बहुभागीय पुस्तकें >> राम कथा - अभियान राम कथा - अभियाननरेन्द्र कोहली
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राम कथा पर आधारित उपन्यास, छठा सोपान
हनुमान ने थोड़ा जोखिम उठाने का निर्णय किया, अन्यथा कदाचित् उन्हें भी स्वयं को थका- थकाकर, अंततः हारकर, स्वयं को उस नागमाता-सुरसा की कृपा पर छोड़ देना पड़ता। उन्होंने तीन-चार बार अपनी दिशाएं बदलकर उस दैत्य को भी उतने वर्तुलाकार चक्कर लगवा दिए। अधिक चक्कर लगाने से उसकी गति और भी मंथर होती दिखाई पड़ी। फिर एक बार हनुमान दाईं दिशा में बड़ते ही चले गए। लगा कि सर्प निश्चित है कि इस बार वे अपनी दिशा नहीं बदलेंगे और निरन्तर उसी एक दिशा में ही बढ़ते जाएंगे, उसने भी एक बड़ा-सा वर्तुलाकार चक्कर लिया और ठीक सामने जाकर बैठ गया। उसने बड़ा-सा मुख फाड़ा और प्रचुर मात्रा में जल निगल गया। फिर उसने अपनी आंखें बंद कर लीं और निगला हुआ वह सारा जल उगलने लगा, जैसे कोई फव्वारा चला रहा हो...हनुमान को यही उपयुक्त समय लगा...सर्प की मुद्रा से यही आभास मिल रहा था कि इस बार वह निश्चित होकर बैठ गया था। और अब कदाचित् जल्दी नहीं हिलेगा। हनुमान सीधे बढ़ते चले गए। जल दैत्य की खुली आंखों ने हनुमान को अपनी ओर बढ़ते देखा। उसने तृप्ति की मुद्रा में अपनी आंखें मींचीं और मुख को और भी अधिक फाड़ दिया।...हनुमान धनुष से छूटे बाण के समान उसके खुले मुख के निकट से होते हुए, उसके पार निकल गए।
सर्प थोड़ी देर तक तो अपनी ध्यान-मुद्रा में मुख फाड़े बैठा, हनुमान के अपने मुख में समा जाने की प्रतीक्षा करता रहा; किन्तु जब उसकी अपेक्षा से अधिक विलम्ब हो गया तो उसने अपनी आंखें खोलीं और इधर-उधर देखा। कहीं कुछ दिखाई नहीं दिया तो उसने जैसे कुछ सोचते-सोचते टहलते हुए एक वैसा वर्तुलाकार चक्कर लिया और दूर निकल गए हनुमान को देखा। हनुमान थोड़ी-थोड़ी देर के पश्चात् पलटकर उसकी ओर देख रहे थे। उसके चक्कर काट लेने पर उनकी स्थिति संकटपूर्ण हो गई थी। अब यदि वह सीधा आगे बढ़ता तो दो-चार क्षणों में वह फिर उनके निकट पहुंच सकता था; किन्तु सर्प ने दूर जाते हुए हनुमान को उदास आंखों से देखा, और अपनी आंखें पुनः बंद कर लीं।
हनुमान की जान में जान आई। उन्हें लगा कि वे जैसे उस सर्प के मुख में से होकर निकले हैं; और यदि सर्प अपनी ही इच्छा से संतुष्ट होकर न बैठ जाता, तो जाने अभी उन्हें और कितना पीड़ित और व्याकुल होना पड़ता। अंततः परिणाम क्या होता-यह भी क्या कहा जा सकता है। यहां न उनकी शारीरिक शक्ति ही सार्थक लग रही थी, न उनकी वीरता ही उनके
काम आती-यह तो धैर्य और विवेक ही था, जिसने उन्हें बचा लिया था...या शायद संयोग भी...किन्तु अभी बहुत दूर नहीं गए थे कि उन्हें पुनः एक और वैसा ही सक्रिय और तत्पर जल-जन्तु दिखाई पड़ा। किन्तु, न तो वह सर्प था और न पिछले सर्प जैसा विराट्काय ही था। उसकी मुखाकृति बता रही थी कि वह सर्प नहीं था। किन्तु वह क्या था-हनुमान समझ नहीं पा रहे थे। उसका मुख विकट चौड़ा और भयंकर था-जैसे प्रकृति ने जीव का विद्रूप प्रस्तुत किया हो। उसकी आंखों में तीव्र और मुखर घृणा और हिंसा को देखकर कोई भी समझ सकता था कि वह आक्रामक मुद्रा में था और भक्षण के लिए व्यग्र हो इधर-उधर भटक रहा था। न तो उसकी गति मंथर थी और न उसे मुड़ने और उलटने-पलटने में कोई विशेष असुविधा प्रतीत हो रही थी। उसकी स्फूर्ति देखते ही हनुमान समझ गए थे कि उससे भिड़न्त अनिवार्य है। वैसे भी पिछले इतने सारे श्रमसाध्य व्यायाम और इस लम्बी तैराकी के पश्चात् उनमें धैर्य कुछ कम रह गया था और मन में उग्रता आ रही थी।...यदि उस सिंहिका ने आक्रमण किया तो फिर हनुमान स्वयं को रोक नहीं पाएंगे।
कदाचित् वह सिंहिका भी अपने मन में आक्रमण की ही योजना बना रही थी। जिस प्रकार हनुमान के लिए वह एक नये प्रकार का अद्भुत जन्तु थी, जिसे उन्होंने पहले कभी नहीं देखा था; उसी प्रकार उसके लिए भी हनुमान एक नये प्रकार के आखेट थे, जिसे उसने पहले कभी नहीं खाया था। भूख से व्याकुल उस जल-राक्षसी को इतना बड़ा जीव अनायास ही भक्षणार्थ मिल रहा था। अत्यन्त घातक तथा हिंस्र बना देने वानी उसकी भूख का समाधान उसके सामने था। ऐसा अवसर चूक जाना उचित नहीं था। सिंहिका झपटकर हनुमान के सम्मुख आ गई। उसकी गति और स्फूर्ति को देखते हुए हनुमान के मन में अपनी गति की मंथरता तथा थकावट दोनों की अत्यन्त मुखर होकर उभरीं और साथ ही खीझ का भी उन्होंने अनुभव किया। अधिक सोचने-समझने अथवा बचाव पद्धति का अन्वेषण करने का समय नहीं था। सिंहिका निरंतर उनके निकट आ रही थी। अगले ही क्षण उसने अपना मुख फाड़ा और उन पर झपट पड़ी।
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