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राम कथा - अभियान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :178
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 529
आईएसबीएन :81-216-0763-9

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, छठा सोपान

रावण फुंफकारता हुआ आगे बढ़ गया। मंदोदरी ने सीता की ओर देखा। सीता के चेहरे पर भी हल्की-सी मैत्रीपूर्ण मुस्कान उभरी, किन्तु बोला कोई भी नहीं, न मंदोदरी, न सीता। मंदोदरी भी बढ़ी। साथ-साथ सारा अन्तःपुर भी बढ़ा। उन्हें घेरे हुए दासियां भी चल पड़ी।

हनुमान ने पलटकर देखा। यद्यपि मंदोदरी, रावण के साथ-साथ चल रही थीं, किन्तु उन्होंने अपने तनाव को शिथिल नहीं होने दिया था; किन्तु अन्य स्त्रियां रावण के आस-पास इस भंगिमा में मंडरा रही थीं, जैसे रावण

का विरोध दूर होते ही उसके कण्ठ से लग जायेगी।

हनुमान ने पुनः अपनी दृष्टि सीता की ओर घुमाई। वे अब भी शांत-सतेज भाव से अपने स्थान पर स्थिर बैठी थीं। इस बीच पुरुष प्रहरी भी अपने शस्त्र समेटकर जा चुके थे और अब वहां वे ही स्त्री प्रहरी रह गई थीं, जिन्हें हनुमान ने सबसे पहले वहां देखा था। उन लोगों ने सीता को घेर रखा था और किटकिटाए ढंग से कोस रही थीं।

"यह पता नहीं कैसी कुलच्छनी है! इसकी समझ में कोई बात ही नहीं आती। भला एक स्त्री चाहती क्या है? सम्राट में कौन-सा अभाव है-सुदर्शन हैं, स्वस्थ हैं, शक्तिशाली हैं; और फिर सम्राट हैं। धन, सम्पत्ति, सत्ता, वैभव-ऐश्वर्य-सब कुछ है। उस कंगले तपस्वी के पीछे पागल हुई पड़ी है? स्वयं भी दुखी है और हमें भी पीड़ित कर रखा है।"

"और न हो जिसके भाग्य में राज-सुख, वह कहां से भोग लेगी। उसे देखा उस धान्यमालिनी को, सम्राट के कंठ में बांहें डालने को कितनी आतुर थी। प्रासाद तक पहुंचने का भी धैर्य उसमें नहीं था। यहीं उनके गले में झूल रही थी। और एक यह है अभागिन कि सम्राट बार-बार याचना करते हैं और यह दुष्टा उन्हें पैरों से ठुकराती है। वह तो कहो कि सम्राट पर इसके सौन्दर्य का जादू चल गया है, नहीं तो कब से काटकर डाल दिया होता इसे...।"

"ऐसी तो कोई सुन्दर भी नहीं है। सम्राट को पता नहीं, इस बार क्या हो गया है। केशों से पकड़कर, घसीट ले जाएं अपनी शय्या पर; नहीं तो कर दें इसका वध...।"

"तुझे जल्दी किस बात की पड़ी है बहना!" हंसता हुआ एक स्वर आया, "लक्षण बड़े स्पष्ट हैं। अन्त में इसके टुकड़े होंगे। तुम मदिरा तैयार कर रखो।"

"वह तो होना ही है। पर जितना विलम्ब होता जा रहा है, उतना ही इसका मांस सूखता जा रहा है। पता नहीं इसका वह कंगला तापस कैसा है, जिसके विरह में यह ऐसे सूख रही है। ऐसे ही दो मास और बीत गये, तो यह तो एकदम खंखाड़ हो जायेगी। सूखा छिछड़ा मांस खाने में क्या आनन्द आयेगा...जब यह आई थी तो कैसा गुदगुदा शरीर था इसका।"

"इसका तो सूखा छिछड़ा मांस ही खा लेना। जब इसका वह कंगला तपस्वी यहां आयेगा, उसका गुदगुदा मांस भी खा लेना।"

"अरे छोड़ो। कौन खाने देगा उसका मांस तुमको। उसके लिये घात लगाये वह बैठी नहीं है क्या।"

"कौन।"

"सम्राट की बहन? शूर्पणखा।"

"वह! वह उसे भी ऐसे ही बन्दी करके रखेगी। प्रतिदिन प्रेम की याचना करेगी। पता नहीं, वह उसे मारने भी देगी, या बेचारा सुख-सूख कर ही मर जायेगा...।"

"जो भी हो। तुम मदिरा तैयार रखो। इसका वध होगा तो निकुंभला देवी की पूजा करेंगे। मदिरा के साथ मानव-मांस का स्वाद लेंगे।"

"सुनो! सुनो! मेरी बात सुनो।" हनुमान ने पहचाना, यह उस राक्षसी का स्वर था, जिसे त्रिजटा कहा गया था।

"मैंने एक स्वप्न देखा है।"

"कब?"

"कल रात?"

"क्या देखा है?''

"मैंने राजाधिराज को मूड मुडाए, तेल में डूबा हुआ देखा है। और इस सीता पति को श्वेत पुष्पों की माला पहने, श्वेत वस्त्र धारण किये हुए, शिविका में आते देखा है।" त्रिजटा बोली।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस

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