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राम कथा - अभियान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :178
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 529
आईएसबीएन :81-216-0763-9

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, छठा सोपान

सामने से वह वृद्धा तापसी लौटती दिखाई दी तो अंगद का प्रलाप सहसा थम गया। किन्तु हनुमान की चिन्ता कम नहीं हुई : युवराज के मन में कोई चिंगारी सुलग रही थी, यदि वह बुझी नहीं तो निश्चित रूप से भयंकर विस्फोट करेगी। क्या अवधि समाप्त हो जाने के कारण ही वे इतने चिंतित हो उठे हैं? पर अवधि तो क्रमशः बीतती रही है और एक-एक दिन के साथ सबको आभास होता रहा है कि अवधि का कितना समय शेष रह गया है।...वैसे सम्राट द्वारा दंड-विधान का अर्थ भी नहीं था...वह तो खोजी-दलों की असावधानी से बचाने के लिए...

''चलो वत्सगण! भोजन तैयार है।'' वृद्धा ने कहा, ''आशा है, तुम इतना सुस्ता चुके होंगे कि थोड़ी दूर तक चल सको। वैसे भी संध्या उतरने वाली है। भोजन कर, विश्राम ही करना है।

''कितनी दूर तक चलना होगा माता?'' हनुमान ने पूछा।

''अधिक नहीं रे। पास ही मेरा ग्राम है, वहीं तक।'' वृद्धा ने हनुमान को स्नेहमिश्रित स्वर में धमकाया, ''इतना दीर्घकाय होकर भी चलने से डरता है रे! कैसा युवक है तू। मुझ वृद्धा से भी गया-बीता।''

''नहीं माता! यह बात नहीं है।'' हनुमान भी अपनी गंभीरता छोड़कर हंस पड़े, ''भोजन की जल्दी है।''

''अच्छा चल! वह भी देखूंगी, कितना खा सकता है तू!''

स्वयंप्रभा उन्हें पर्वतों के बीच घिरे एक छोटे-से गांव में ले आई। दस-बारह घरों से अधिक जनसंख्या नहीं थी। स्वयंप्रभा सबको अपना कुटुम्ब बता रही थी। पांच-सात कुटीर थे और शेष परिवार प्राकृतिक गुफाओं में ही रह रहे थे। दल के पहुंचने पर, अनेक स्त्री-पुरुष और बच्चों ने उत्सुकता से उन्हें घेर लिया। संकोचवश बात किसी ने भी नहीं की। उन्हें देखकर, मन-ही-मन पाली गई सबकी आशंकाएं स्वतः विलीन हो गईं। वे लोग योद्धा नहीं थे। न उनके पास कोई शस्त्र थे। वे अल्पमत उपकरणों के साथ, प्रकृति के बीच रहने वाले साधारण वनवासी थे।

भोजन तैयार था। आधे फल और कच्ची शाक-सब्जियां थीं; और पत्तों को तिनकों से जोड़कर बनाए गए पत्तलों पर भात परोसा गया था। ''माता! तुम सब लोग यहां रहते हो? हनुमान ने पुनः बात आरंभ की।

''तुझे अब भी कोई संदेह है?'' वृद्धा पोपले मुख से हंसी, ''तू ये कुटीर देख रहा है; गुफाएं देख रहा है; मेरे कुटुम्ब के लोगों को देख रहा है; हमारे घर में भोजन कर रहा है; फिर भी पूछता है कि हम यहीं रहते हैं क्या?''

''नहीं! मेरा तात्पर्य यह नहीं था।'' हनुमान तनिक झेंपकर मुस्कराए, ''मैं तो यही पूछ रहा था कि नगर बराबर फैला हुआ प्रासाद तुम्हारे पास है; फलों के उद्यान और उपवन हैं; जल की बावलियां, पुस्करिणियां और सरोवर हैं-फिर तुम लोग यहां क्यों रहते हो? वहां जाकर क्यों नहीं रहते?''

इस बार वृद्धा गंभीर हो गई, ''वह प्रासाद हेमा अप्सरा का है, या चाहो तो कह लो कि मय  दानव का भी है। हम तो इन वनों में इससे भी निरीह जीवन व्यतीत कर रहे थे। उसने हमें  निकट बुलाकर यहां हमारा ग्राम बसा दिया। अपनी देख-रेख में इन पर्वतों के बीच धान के कुछ खेत बनवा दिए। फलों के वृक्ष लगवा दिए। हम यहां बस गए। इस कुटुम्ब की वृद्धा होने के कारण उसने मुझे अपने प्रासाद की संरक्षिका नियुक्त कर दिया। अब तू हमसे यह अपेक्षा मत कर कि हम उसके उपकार भुलाकर कृतघ्नों के समान उसकी सम्पत्ति पर आधिपत्य  जमाकर उसका भोग करेंगे।''

''इसमें कृतघ्नता कहां है माता?'' हनुमान बोले, ''वह प्रासाद खाली पड़ा है; और तुम्हारा सारा कुटुम्ब कितनी असुविधा में जी रहा है। तुम किसकी प्रतीक्षा कर रही हो माता? मय दानव  अथवा हेमा अप्सरा में से कोई नहीं लौटेगा। मय के जामाता रावण ने जब से वारुणेयों को पराजित किया है, हेमा और मय में पुनः मेल हो गया है और वे दोनों उरपुर में सुख से रह रहे हैं। वैसे भी अब वे इतने वृद्ध हो गए हैं कि उन्हें किसी गुफा विहार-स्थली की आवश्यकता नहीं है। मय का पुत्र मायावी वानरराज बाली के हाथों मारा जा चुका है। मय की पुत्री मंदोदरी रावण की षट्टमहिषी बनी लंका में बैठी है-वह सोने की लंका छोड़ यहां वन में क्या करने आएगी? मय दानव का दुंदुभी नामक एक और पुत्र होना चाहिए; किन्तु उसके विषय में कुछ सुना नहीं गया। वानरराज बाली ने दुंदुभी नामक एक अरण्य-भैंसे का आखेट अवश्य किया था। पर भैंसे और मनुष्य में भेद होना चाहिए-नाम एक हो तो क्या हुआ?...अब यह प्रासाद तुम्हारा ही है माता। उसके भग्न हो, खण्डहर हो जाने की प्रतीक्षा मत करो। खण्डहर की रक्षा में अपना जीवन व्यतीत कर देंगी। प्रासाद मनुष्य के वास के लिए होते हैं-मनुष्य को खण्डहर बनाने के लिए नहीं।...''

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस

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