बहुभागीय पुस्तकें >> राम कथा - अभियान राम कथा - अभियाननरेन्द्र कोहली
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राम कथा पर आधारित उपन्यास, छठा सोपान
हनुमान का मन अत्यन्त हलका हो आया। उन्होंने प्रायः असंभव कार्य को संभव कर दिखाया था।...वे जब चले थे, तो ऊपर से कुछ भी कहते, उनका मन पूरे विश्वास से यह नहीं कह पा रहा था कि वे सफलकाम होगे...किन्तु, अब घटनाएं सिद्ध कर रही थीं कि सागर संतरण में वे सफल हुए थे...सामने वन-श्रेणी थी, उसके पीछे त्रिकूट पर्वत था और उस पर लंका बसी हुई थी।
हनुमान ने धरती पर पैर रखा तो उनका शरीर थककर चूर-चूर हो चुका था; किन्तु मन में इतना उल्लास था कि जैसे दस बार इस सागर को पार कर जाएँगे, तो भी नहीं थकेंगे। उन्होंने मन का उल्लास समेटा और एक वृक्ष के तने से टिककर, सुस्ताने के लिए पैर फैला दिए। अपनी फैली हुई टांगों पर उनकी दृष्टि पड़ी और फिर वही दृष्टि ऊपर की ओर यात्रा करती हुई अपनी धोती, पेट, वक्ष और भुजाओं से कंधों तक का निरीक्षण कर गई। सारे शरीर पर सागर के खारे पानी का नमक जमा हुआ था और शरीर पर एक विचित्र प्रकार की भुरभुरी-सी सफेदी छाई हुई थी। धोती तो जाने सागर के किन-किन तत्त्वों से कौन-कौन-सा रंग ग्रहण कर चुकी थी। उन्होंने हाथों से मलकर, कुछ रगड़कर शरीर से सागर का क्षार उतारने का प्रयत्न किया। सूखा नमक भुरभुराकर गिरा भी; किन्तु इतने से शरीर स्वच्छ नहीं हो सकता था। उसके लिए तो वे किसी स्थान पर ठहरकर निर्मल जल से अच्छी तरह स्नान करते, पर ठहरने का समय किसके पास था। संध्या ढल रही थी।
हनुमान उठकर खड़े हो गए। इतनी लम्बी जल-यात्रा के पश्चात् पृथ्वी पर पैर जैसे सीधे नहीं पड़ रहे थे। तलुवे कठोर भूमि का स्पर्श भूल गए थे और टांगों को शरीर का बोझ उठाने का अभ्यास नहीं रह गया था। हनुमान मुस्कराए...कैसा होता है यह मनुष्य का शरीर भी।
रेतीली भूमि से वे कुछ अधिक कठोर भूमि पर आ गए। वृक्ष पीछे छूट गए और खुला मैदान आ गया। उसके पश्चात् कुछ ऊंची भूमि आरंभ हो गई थी...कदाचित् इसी को त्रिकूट पर्वत कहा जाता हो...उसके ऊपर बने अनेक ऊंचे-ऊंचे भवन दिखाई पड़ रहे थे...पथ आए और फिर नगर का परकोटा भी दिखाई देने लगा।
प्रदोष काल था और मुख्य द्वार से अनेक लोग नगर में प्रवेश कर रहे थे : भीड़ में अनेक प्रकार के लोग थे...जाने वे कहां से आ रहे थे...
हनुमान ने एकांत स्थान ढूंढ़कर अपनी भुजाओं के अंगद तथा गले का कंठहार उतारकर अपनी धोती में खोंस लिए। अब उनके शरीर पर कोई आभूषण नहीं था। विशिष्ट वस्त्र तो कोई था ही नहीं। घुटनों से ऊपर तक की बंधी हुई, मैली-कुचैली-सी नाना वर्ण की धोती थी, जिसका मूल रंग खोज पाना अब संभव नहीं था...
भीड़ के पीछे-पीछे हनुमान भी चल पड़े। तोरण के पश्चात् अनेक मार्ग आरंभ हो जाते थे और वे अनेक छोटे-छोटे द्वारों के भीतर चले जाते थे। हनुमान उन फाटकों के निकट से चलते गए। प्रत्येक फाटक पर सशस्त्र प्रहरी खड़े थे और वे विभिन्न प्रकार के प्रश्न पूछ रहे थे। हनुमान उन फाटकों को आगे छोड़ते गए। अंतिम फाटक को झांककर देखा : लगा, वहां कोई नहीं है। न प्रवेश करने वाला और न कोई पूछताछ करने वाला। उन्होंने सिर झुकाया और चुपचाप प्रवेश कर गए। किन्तु, वह फाटक भी सर्वथा अरक्षित नहीं था। कदाचित् वह विशिष्ट जनों के प्रवेश के लिए था, अतः सर्वसाधारण वहां भीड़ लगाए नहीं खड़े थे।
हनुमान के प्रवेश करते ही, किसी ने उन्हें टोक दिया, "ऐ कहां जा रहा है?" हनुमान ने गर्दन उठाकर देखा, प्रहरी! किन्तु शायद वह पुरुष नहीं था, स्त्री थी। स्त्री प्रहरी। तो लंका में स्त्रियां भी प्रहरियों का काम करती हैं?
"आंखें फाड़कर मेरी ओर क्या देख रहा है?" वह पुनः बोली, "मैं पूछ रही हूं, कहां जा रहा है?''
"लंका में?''
"क्या काम है?''
"घूमने-फिरने आया हूं।" हनुमान ने बात बनाई, "सुना हैं लंका में ऊंचे-ऊंचे प्रासाद तथा लम्बे-चौड़े पथ हैं। उन्हें ही देखने आया हूं। देखकर लौट जाऊंगा।"
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