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नास्तिक

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5293
आईएसबीएन :0000

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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है

Nastik

प्रथम परिच्छेद

‘‘पिताजी ! प्रज्ञा कहां है ?’’
‘‘अपनी ससुराल में।’’
‘‘तो आपने उसका विवाह कर दिया है ?’’
‘‘नहीं, मैंने नहीं किया। उसने स्वयं कर लिया है, इसी कारण तुम्हें सूचना नहीं दी।’’
पुत्र उमाशंकर यह सुन विस्मय में पिता का मुख देखने लगा। फिर उसने कहा, ‘‘परन्तु उसके पत्र तो आते रहे हैं। कल जब मैं लौज से एयर-पोर्ट को चलने लगा था, उस समय भी उसका एक पत्र मिला था।’’
‘‘क्या लिखा था उसने ?’’

‘‘यही कि वह बहुत प्रसन्न होगी यदि मैं वहाँ से एक गोरी बीवी लेकर आऊंगा।’’
‘‘तो फिर लाये हो क्या ?’’
‘‘हाँ, पिताजी ! मेरे सन्दूक में है। एयर-पोर्ट पर उस पर इम्पोर्ट-ड्यूटी भी लगी है।’’
‘‘और उसको उत्तर किस पते पर भेजते थे ?’’
‘‘पता यहाँ ग्रेटर कैलाश का ही था, परन्तु कोठी का नम्बर दूसरा था। मैं समझता था कि हमारी कोठी के दो नम्बर हैं। उसकी कोठी कहां है ?’’

उमाशंकर कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से ‘औषध-विज्ञान’ में डॉक्टरेट कर लौटा था। वह दिल्ली हवाई-पत्तन से अभी-अभी घर पहुँचा था। पिता अपनी मोटरगाड़ी में अपनी पत्नी और छोटे लड़के शिवशंकर के साथ हवाई-पत्तन पर गया था और पुत्र उमाशंकर को साथ ले आया था।
कोठी के बाहर मोटर से उतरते ही उमाशंकर ने अपनी बहन प्रज्ञा के विषय में पूछा था। मार्ग भर वह विचार करता रहा था कि उसे एक अमरीकन डौल दिखाकर उसका परिचय उसकी भाभी कहकर करायेगा। यही कारण था कि कोठी में पहुँचते ही उसे उपस्थित न देख उसने प्रश्न कर दिया था।
उमाशंकर के प्रश्न का कि प्रज्ञा की कोठी कहाँ है, उत्तर माँ ने दिया, ‘‘यहीं, इसी कालोनी में। उसके पति का मकान यहाँ से चौथाई किलोमीटर के अन्तर पर है।’’

इस समय पूर्ण परिवार मकान के ड्राइंग रूम में पहुँच गया। वहाँ एक कोने में टेलीफोन रखा देख उमाशंकर ने पूछ लिया, ‘‘उसके घर पर टेलीफोन है ?’’
‘‘हाँ ! किसलिये पूछ रहे हो ?’’
‘‘मैं उसे बताना चाहता हूँ कि मैं उसकी भाभी को भी साथ लाया हूँ।’’
इस पर पिता रविशंकर हँस पड़ा। हँसकर वह बोला, ‘‘पहले हमें तो उसे दिखाओ ?’’
‘‘तो आप उसको शकुन देंगे ?’’
‘‘हाँ ! वह मुँह दिखायेगी तो उसे शकुन देना ही होगा और उसपर न्यौछावर भी करूँगा।’’

‘‘तब तो उसे सूटकेस में से निकालना पड़ेगा। वह बेचारी अपने नये बने श्वसुर और उसके शकुन से वंचित क्यों रह जाये ?’’ इतना कह वह सोफा से उठने लगा तो उसके छोटे भाई ने कह दिया, ‘‘दादा ! चाबी मुझे दो। मैं यह कल्याण का कार्य कर देता हूँ। आपने मुझे सहबाला नहीं बनाया तो भी मैं प्रज्ञा बहन की भाँति बलपूर्वक सहबाला बन पुरस्कार पा जाऊँगा।’’
चारों हँसने लगे। उमाशंकर ने पैंट की जेब से सूटकेस की चाबी निकाली और अपने छोटे भाई को देते हुए कहा, ‘‘देखो ! आदर से निकालना। कहीं हाथ पकड़ खेंचा तो उसकी कलाई इत्यादि में मोच भी आ सकती है।’’
सेवक मोटर से उमाशंकर का सामान ले आया था। उसने एक सूटकेस और एक ब्रीफकेस ड्राइंग रूम के एक कोने में रख दिया था। शिवशंकर ने चाबी ली और सूटकेस खोला। उसमें से एक प्लास्टिक की अमेरिकन ढंग की पोशाक पहने ‘डौल’ निकालकर ले आया।

