा ने निर्मल अट्टहास किया, ''कोई अकेला कैसे रह सकता है पुत्र। मेरा पूरा कुटुम्ब है। वे लोग प्रासाद की प्राचीर के साथ पर्वत श्रेणी के बीच बसे गांव में रहते हैं।''

''आप लोग...''

''तुम तो विकट जिज्ञासु हो भाई।'' वृद्धा पुनः हँसी, ''अब थोड़ी देर तुम लोग विश्राम करो। मैं ग्राम में जाकर तुम्हारे भोजन का प्रबन्ध कराती हूं। शेष प्रश्न वहीं पूछ लेना; और हां मुझे भी तुम्हारा परिचय जानना है। वह सब भोजन कराकर ही पूछूंगी।'' उन्हें अवाक्-सा वहीं खड़ा छोड़, अपनी सधी चाल से वृद्धा एक ओर निकल गई।

''हम किसी षड्यन्त्र में तो नहीं फंस गए?'' वृद्धा के दूर निकल जाने पर अंगद धीरे से बोला, ''ऐसा न हो कि हमें भोजन का प्रलोभन देकर, यहां ठहरा, वह स्वयं सैनिकों को बुलाने गई हो।

''वैसे इतना तो उसने स्वीकार कर ही लिया है कि यह रावण के श्वसुर का प्रासाद है।'' शरगुल्म ने कहा, ''हम वस्तुतः शत्रु के घर के भीतर घुस आए हैं।''

''आप किष्किंधा से इसी कार्य के लिए चले थे।'' जाम्बवान् का स्वर कुछ वक्र हो उठा था, ''आपको प्रसन्न होना चाहिए कि आप अपने लक्ष्य पर पहुंच गए हैं।''

''मेरा अभिप्राय यह नहीं था तात जाम्बवान।''

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस

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