बहुभागीय पुस्तकें >> राम कथा - अभियान राम कथा - अभियाननरेन्द्र कोहली
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राम कथा पर आधारित उपन्यास, छठा सोपान
उनके हाथों के थपेड़ों से झटके जाते हुए जल के साथ अनेक छोटे-छोटे जीव, बलात् पीछे की ओर धकेले जाते हुए वे स्वयं देख रहे थे। छोटी मछलियां तो जल में होती हुईं इस अपरिचित हलचल के कारण स्वतः ही उनसे विपरीत दिशाओं में मुड़ जाती थीं। पानी के स्पंदन जैसी, हल्की लहरों को दूर-दूर से सूंघकर ही जैसे उन्हें अपने लिये किसी संकट का संकेत मिल जाता था।...किन्तु अनेक धृष्ट जन्तु भी उनके आसपास मंडरा रहे थे और हनुमान निरन्तर सचेत थे कि उनमें से कोई भी किसी भी क्षण उनके अत्यन्त निकट आ सकता है, उनमें से कोई भी किसी भी क्षण उनके शरीर को छू सकता है, उनसे लिपट सकता है। और इतनी बड़ी संख्या में से यह पहचानना अत्यन्त कठिन था कि उनमें से कौन-सा जन्तु मनुष्य के लिए घातक हो सकता है और कौन-सा सर्वथा निरीह था। नये प्रकार के जन्तुओं को पहचानना तो दूर-यहां पहचानी हुई वस्तुओं में भेद कर पाना कठिन हो रहा था। विषैले तथा विषहीन सर्पों तथा मत्स्यों का अन्तर मालूम नहीं हो रहा था। मछलियां अपनी नवीनता, विचित्रता और कभी-कभी अपनी दुर्मुखता के कारण सर्प मालूम होने लगती थीं और सर्प अपनी सरलता तथा निरीहता के कारण मछली जैसे लगते थे। या कौन जाने, वे जन्तु सर्प अथवा मत्स्य में से कुछ भी न हों। पृथ्वी के समान, जल में भी असंख्य प्रकारों, जातियों तथा वर्गों के प्राणी होंगे-उन्हें केवल मत्स्य तथा सर्प-दो ही वर्गों में विभाजित करना तो असम्भव था।...सागर-तट के भूगोल, वनस्पति तथा जीव-जन्तुओं में तो हनुमान ने प्रायः रुचि ली थी और उनके विषय में जानने का प्रयत्न भी किया था। उन्होंने बहुधा सोचा था कि समुद्र के विषय में विभिन्न दृष्टिकोणों तथा आयामों से सोचना तथा उनका अध्ययन करना लाभदायक हो सकता है। अनेक वानर-यूथ, सागर की नाक पर रहते थे सागर-तट के भीतर के भूगोल, वनस्पति तथा प्राणीशास्त्र के विषय में उन्होंने न कभी सोचा था न जाना था। कदाचित् उसका एक कारण अधिकांश आर्य आश्रमों का सागर से असम्पर्क था। जंबू द्वीप के आर्य प्रायः भूमि से ही बंध गये थे। आर्यावर्त्त के आर्यों का तो सागर से और भी कम सम्पर्क था। वे अपने आसपास की नदियों में तो फिर भी रुचि लेते थे, किन्तु सागर से अपनी भौतिक दूरी के कारण सागर उनके लिये प्रायः अपरिचित ही था। उन्हें सागर के भीतर की सम्पत्ति से कोई विशेष प्रयोजन नहीं था। हनुमान तथा उनके साथियों ने भी ज्ञान की दिशाएं, इन्हीं आश्रमों से ग्रहण की थीं; अतः उनकी भी इस दिशा में विशेष गति नहीं थीं...
सहसा उन्होंने देखा कि उनसे पांच-छः हाथों की दूरी पर सर्प जैसे अनेक जन्तुओं का एक भयंकर गुंजलक, जल के ऊपरी तल पर निश्चित सोया पड़ा था। या कदाचित् वह गुंजलक सोया नहीं था, मात्र निष्किय पड़ा था। अनेक जन्तु परस्पर उलझे हुए, गुंजलक मारे पड़े थे; या वह एक ही जन्तु था जिसके शरीर से असंख्य शिराएं निकलकर परस्पर गुंथी हुई थीं-यह समझना भी हनुमान के लिए कठिन था। उन्हें अपने लिए सुरक्षित मार्ग लगा कि वे उससे कतराकर निकल जाएं। किन्तु इतना निकट आकर कतराना शायद सम्भव नहीं था...हनुमान ने सांस रोकी और जल के भीतर डुबकी लगा दी...
वे अधिक देर तक जल के भीतर नहीं रह सके। भीतर का संसार उनके लिए और भी अधिक अपरिचित था। जल के भीतर जिसे उन्होंने जड़वस्तु समझकर हाथ लगाया था, उसने अपनी समाधि तोड़, हाथ-पैर निकाल, चलना आरम्भ कर दिया।...वैसे भी जल के भीतर अधिक देर तक बने रहने का उन्हें अधिक अभ्यास नहीं था, ऊपर तो आना ही था। किन्तु, ऊपर आने से पहले, जो कुछ उन्होंने देखा, वह अद्भुत था। यदि उन्होंने उस अनोखे गुंजलक से बचने के लिए डुबकी न लगाई होती, तो
कदाचित् सामने वाले एक भयंकर संकट की ओर उनका ध्यान न गया होता और वे सिर के बल उससे टकरा गए होते; उनके सम्मुख एक विराट् जलमग्न पर्वत था।...उन्हें ठीक याद नहीं था, किन्तु कहीं-न-कहीं उन्होंने इस पर्वत के विषय में सुना अवश्य था...यह अवश्य की मैनाक पर्वत होगा...एक पूरी-की-पूरी पर्वत श्रेणी, जो अपने पूरे विस्तार, समस्त मृगों, वनस्पति तथा जीव-जन्तुओं के साथ जलमग्न थी। जल के ऊपर तैरते हुए हनुमान, यह कल्पना तक नहीं कर सकते थे कि जल के भीतर इतना बड़ा समग्र पर्वत, किसी अहंकार-मुक्त व्यक्ति के समान इस प्रकार स्वयं को छिपाए हुए होगा...यह तो अच्छा हुआ कि उस गुंजलक से बचने के लिए, उन्होंने जल में डुबकी लगा दी थी...मैनाक पर्वत उस जन्तु के समान एक सामान्य-सा गुंजलक नहीं था, जिससे वह कतराकर निकल जाते, या जिससे बचने के लिए जल की सतह की दृष्टि से कुछ नीचे या ऊपर हो जाते। एक पूरा पर्वत उनका मार्ग रोके खड़ा था; उसकी जड़ें सागर की थाह से भी नीचे तक गई हुई थीं। उसके मृग यद्यपि जल के भीतर थे, किन्तु निर्भीक होकर अपना सिर ऊपर उठाए हुए थे। योजनों तक फैली उसकी श्रेणियां, कहीं से भी वायु के निकलने-भर को भी स्थान देती दिखाई नहीं पड़ती थीं। सारे सागर को अवरुद्ध किए खड़ा वह मैनाक, हनुमान का भी मार्ग रोके खड़ा था।...
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