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राम कथा - अभियान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :178
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 529
आईएसबीएन :81-216-0763-9

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, छठा सोपान


''तुम्हारा अभिप्राय मैं भली प्रकार समझ रहा हूं वत्स!'' जाम्बवान् मुस्कराए, ''वैसे यह स्थान लंका से अत्यन्त निकट होना चाहिए; क्योंकि हेमा के वियोग से अत्यन्त पीड़ित होकर, मय दानव यहीं से मंदोदरी को लेकर रावण के पास गया था। इसलिए हमें प्रसन्न ही होना चाहिए कि हम लंका के निकट पहुच गए हैं। यदि वह वृद्धा तापसी इतनी कृपा करे कि लंका तक का कोई सरल और सीधा मार्ग बताकर इस मायालोक में से बाहर निकलने में हमारी सहायता करे तो उसका पर्याप्त उपकार मानना चाहिए।...फिर भी एक षड्यन्त्र में तो फंस ही गए हैं।

''कैसा षड्यन्त्र?''

''काल का षड्यन्त्र पुत्र!'' जाम्बवान् गम्भीर हो गए, ''विभिन्न व्याकुलताओं और उत्तेजनाओं में कदाचित तुम लोगों का ध्यान इस ओर नहीं गया कि वानरराज सुग्रीव की दी हुई एक मास की अवधि आज समाप्त हो गयी है...।

''क्या?'' अंगद जैसे निद्रा में से जागे।

''हां पुत्र! जाम्बवान् अपने धीर स्वर में बोले, ''और अवधि के पश्चात हमें किसी भी अवस्था में असफल नहीं लौटना है। अवधि के पश्चात असफल लौटने के अपराध का दण्ड क्या निर्धारित किया गया है, ज्ञात है

न?'' सबके चेहरों के रंग उड़ गए। सचमुच उन लोगों ने इस ओर ध्यान नहीं दिया था।

अपने साथियों की व्याकुलता देखकर हनुमान भी विचलित हो गए।

''तात जाम्बवान्! आप आधी बात पर बल दे रहे हैं।'' वे बोले ''अवधि समाप्त हो रही है, यह ठीक है; किन्तु वानरराज ने अवधि के पश्चात असफल लौटने पर दंड-विधान किया है। हम  यदि कार्य पूरा कर अवधि पश्चात् भी लौटें, तो सम्राट इससे प्रसन्न होंगे।

''हनुमान ठीक कह रहे हैं। अंगद भारी स्वर में बोले, ''अब हमें कार्य पूरा करके ही लौटना है; अन्यथा लौटने का कोई अर्थ नहीं है।''

''आप हताश न हों युवराज।'' हनुमान बोले, ''हम अवश्य ही सफल काम होकर लौटेंगे।'' अंगद  कुछ नहीं बोले।

हनुमान स्पष्ट रूप से देख रहे थे कि युवराज के मन में चिन्ता घर कर गई है। अंगद के साथ-ही-साथ तार भी उन्हें असाधारण ढंग से गम्भीर लगे। प्रासाद में प्रवेश करने का उल्लास क्रमशः समाप्त हो गया था और सारे दल पर, अवधि के बीत जाने के साथ-साथ, इस प्रासाद में घिर जाने की चिन्ता भी व्याप्त हो गई थी। जाने वह वृद्धा तापसी कौन थी और कहां गई थी। यदि वह कोई षड्यन्त्र न भी कर रही हो, तो भी इस प्रासाद रूपी कारागार से निकलने का मार्ग, जाने वह जानती भी है या नहीं। आस-पास की पर्वत श्रेणियां तथा वन इस प्रकार एक-दूसरे में गुंथे हुए थे कि एक बार भटक जाने पर, मार्ग पाना सहज नहीं था।

दल के नायक, युवराज अंगद की चिन्ता, अब खीझ का रूप ले चुकी थी। दल के साथ आए हुए खोजियों के प्रति वे अपनी खीझ अनेक प्रकार से प्रकट कर चुके थे : ''विचित्र प्रकार के खोजी हैं ये। ये लोग वही मार्ग जानते हैं, जो पूर्व ज्ञात और पूर्व प्रचलित है। तो फिर खोजी क्या हुए भाई तुम! जो सबको मालूम है, वहीं आपको भी मालूम है और तिस पर आज खोजी कहलाते हैं। इन्हीं के किष्किंधा आगमन तक वानरराज ने वैदेही की खोज स्थगित कर रखी थी।''

''खोज तो वर्षा ऋतु के कारण स्थगित थी।'' हनुमान धीरे से बोले।

''हां, हां, वर्षा के कारण स्थगित थी।'' अंगद बोले, ''क्योंकि वर्षा के जल के कारण वे मार्ग लुप्त हो गए थे, जो इन खोजियों को मालूम थे। अरे, कुछ ऐसे मार्ग भी रहे होंगे, जो वर्षा के जल में विलुप्त नहीं थे; किन्तु वे मार्ग इन खोजियों को ज्ञात तो हों! इनसे तो हम वैसे ही अच्छे थे। मार्ग के वनवासियों को पूछ-पूछ कर इनसे अधिक ज्ञान हो जाता हमें, इन पथों और मार्गों का। इस अभियान से यदि हम सकुशल किष्किंधा लौट गए और किसी कारणवश सम्राट ने  हमारा वध नहीं किया तो हम सब खोजी पद के अधिकारी हो जाएंगे।''

''खोजी पद कोई ऐसा ऊंचा पद तो नहीं है, जिसके लिए हममें से कोई अभिलाषी हो युवराज!''

''न सही ऊँचा पद।'' अंगद बोले, ''सम्राट ने इन्हें सिर पर तो चढ़ा रखा है न! इनके बिना कोई खोजी दल कहीं नहीं जाएगा। ओर इनसे पूछो, इन वृक्षों के पीछे से कोई मार्ग है या नहीं; तो ये कहेंगे कि ये वृक्ष कनेर के हैं, या जामुन के हैं, या ताड़ के हैं। अरे बाबा! तुमसे हम मार्ग के विषय में पूछ रहे हैं और तुम हमें वनस्पति-शास्त्र पढ़ा रहे हो! अच्छे खोजी हो तुम...।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस

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