इस समय उमाशंकर माँ से बहन के घर का टेलीफोन नम्बर पूछ टेलीफोन के सामने जा बैठा था। माता-पिता लड़के की ओर देख रहे थे। वे सुनना चाहते थे कि क्या बातचीत होती है।
शिवशंकर ने प्लास्टिक के पारदर्शक डिब्बे में ‘डौल’ को सामने सेंटर टेबल पर रख दिया और टेलीफोन पर बड़े भाई की बात सुनकर समीप आ गया।
जब दूसरी ओर से चोंगा उठाया गया तो उमाशंकर ने प्रश्न किया, ‘‘प्रज्ञा हो ?’’

दूसरी ओर से उत्तर आया तो उमाशंकर ने कहा, ‘‘मैं उमाशंकर बोल रहा हूँ और अभी-अभी यहाँ पहुँचा हूँ।’’
उधर से कुछ कहा गया। इधर से भाई ने कहा, ‘‘मैंने अपने पहुँचने की सूचना पिताजी को भेज दी थी। मेरा विचार था कि तुम यहाँ होगी और तुम्हें भी पता लग गया होगा।’’
उधर की बात सुनकर उमाशंकर ने पुनः कहा, ‘‘परन्तु तुमने अपने विवाह का समाचार अपने अन्तिम पत्र में भी नहीं लिखा था। मैं कैसे जान सकता था कि तुम पिताजी के घर में नहीं हो ? मैं तो दोनों नम्बर एक ही मकान के समझता था।
‘‘देखो प्रज्ञा ! तुमने कहा था कि कोई गोरी अमरीकन बीबी लेकर आऊँ। मैंने तुम्हारा कहा मान लिया है, परन्तु उसकी अगवानी के लिए तुमको यहाँ आना चाहिए।’’

‘‘....।’’
‘‘भला माँ लड़की को घर आने से कैसे रोक सकती है ?’’
‘‘....।’’
‘‘देखो प्रज्ञा। तुमको तो विवाह कर सबसे पहले अपने माता-पिता से आशीर्वाद लेने आना चाहिए था।’’
‘‘....।’’
‘‘डर किस बात का ? तुमने कुछ पाप किया है क्या ?’’
‘‘....।’’
‘‘हाँ, आ जाओ ! मुझे विश्वास है कि तुम्हारा और तुम्हारे पति का यहाँ अनादर नहीं होगा।’’
‘‘.....।’’
‘‘हाँ, तुरन्त चली आओ। तुम्हारी भाभी उत्सुकता से तुम्हारे दर्शनों की प्रतीक्षा कर रही हैं।’’
उमाशंकर ने चोंगा रखा तो पिता ने पुत्र से पूछ लिया, ‘‘तो वह आ रही है ?’’
‘‘हाँ।’’

‘‘और उसने बताया है कि क्यों उसने हमें अपने विवाह की सूचना नहीं दी ?’’
‘‘कहती है कि उसे कुछ लज्जा, कुछ झिझक, कुछ भय और संशय था। इस कारण बताए बिना उसने विवाह किया और फिर अभी तक बताने नहीं आयी। मैंने उसे कहा है कि चली आओ, मैं उसका मार्ग साफ कर दूँगा।’’
इस समय पाचक सबके लिए चाय, बिस्कुट और कुछ मिठाई एक ट्रे में रख कर ले आया। जनवरी मास मध्याह्नोत्तर का समय था। हवाई पत्तन पर जहाज तीन बजे उतरा था। टैक्सी इत्यादि से आते-आते चार बज गए थे। इस कारण माँ ने आते ही पुत्र और दूसरों के लिए चाय लाने के कह दिया था। अब यह जान कि लड़की भी आ रही है, उसने पाचक को कह दिया, ‘‘दो प्याले और ले आओ। चाय का पानी भी और बना लाओ।’’

