बहुभागीय पुस्तकें >> राम कथा - अभियान राम कथा - अभियाननरेन्द्र कोहली
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राम कथा पर आधारित उपन्यास, छठा सोपान
उन्होंने तत्काल स्वयं को संभाला। अभी तो यात्रा का आरम्भ मात्र था। और यह संकट, कोई इतना बड़ा संकट भी नहीं था। अभी तो सागर का मुख्य भाग आरम्भ भी नहीं हुआ था और उन्हें एक लम्बा मार्ग पार करना था। वे इतनी-सी बात से घबरा जाएंगे, तो आगे क्या करेंगे। उन संकटों का अभ्यस्त होना पड़ेगा। महेन्द्र गिरी, सागर के बीच में उठा हुआ एक पर्वत-खण्ड था और पर्याप्त हरा-भरा था। वनस्पति तथा अन्य जीव-जन्तुओं को देखते हुए लगता था कि यह पर्वत-खण्ड असाधारण रूप से उपजाऊ क्षेत्र था। विभिन्न प्रकार के विशाल वृक्षों के बीच स्थान-स्थान पर धूप में लेटकर सुस्ताते हुए मगर, कछुए तथा सर्पों की इतनी बड़ी संख्या हनुमान के लिए आश्चर्य का विषय थी। यदि वे आरम्भ से ही सावधान न रहे होते, तो किसी सोये हुए मगर को सूखी भूमि समझकर, उस पर पांव रख देने की भूल की अधिक संभावना थी। छोटे-बड़े सर्पों की तो जैसे वह क्रीड़ा-भूमि ही थी। सहज और उन्मुक्त रूप से विचरण करते उन सर्पों को देखकर लगता था कि उसकी पशु-बुद्धि में जैसे अपने किसी शत्रु की संभावना ही नहीं थीं। वे सारे जीव-जन्तु अपने बीच आए इस दीर्घाकार हृष्ट-पुष्ट नवागंतुक के कारण तनिक भी विचलित नहीं थे। हनुमान के पैर से ठोकर खाकर कोई कंकड़-पत्थर उनके अधिक निकट चला जाता अथवा उनके शरीर से छू जाता तो वे सिर उठाकर एक बार इधर-उधर देख अवश्य लेते थे। किन्तु शत्रुता के भार से हनुमान पर आक्रमण करने की बात उनमें से किसी ने नहीं सोची...कदाचित् मानव से अपनी शत्रुता का सम्बन्ध उन्हें अभी ज्ञात नहीं था।
हनुमान भी इस स्थिति से सन्तुष्ट थे...मगर तथा सर्पों का विचलित न होना ही उनके लिये श्रेयष्कर था। यदि वे विचलित हो जाते तो मार्ग में एक अनावश्यक बाधा खड़ी हो जाती; जिसका अर्थ था समय का अपव्यय और अतिरिक्त जोखिम! उचित यही था कि वे इन जीवों से कतराकर निकल जाते और समय रहते कम-से-कम त्रिकूट पर्वत पर पहुंच जाते। अंधकार के पश्चात् सागर में रहना हितकर नहीं था। महेन्द्र गिरि को हनुमान ने शीघ्रतापूर्वक पार किया और उसके दक्षिण खण्ड पर आकर खड़े हो गये। पानी से निकले इतनी देर हो चुकी थी कि शरीर पर का जल सूख गया था और उसके नमक का प्रभाव, शरीर के विभिन्न अंगों पर एक हल्की-सी जकड़न के रूप में प्रकट हो रहा था; किन्तु वहां न तो कहीं स्वच्छ जल उपलब्ध था कि हनुमान अपने शरीर को धो लेते, न इतना समय ही था कि वे जल खोजने निकलते। फिर उसका लाभ भी क्या था-क्षणभर में तो पुनः उन्हें खारे सागर में छलांग लगा देनी थी।
अब फिर उनके सम्मुख वहीं लहराता सागर था और मन में उसे पार कर जाने की चुनौती! इस बार हनुमान ने छलांग लगाई तो उन्हें लगा कि यहां का जल कुछ अधिक ताजा तथा स्वच्छ था। कदाचित् यह भाग वृहत् क्षेत्र का अंग था और यहां का पानी, पिछले भाग के समान स्थिर नहीं था। इस जल में गति थी, किन्तु वह उनके मार्ग की बाधक नहीं थी। हल्की-हल्की लहरें उन्हें आगे बढ़ने में सहायता दे रही थीं। लगता था कि अनुकूल दिशा में चलकर वायु उनकी सहायता कर रही थी। जल को हटाकर आगे बढ़ने के लिए उतना श्रम नहीं करना पड़ रहा था। सूर्य का आतप भी अब प्रखर नहीं था। लगता था, आकाश पर तीसरे प्रहर का तापरहित सूर्य चमक रहा है; सूर्य तथा जल का तापमान मिलकर शरीर को एक प्रकार का गुलगुलापन ही दे रहे थे। हनुमान को लग रहा था कि यदि इतने कम श्रम से इतनी सुविधापूर्वक तैरा जा सकता है तो वे कई दिनों तक लगातार तैरते ही जा सकते हैं।
किन्तु इस सुगमता ने बहुत दूर तक उनका साथ नहीं दिया। आधा प्रहर बीतते-बीतते ही, जल कुछ ठण्डा होने लगा और जल के भीतर जीव-जन्तु तैरते दिखाई देने लगे। हनुमान समझ नहीं सके कि सहसा ही जल-जन्तुओं की संख्या इतनी बढ़ कैसे गई? क्या उनके जन्म तथा विकास के लिये यह जल-क्षेत्र पिछले जल-क्षेत्र से अधिक अनुकूल था?...
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