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राम कथा - अभियान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :178
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 529
आईएसबीएन :81-216-0763-9

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, छठा सोपान

हनुमान ने क्रमशः ऊपर उठना आरम्भ किया। ऊपर...और ऊपर...किन्तु, मैनाक पर्वत तो जैसे मायावी था। जल के प्रत्येक थपेड़े के साथ प्रत्येक हल्की लहर के साथ लगता था कि मैनाक का कोई-न-कोई मृग जैसे ऊपर उठ रहा हो। यह पर्वत तो जैसे जीवित प्राणी था, प्राणवत्ता तथा चेतना से युक्त। और इस समय वह हनुमान से शत्रुता साधे बैठा था-जैसे लुका-छिपी खेल रहा हो। वे जिस दिशा और मार्ग से आगे बढ़ना चाहते थे, वह जैसे उछलकर वहीं खड़ा हो जाता था-दायें-बायें ऊपर-नीचे; दिक्संधियों में...वह तो प्राचीर थी पूरी की पूरी, पवन-संचार को भी रोक देने वाली...या मैनाक कह रहा था, "आ, मुझ पर विश्राम कर ले! रुक जा। थम जा। "पर जलमग्न पर्वत पर कोई क्या विश्राम करेगा-जिस पर न कोई बैठ सके, न खड़ा हो सके; न चल सके, न थम सके। कैसी विडंबना थी...हनुमान परेशान हो उठे...

मैनाक के ऊंचे-ऊंचे जलमग्न मृगों पर दीर्घाकार सर्प विश्राम कर रहे थे। इतने बड़े सर्प इस यात्रा में उन्हें अभी तक दिखाई नहीं दिए थे। तैरते हुए हनुमान किसी मृग से छू भी गए तो शायद पत्थर से होने वाले आघात से बच भी निकलें, किन्तु कोई सर्प उनसे लिपट गया तो हनुमान के लिए अंग-संचालन भी कठिन हो जाएगा। नाग-पाश में बांधकर समुद्र में डाल दिए गए व्यक्ति के समान निष्किय-निस्पद डूबते जाने के सिवाय उनके सामने कोई उपाय नहीं रह जाएगा...

किन्तु, हनुमान रुक नहीं सकते थेः दम साधकर पूर्व अर्जित वेग के साथ वे बहते चले गए। गति बहुत धीमी हो गई थी और बैल के सींगों के समान उठे हुए मैनाक के मृगों के आधा हाथ ऊपर से हनुमान जैसे सरकते हुए निकल गए। एकदम ही थम न जाएं, इसलिए हाथ-पैर हिलाते ही दो-एक स्थानों पर उनके पैर, ऊपर उठने में जल से होड़ करते हुए मृग से छू गए। सम्मोहन की-सी अवस्था में हनुमान ने सांस तक रोक ली।...अगले ही क्षण उन्होंने देखा-श्रृंग को छू जाने पर भी, वे आगे बढ़ आए थे और अब मैनाक उनके सम्मुख मानो घुटने टेक रहा था। उनके मृग क्रमशः अधिक से अधिक नीचे होते जा रहे थे...

यद्यपि मैनाक पीछे छूट गया था; किन्तु पर्वत से जा टकराने की दुष्कल्पना हनुमान के मस्तिष्क से जैसे चिपक गई थी। कितनी ही देर तक स्वच्छ और साफ-सुथरे जल में भी उन्हें बड़ी-बड़ी पर्वताकार शिलाएं तैरती हुई आभासित होती रहीं। लगता था, या तो वे परस्पर टकराकर जल में बवंडर उत्पन्न कर देंगी, या फिर वे सीधी आकर उन्हीं से टकरा जाएंगी। कहीं-कहीं सागर-गर्भ में से पर्वत-का ऐसे उगते हुए दिखाई देते, जैसे भूमि में से नारियल अथवा ताड़ के पेड़ उगते हैं-सीधे, गोल और तने हुए। वे स्वयं समझ नहीं पा रहे थे कि यह मैनाक का ही इतना भयावह

प्रभाव उनके मस्तिष्क पर पड़ा था; या शरीर की थकान के कारण उनकी आंखों के सम्मुख शून्य में से नई सृष्टि उत्पन्न हो रही थी; अथवा जल पर खेलती हुई सूर्य-रश्मियों का यह कोई माया-जाल अथवा मृग-मरीचिका थी। जो कुछ भी था, उनके लिए अच्छा नहीं था-मन और शरीर, दोनों ही ऐसी कल्पनाओं से थर्रा जाते थे। मैनाक का शिला-संसार पीछे छूट गया था, किन्तु उसकी जीव-सृष्टि वहीं समाप्त नहीं हुई थी। या फिर अब बड़े जन्तुओं का क्षेत्र ही आरम्भ हो गया था। मैनाक के मृगों पर सर्प जैसे जो दीर्घाकार जन्तु हनुमान ने देखे थे-वैसे अनेक जन्तु अब उनके आस-पास क्रीड़ा करते दिखाई दे रहे थे। या तो वे अपने भीतर के किसी सुख में इतने आत्मलीन थे कि अपने परिवेश की घटनाओं में कोई आकर्षण दिखाई नहीं देता था, या हनुमान का वहां होना, उनके हाथ-पैरों से फेंके गए जल की धाराएं अथवा उनके कारण सागर में उत्पन्न हलचल इतनी नगण्य बात थी कि उनकी ओर उनका ध्यान खिंचता ही नहीं था...हनुमान सोच रहे थे...या फिर यह भी संभव है कि ये जन्तु अन्य जीवों की ओर केवल अपनी भूख के कारण ही आकृष्ट होते थे और इस समय वे भूखे नहीं थे। हनुमान को लग रहा था, जैसे वे किसी साफ-सुथरे पथ से निकले जा रहे हो और ये जन्तु उस पथ के दोनों ओर लगे वृक्षों के समान, अचंचल सृष्टि हों, पथिक के प्रति उदासीन।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस

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