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राम कथा - अभियान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :178
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 529
आईएसबीएन :81-216-0763-9

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, छठा सोपान

वे निकट आई तो हनुमान ने पुनः धीरे से पुकारा, "देवि वैदेही!"

सीता चकित, ठगी-सी रुक गईं। कहां से आ रहा है यह स्वर? कौन पुकार रहा है? सीता ने जैसे ही ऊपर की ओर देखा, हनुमान ने मुद्रिका डाल दी। सीता ने देखा वृक्ष पर कोई अपरिचित पुरुष छिपा बैठा है और उसने कोई वस्तु गिराई है। कैसा है यह पुरुष? इसकी आकृति मुखर से कुछ-कुछ मिलती है, पर नहीं! यह मुखर नहीं है। इसका आकार मुखर से बड़ा है। इसके मुख के भाव भी, मुखर से भिन्न है या शायद अन्धकार के कारण वे ठीक से देख नहीं पा रहीं, पर सीता धोखा नहीं खा सकतीं : यह मुखर नहीं है। पर इसमें और मुखर में कुछ-न-कुछ साम्य अवश्य है। कदाचित् यह भी वानर जाति का ही है, पर इसने कुछ कहने के स्थान पर कुछ गिराया है, क्या गिराया है?

थोड़ा-सा प्रयत्न करने पर वह वस्तु उन्हें मिल गई। उन्होंने कधकार में उसे देखा-परखा। कुछ समझी और कुछ नहीं समझीं। मुद्रिका लेकर उसकी पूर्ण परीक्षा करने के लिए वे अपनी कुटिया में चली गईं। उन्होंने दीपक के प्रकाश में मुद्रिका को भली भांति देखा...एकदम वैसी ही मुद्रिका थी...यह तो खेल था, उनके और राम के बीच! जब कभी एकांत होता तो सीता कहा करतीं, 'वन के सम्राट अपनी सम्राज्ञी को कोई आभूषण प्रदान नहीं करेंगे क्या?' और राम उन्हें पुष्पों तथा गवद् घास के अनेक आभूषण बना-बनाकर दिया करते थे। घास की बनाई हुई अनेक प्रकार की मुद्रिकाओं में से सीता ने जब से यह मुद्रिका पसन्द की थी, तब से राम इसी प्रकार की मुद्रिकाएं बनाकर उन्हें पहनाया करते थे...तो क्या यह व्यक्ति, राम के पास से आया है?...राम का संदेश लाया है?...

सीता बाहर जाने के लिए झपटी; किन्तु तत्काल रुक गईं-यह भी कोई माया ही न हो, कोई षड्यन्त्र...कहीं यह व्यक्ति रावण का ही भेजा हुआ न हो, जो अपनी माया से उन्हें विश्वास दिलाने आया हो कि अब राम नहीं रहे...राम के पास से इतनी दूर कौन आ सकता है...किसे पता है कि वे यहां है। और फिर इतना बीहड़ मार्ग, समुद्र का इतना बड़ा व्यवधान, लंका की ऐसी विकट-व्यवस्था...राम स्वयं ही आएं तो आएं, अन्य कोई व्यक्ति कैसे आ सकता है! सीता ने पुनः मुद्रिका को देखा : वही घास थी। वैसी ही बनावट थी, और, और...उन्होंने उसे दीपक के निकट ले जाकर ध्यान से देखा...हां, राम के हस्ताक्षर भी थे, यद्यपि जल में से होकर आने के कारण उसकी मसि धुल गई थी, किन्तु हस्ताक्षर के चिह्र अभी भी थे...इतनी माया कौन कर सकता है!

और यदि माया भी हो, तो सीता को उस व्यक्ति की बात तो सुन ही लेनी चाहिए। देखें तो सहीं, कि वह कहता क्या है?

सीता कुटिया से बाहर निकलीं। सावधानी से उन्होंने इधर-उधर देखा और सीधी चलती हुई अशोक के उसी वृक्ष के नीचे आकर बैठ गईं, जिसके ऊपर से मुद्रिका गिराई गई थी।

उन्होंने सावधानी से ऊपर देखा, "कौन हो तुम?''

"मैं राम-दूत हनुमान हूं माता!''

सीता ने ध्यान से देखा वह 'माता' कहकर सम्बोधन कर रहा था। मुखर होता तो 'दीदी' कहता और फिर वह अपना नाम 'हनुमान' बता रहा था। "हनुमान कौन? मैं तो तुम्हें नहीं जानती।"

"माता, मैं किष्किंधा के वानर-सम्राट सुग्रीव का मंत्री हूं। भद्र राम ने वानरराज का महान् उपकार किया है; अतः राम तथा वानरराज में प्रगाढ़ मैत्री हो गई है। राम और सौमित्र इस समय किष्किंधा में हैं और रावण से युद्ध के लिए वानरों की विकट सेना तैयार कर रहे हैं। मैं आपकी खोज करने आया हूं। अब जाकर, आपका समाचार दूंगा तो तत्काल सैनिक अभियान आरम्भ होगा। आप धैर्य बनाए रखें।"

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस

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