बहुभागीय पुस्तकें >> राम कथा - अभियान राम कथा - अभियाननरेन्द्र कोहली
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राम कथा पर आधारित उपन्यास, छठा सोपान
''सागर-तट आ गए हैं, तो लंका भी खोज लेंगे।'' हनुमान अपने आशावान् स्वर में बोले, ''आप इतने हताश क्यों हैं युवराज?''
''उधर देखो।'' अंगद ने चट्टानों के पीछे उगे एक वृक्ष की ओर संकेत किया, ''देख रहे हो हनुमान! वृक्ष पर फूल खिल रहे हैं; अर्थात् शरद् ऋतु बीतने को है। किष्किंधा लौटने की अवधि समाप्त हो गई है। मैंने
तुम्हारी बात मान ली थी कि सफलकाम होकर किष्किंधा लौटने में कोई संकट नहीं है; किन्तु अब तो सफलता की भी कोई आशा नहीं है।''
''युवराज! एक तो, अभी हताश होने का मैं कोई कारण नहीं देखता। दूसरे, यदि अपने सम्पूर्ण प्रयत्न के पश्चात् भी हम असफल ही रहे तो अपने निष्कपट प्रयत्न की सच्चाई बताकर हम सम्राट से दया की आशा कर सकते हैं। हम उनके सच्चे और उपयोगी अनुचर हैं तथा वानरराज सुग्रीव दयालु और धर्म पर चलने वाले राजा हैं...।''
''सुग्रीव और दयालु!'' अंगद का मुख क्रोध और भय से विकृत हो उठा, ''सुग्रीव जैसा क्रूर व्यक्ति देखा है कभी तुमने? जिसने राज्य के लिए अपने भाई का वध करवा दिया, उसे दयालु कहते हो तुम! जो अपने परोपकारी मित्र का कार्य भुलाकर माधवी पीकर कामासक्ति में पड़ा रहा-उसे धर्मरत राजा कहते हो!...मैं तो पहले ही समझ रहा था कि सुग्रीव ने मेरे साथ धूर्त्तता की है।... वह जानता था कि दक्षिण दिशा में कितनी कठिनाइयां हैं, इसलिए मुझे इस दल का नेता बना दिया और मामा तार को भी साथ कर दिया। वह तो चाहता ही था कि इन बीहड़ वनों और पर्वतों में भटक-भटककर, हम अवधि का समय व्यतीत कर, असफल किष्किंधा लौटें, ताकि वह हमारा अपराध सिद्ध कर, हमारा वध कर सके। मेरा सदा का वैरी सुग्रीव!''
''युवराज!'' हनुमान मन की आशंका सत्य होते देख चिंतित हो गए; किन्तु शीघ्र की स्वयं को संभालकर बोले, ''वानरराज आपसे प्रेम करते हैं। आपको युवराज बनाया है। उनके निष्कासन के समय आपने उनकी सहायता की थी, फिर आपने यह वैर की बात कैसे सोच ली?''
''युवराज मुझे सुग्रीव ने नहीं बनाया।'' अंगद तमककर बोले, ''युवराज मुझे बनाया, राम के अपराध-बोध ने। नहीं तो सुग्रीव मुझ, शत्रुपुत्र को युवराज क्यों बनाता? मैंने उसके निष्कासन के समय अपने पिता के विरुद्ध तब सुग्रीव की सहायता की-यह मेरी मूर्खता थी। सुग्रीव को तब सहायता की आवश्यकता थी, इसलिए वह मेरा कृतज्ञ हुआ-किन्तु वह कभी नहीं भूला कि मैं बाली का पुत्र हूं। तभी तो सम्राट बनते ही मेरी माता को अपनी पत्नी बना लिया। मुझे कहीं का नहीं छोड़ा सुग्रीव ने। एक तो हृदय से क्रूर, फिर राजा के पद पर अधिष्ठित और अवधि की सीमा बताकर मुझे अपराधी बना दिया।...मेरा किष्किंधा जाना व्यर्थ है। मैं अपना वध करवाने के लिए किष्किंधा जाना नहीं चाहता।...मैं यहीं उपवास कर अपने प्राण त्याग दूंगा।''
''सुनो युवराज!'' सहसा तार ने कहा, ''मैं भी तुमसे सहमत हूं कि किष्किंधा लौटना, वस्तुतः एक अपमानजनक मृत्यु को प्राप्त होना है। इसी लिए किष्किंधा जाने के पक्ष में मैं नहीं हूं; किन्तु उपवास कर प्राण देना भी मैं आवश्यक नहीं समझता।''
''तो?'' अंगद के साथ-साथ अन्य वानरों ने भी जिज्ञासा से तार की ओर देखा।
''मेरा प्रस्ताव है,'' तार ने उत्तर दिया, ''कि हम लोग मय दानव के उस प्रासाद में लौट जाएं। उस प्रासाद पर अधिकार जमाने से हमें रोकने वाला कोई नहीं है। प्रासाद की संरक्षिका उस वृद्धा के कुटुम्ब में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है, जो हमसे युद्ध कर सके। उनके पास कोई शस्त्र भी मुझे नहीं दिखा। उपवास कर, आत्महत्या करने की हमें क्या आवश्यकता है। उस प्रासाद में हम आपका राज्याभिषेक करेंगे और आपकी प्रजा बनकर रहेंगे। वहां न अन्न की कमी होगी, न जल की और न फलों की। यदि आवश्यक होगा, तो प्रजा भी इकट्ठी कर ली जाएगी। उस नगरी की रक्षा तनिक भी कठिन नहीं है। एक तो, वहां हमें कोई खोज ही नहीं पाएगा; और यदि खोज भी लेगा तो उन गुफाओं और पर्वत श्रेणियों के भीतर हमसे युद्ध नहीं कर पाएगा...।''
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