बहुभागीय पुस्तकें >> राम कथा - अभियान राम कथा - अभियाननरेन्द्र कोहली
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राम कथा पर आधारित उपन्यास, छठा सोपान
पर थोड़ी ही दूर जाकर एक पर्वताकार सर्प, उन्हें ठीक अपने सामने इस प्रकार पड़ा मिला, जैसे कोई वृक्ष उखड़कर, टूटकर अथवा कटकर पथ के बीचों-बीच आ पड़ा हो...उसके कारण उनका मार्ग अवरुद्ध हो गया लगता था...इतना ही नहीं वह सर्पाकार जन्तु असाधारण रूप से दीर्घाकार था जैसे मैनाक ही पुनः सर्प का शरीर धारण कर उनका मार्ग रोककर पड़ गया हों-उसने हनुमान को देख भी लिया था और वह उनकी ओर से उदासीन भी नहीं रहा था।...हनुमान को लगा, अभी-अभी वे सोच रहे थे कि कदाचित् ये सर्प भूखे नहीं हैं, और अभी ही यह भयंकर जल-दानव अपनी भूख जताने को उनके सम्मुख आ बैठा था...
उनका मस्तिष्क बड़ी तीव्रता से सोच रहा था। वे उनके निकट जाना नहीं चाहते थे; किन्तु यदि वह उनकी ओर बढ़ा तो? उसका आकार ऐसा नहीं था जिसे बिना किसी शस्त्र के प्रहार के आक्रमण करने से विमुख किया जा सके। ऐसे समय में उनका गदा उनके पास होता तो...पर गदा लेकर इतना लम्बा संतरण-मार्ग...इस समय तो गदा नहीं है...।
सर्प ने वर्तुलाकार एक ऐंठन-सी ली और हनुमान के ठीक सामने आकर मानो उन्हें निगलने के लिए अपना मुख खोल दिया।...हनुमान स्तब्ध रह गए...यह नागमाता सुरसा के आकार का विराट् सर्प, भूखा ही नहीं, आक्रामक भी था...यह तो युद्ध के लिए चुनौती दे रहा था...वे बचकर निकल जाना चाहें तो क्या वह निकल जाने देगा?...
हनुमान ने आगे चलने के स्थान पर, बाईं ओर बढ़ना आरम्भ कर दिया। किन्तु वह सर्प अपने स्थान पर ही टिका नहीं रहा, उसने सायास अपनी सक्रियता बाईं ओर फेर दी, और दो ही क्षणों में वह पुनः हनुमान के सम्मुख पहले के ही समान, अपना मुख खोले पड़ा था।...हनुमान की चिंता कुछ बढ़ी...इतने बड़े सर्प से युद्ध के लिए शस्त्र न हों, और युद्ध किए बिना वह जाने न दे, तो क्या हनुमान को सर्प की ही इच्छा पूरी करनी होगी?...लंका पहुंचकर वैदेही को खोज करने के स्थान पर इस जल-दानव के पेट में समाकर उसकी भूख मिटानी होगी?...
हनुमान ने पुनः अपनी दिशा बदली-इस बार वे जल्दी-जल्दी दाहिनी ओर बढ़ रहे थे...सर्प ने भी क्षणभर के निरीक्षण से उनकी दिशा पहचान, पहले जैसा ही वर्तुलाकार चक्कर लिया और वह पुनः आकर उनके सम्मुख खड़ा हो गया। इस बार उसने अपना मुख फाड़ा तो हनुमान को लगा कि वह मानो उस क्षेत्र के सारे जल के साथ ही उनको निगल जाने के लिए तत्पर बैठा है...हनुमान वापस लौटे...किन्तु सर्प को भी अपनी ओर बढ़ते देख, उन्हें अपनी भूल का भान हुआ। दायें और बायें चलने से सर्प इन दिशाओं में मुड़ने के स्थान पर एक लम्बा वर्तुलाकार चक्कर काटता था और सामने आकर खड़ा हो जाता था। उसमें उसे थोड़ा-सा समय लगता
था; किन्तु पीछे लौटने पर उसे केवल सीधे बढ़ना पड़ता था, जो उसके लिए तनिक भी कष्ट साध्य नहीं था।...अब यदि हनुमान स्वयं आगे बढ़ते तो उसके और भी निकट पहुंच जाते...वे पुनः बाईं ओर मुड़े...सर्प दैत्य ने वैसे ही वर्तुलाकार चक्कर लिया और मुख फाड़कर सामने खड़ा हो गया।
हनुमान के मन में एक विचार कौंधा...यह सर्प सुविधा से केवल आगे बढ़ सकता था, वह भी क्षिप्र गति से नहीं मंथर गति से।...दायें-बायें मुड़ने में उसे असुविधा होती थी। पीछे पलटना तो उसके लिए और भी कठिन था...फिर, वह स्वयं आगे बढ़कर दंश करने, प्रहार करने अथवा निगलने का प्रयत्न नहीं करता था। वह ठीक सामने आकर मुंह खोलकर बैठ जाता था कि शिकार जल-प्रवाह के साथ-साथ स्वतः उसके मुख में चला जाए...यह तो बड़ा धैर्यवान् आखेटक था।
हनुमान बार-बार अपने तैरने की दिशा बदल रहे थे। वे थोड़ी दूर तक बाईं ओर बढ़ते, और सर्प जब वार्तुलाकार चलकर सामने खड़े होने की तैयारी कर रहा होता, तो वे दाईं ओर मुड़ जाते; सर्प पुनः अपनी समाधि भंग कर अपनी प्रक्रिया दुहराता...हनुमान के मन में यह तथ्य अत्यन्त स्पष्ट हो चुका था कि इस बुद्धिहीन जल-दैत्य से वे केवल अपनी स्फूर्ति के ही कारण बच पाएंगे। युद्ध का प्रश्न नहीं था, युद्ध का प्रयत्न करते ही उसके मुख में समा जाते; अथवा वह उन्हें अपने लम्बे शरीर में लपेटकर दो-चार ऐंठनों में उनके शरीर की सारी हड्डियां तोड़ देता। सीधे-सीधे तैरते हुए भी उससे बच निकलने का कोई मार्ग उन्हें दिखाई नहीं देता था-क्योंकि वह आखेट के लिए तत्पर बैठा था।...स्फूर्ति ही हनुमान की रक्षा का साधन हो सकती थी।
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