लोगों की राय

बहुभागीय पुस्तकें >> राम कथा - अभियान

राम कथा - अभियान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :178
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 529
आईएसबीएन :81-216-0763-9

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

34 पाठक हैं

राम कथा पर आधारित उपन्यास, छठा सोपान


''हम तपस्वी लोग हैं रे!'' वृद्धा ने हनुमान की बात बीच में ही काटकर कहा, ''हम प्रासादों में क्यों रहें।''

''अपने और कुटुम्ब को इस कष्ट और असुविधा में रखकर, उस सुन्दर प्रासाद के खण्डहर हो जाने की प्रतीक्षा में अपना जीवन बिताना, तपस्या नहीं, पाप है माता!...''

''अच्छा-अच्छा! तू बड़ा उपदेशक है, पर बूढ़ा सुग्गा कभी उपदेश

ग्रहण नहीं करता। तेरे पास सूचनाएं भी बहुत हैं। तू मय और हेमा के सारे कुटुम्ब के इतिहास से परिचित है। यहां तो कोई आता-जाता नहीं वत्स? इसलिए हमें कोई सूचनाएं नहीं मिलती। तूने बताया कि मंदोदरी रावण की पट्टमहषी है। मायावी मारा गया और दुंदुभी का पता नहीं।'' वृद्धा ने अट्टहास किया, ''वह अरण्ड भैंसा, जो बाली के हाथों में मारा गया, वह मय का पुत्र रहा होगा। मुझे याद है, वह अपने बालपन से ही अरण्य भैंसा था रे। इधर-उधर फुफकारता फिरता था...।'' वृद्धा सहसा रुक गई, ''अब तू मुझे बता, तू कौन है और तेरे साथ कौन-कौन हैं? तुम लोग यहां क्या करने आए हो?''

प्रश्न इतनी आकस्मिकता से आया था कि हनुमान के सम्मुख विकट मानसिक संकट खड़ा हो गया। अपना और अपने अभियान का परिचय वे लोग अब तक अत्यन्त गुप्त रखे हुए थे...उनका लक्ष्य और गंतव्य प्रकट हो जाने पर हानि भी हो सकती थी...इन लोगों का निकट का न सही, दूर का कोई-न-कोई सम्बन्ध रावण से बनता ही था। यदि इस अनुसंधान दल की सूचना इनके माध्यम से राक्षसों तक पहुंच गई!...वे लोग सरल-साधारण वनवासी हैं। किसी लालच अथवा लाभ की अपेक्षा में किसी को कुछ बताने न भी जाएं...तो भी किसी व्यक्ति की असावधानी अथवा अज्ञान से यह सूचना गलत हाथों में पड़ सकती है।

तो क्या इस प्रश्न को टाल जाए या कोई काल्पनिक परिचय दे दें?

किन्तु, वृद्धा की सरलता तथा तत्परता उन्हें असत्य बोलने से रोक रही थी और फिर सत्य बताने से वृद्धा से करुणा-विगलित हो, जिस सहायता की अपेक्षा थी, वह असत्य-कथन से प्राप्त नहीं हो सकती थी...

आमने-सामने बैठकर प्रश्न का उत्तर वे अधिक समय तक टाल भी नहीं सकते थे, और साथियों से इस संदर्भ में विचार-विनिमय भी नहीं कर सकते थे। सारा दायित्व हनुमान पर ही था। उन्हीं का निर्णय, उन्हीं का काम और परिणाम के लिए, वे ही उत्तरदायी। हनुमान को लगा, द्वन्द्व में सत्य कथन उनके लिए अधिक उपयोगी होगा, वैसे भी इतने सरल लोगों से क्या  दुराव? हनुमान ने संक्षेप में अपना और अपने साथियों का परिचय दिया और अपने अभियान के विषय में भी बताया।

वृद्धा गम्भीर हो गई। उसकी परिहास-मुद्रा विलीन हो गई, ''मेरी हेमा का जामाता, यह प्रतापी रावण परस्त्रीगामी है-वह दूसरों की स्त्रियों का हरण करता फिरेगा तो मंदोदरी कैसे सुखी रहेगी?

''हम रावण को खोजकर उसे ठीक मार्ग पर लाने के लक्ष्य से ही इन वनों-पर्वतों में भटक रहे हैं माता!'' हनुमान आत्मीयता से बोले। वे अनुभव कर रहे थे कि उनका सत्य बोलने का  निर्णय, दोनों पक्षों के लिए हितकर ही था, ''हम पर केवल इतनी कृपा कर दो कि कोई ऐसा सीधा और सरल मार्ग बता दो, जो हमें इस मायानगरी से तो बाहर निकाल ही दे, लंका के निकट किसी सागर-तट पर भी पहुंचा दे।''

वृद्धा मन खोलकर हंसी, ''तू इसे मायनगरी कहता है रे! दो-चार चक्कर लग गए तो यह मायानगरी हो गई। मायावी तो तुम लोग हो, जो इस गोपनीय स्थान में भी घुस आए। वह रुकी, ''अच्छा, भोजन कर लो। सीधे सागर-तट तक जाने वाला मार्ग दिखा दूंगी।''

मार्ग बता देने के आश्वासन का सारे दल पर स्पष्ट प्रभाव पड़ा। अब तक का सारा वार्तालाप स्वयंप्रभा तथा हुनमान में ही हुआ था। दोनों ओर से अन्य किसी भी व्यक्ति ने इसमें भाग लेने की उत्सुकता नहीं दिखाई थी। तापसी के कुटुम्ब वालों ने कदाचित् अपने संकोच के कारण और हनुमान के साथियों ने अपनी चिंताजन्य अरुचि के कारण...किन्तु इस आश्वासन के बाद अन्य लोग भी थोड़ा-बहुत बोलने लगे थे।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai