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राम कथा - अभियान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :178
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 529
आईएसबीएन :81-216-0763-9

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, छठा सोपान


"इसका क्या अर्थ हुआ विनता?''

"इसका अर्थ तो भयंकर है।" उत्तर देने वाली शायद विनता ही थी, "इसका अर्थ है इसके पति की विजय और राजाधिराज की मृत्यु! यह त्रिजटा तो सदा ऐसे ही सपने देखती रहती है।"

"इसमें मेरा क्या दोष है?" त्रिजटा अनुनय-सी करती हुई बोली, "मैंने

जो देखा था, तुम्हें बता दिया। मुझे तो इसका अर्थ भी मालूम नहीं था। यह तो अभी विनता ने बताया है। नहीं तो क्या मैं अपने राजाधिराज की मृत्यु चाहूंगी।"

"छोड़ो! इसने तो सारा स्वाद ही बिगाड़ दिया।" विनता का स्वर आया, "अब नींद भी नहीं आ रही है। लाओ, किसी ने मदिरा छिपा रखी हो तो दो घूंट पी लें और सोए। यह चुड़ैल तो जाने कब तक ऐसे ही हमारी छाती पर बैठी मूंग दलती रहेगी।"

"अभी से सो जाओगी क्या?" त्रिजटा ने पूछा।

"अभी और तभी क्या?" विनता बोली, यह भागकर कहां जायेगी? बाहर निकलते ही जाने किसके हाथ पड़े। हर पुरुष, प्रेम की याचना नहीं करता। हां..." वह रुकी, "भीतरी चौकी वाले सैनिक आ ही गये होंगे, पर अभी तक उनकी बकवास सुनाई नहीं पड़ी।"

"बकवास क्यों कहती हो भला।" कोई नया स्वर सुनाई दिया, "तुम्हारे कानों में तो वह अमृत रस बनकर टपकता है। कभी-कभी तुम्हारा नायक भी होता है, उनके साथ।"

"तूने भी चोंच खोली मेरी नन्ही मैना!" विनता बोली, "मुझे भी प्रघसा समझ रखा है क्या? यहां किसी नायक को घास नहीं डालती। अपना हिसाब सीधा है। जिसके पास स्वर्ण-मुद्रा हो, वह आ जाए। स्वर्ण-मुद्रा नहीं है तो अपना प्रेम अपने पास रखो। स्वर्ण-मुद्रा से कम में कोई बात नहीं।"

"अच्छा, अब सो जाओ।" त्रिजटा बोली, "जाने कब कोई स्वर्ण-मुद्रा वाला आ जाये और तुम्हें जागना पड़े।"

"स्वर्ण-मुद्रा के लिये जागने में सुख है, सखी! मैं राजाधिराज की बहन नहीं कि स्वर्ण-मुद्रा भी दूं, राज्य भी और अपने-आप को भी।"

"चलो अब अपने-अपने स्थान पर।" राक्षसियां उठीं। उन्होंने उस अशोक वृक्ष और सीता के कुटीर को घेरते हुए एक बड़ा-सा वृत्त बनाया। और अपने लिए व्यवस्था कर लेट, गईं।

"अच्छा भाई। अब कोई बोले नहीं।" विनता बोली, चाहे किसी का नायक आये या राजपुत्र। मुझे नींद आ रही है।"

"देख विनता, लड़ना नहीं है, तो बकवाद बन्द कर।" यह शायद प्रघसा थी, "तूने अनेक बार नायक का उपालंभ मुझे दिया है। मैं कुछ कहती नहीं, तो इसका यह अर्थ नहीं है कि तू बढ़ती जाये। तेरे पास कोई नायक आता है, तो तू भी बुला ले। वह स्वर्ण-मुद्रा नहीं देता तो क्या हुआ-पदोन्नति तो कर ही सकता है।"

"अच्छा अब लड़ो मत। सो जाओ।" त्रिजटा ने उच्च स्वर में आदेश दिया।

उनका वार्तालाप अकस्मात् ही बन्द हो गया। अंधकार में हनुमान देख नहीं सके कि वे सो गई थीं, या वैसे ही चुप हो गई थीं...किन्तु, अब सीता से बात कर सकने की सम्भावना हनुमान के मन में जाग रही थी। यदि वे सोई नहीं हैं, तो सो जाएंगी। यदि ये राक्षसियां सचमुच सो जाएं, तो वे वृक्ष से उतरकर, सीता को राम का संदेश तो दे ही सकते हैं। उन्हें थोड़ी-बहुत सांत्वना भी दे सकते हैं...वैसे तो इन विषम परिस्थितियों में भी सीता ने जो धैर्य, साहस और तेज दिखाया था, वह अद्भुत था। फिर भी यदि उन्हें यह सूचना दी जा सके कि हनुमान जाकर राम को बताएंगे कि सीता यहां है और राम उन्हें मुक्त कराने के लिये, किष्किंधा से ससैन्य चल पड़ेंगे, तो निश्चित रूप से उनका आत्मबल और भी बढ़ेगा। प्रहरी राक्षसियों के वार्तालाप का कोई शब्द सुनाई नहीं पड़ रहा था। बीच-बीच में कभी-कभी किसी के खर्राटे का स्वर आ जाता था।...वृक्षों के पीछे से कुछ लोगों के आने और उनके परस्पर संवाद की थोड़ी ध्वनि हुई थी वे कदाचित् भीतरी चौकी वाले वे सैनिक थे, जिनकी चर्चा उन राक्षसियों ने की थी। पर उनकी ध्वनियां भी शीघ्र ही शांत हो गईं। या तो वे भी सो गये थे, या अलसाकर चुपचाप पड़े थे। उनके कहीं चले जाने का कोई अर्थ ही नहीं था।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस

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