प्रज्ञा अपने पति के साथ ही आई। उसने विवाह किया था बम्बई के एक खोजे के लड़के मुहम्मद यासीन से। मुहम्मद यासीन के पिता का नाम था अब्दुल हमीद। यह बम्बई का एक सौदागर था। उसकी तीन बीवियाँ थीं और मुहम्मद यासीन पहली बीबी से, माँ का एकमात्र पुत्र था। इस कारण पिता ने पुत्र को दिल्ली कनाट प्लेस में एक दुकान ले दी थी और रहने को मकान ग्रेटर कैलाश में बनवाकर दोनों को दिल्ली भेज दिया था।
प्रज्ञा और मुहम्मद यासीन वयस्क थे और उन्होंने कोर्ट में विवाह किया था। मुहम्मद यासीन की माँ सरवर ने बहू को आशीर्वाद देकर घर पर रख लिया था।
विवाह की सूचना प्रज्ञा के माता-पिता को नहीं दी गई थी। विवाह कर पति-पत्नी, दोनों हनीमून मनाने कश्मीर चले गए थे।

लड़की के एकाएक लापता हो जाने पर रविशंकर और प्रज्ञा की माँ महादेवी को बहुत चिन्ता लगी। पुलिस में रिपोर्ट लिखाई गई थी, परन्तु खोज नहीं हो सकी। पीछे जब एक महीना भ्रमण कर पति-पत्नी लौटे तो किस पड़ोसी ने दोनों को इकट्ठे घूमते देख पंडित रविशंकर को बता दिया कि उसकी लड़की कनाट प्लेस के एक दुकानदार मुहम्मद यासीन के साथ घूमती हुई देखी गई है।
इस पर रविशंकर ने पता किया और जब सूचना का समर्थन मिला तो उसने लड़की को मन से निकाल दिया। इस घटना को हुए छः मास से ऊपर व्यतीत हो चुके थे। अब लड़का अमरीका से डॉक्टरी पढ़कर आया तो माता-पिता, उसको रोक नहीं सके कि बहन को न बुलाए।
कदाचित् वे आशा कर रहे थे कि लड़की ही यहाँ आकर अपना मुख दिखाने से इंकार कर देगी अथवा अपने पति से आने की स्वीकृति नहीं पा सकेगी। वह कह देगी कि अपने पति से पूछकर कल मिलने आएगी।

परन्तु उनकी आशा के विपरीत उमाशंकर ने बताया कि वह पति सहित आ रही है। माँ मन-ही-मन प्रसन्न थी, यद्यपि उसने मुख से कुछ कहा नहीं। जब उसने पाचक को कहा कि दो प्याले और लगा दो तो यह स्पष्ट हो गया कि दोनों का यहाँ स्वागत होगा और किसी प्रकार का झगड़ा नहीं होगा। पिता तो भौंचक्क मुख देखता रह गया था। वह समझ नहीं सका था कि लड़की और दामाद के आने पर क्या व्यवहार स्वीकार करे।

उमाशंकर को यह विदित नहीं था कि प्रज्ञा का पति एक मुसलमान समुदाय का घटक है। वास्तव में यही मुख्य कारण था प्रज्ञा का अपने माता-पिता को मुख न दिखाने का। परन्तु उमाशंकर के मन में प्रज्ञा के विवाह के उपरान्त माता-पिता के घर में न आने का कारण यह प्रतीत हुआ था कि उसने विवाह माता-पिता से पूछे बिना किया है और फिर हिन्दू रीति-रिवाज से करने के स्थान कचहरी में जाकर किया है।
माँ का विचार था कि यदि प्रज्ञा मोटरगाड़ी में आएगी तो दो तीन मिनट में पहुँच जाएगी और हुआ भी ऐसे ही। पाचक अभी नये प्याले लाकर रख ही रहा था कि प्रज्ञा आई और हाथ जोड़ माता-पिता को प्रणाम कर भाई के समीप सोफा पर बैठ गई।

प्रज्ञा के पति मुहम्मद यासीन ने पहले प्रज्ञा की माताजी की कदम-बोसी की और फिर उसके पिता रविशंकर की ओर हाथ जोड़ नमस्ते कर सामने खड़ा हो गया। अब रविशंकर ने उसे कहा, ‘‘हजरत ! तशरीफ रखिए....।’’ वह कुछ कहना चाहता था, परन्तु उसके लिए उचित शब्द नहीं पा रहा था।
महादेवी ने ही उसे समीप सोफा पर बैठ जाने का संकेत कर कह दिया, ‘‘भले मनुष्य ! यदि किसी जगह से कोई चीज उठाकर अपने पास रखी है तो चीज के मालिक से पूछे बिना ऐसा करना चोरी कहाता है।’’
‘‘माताजी !’’ मुहम्मद यासीन ने कहा, ‘‘यह कानून की बात तो मैं जानता हूँ, परन्तु मैंने ऐसा कुछ किया नहीं। मैं उस चीज को लेने के लिए उसकी जगह पर गया नहीं और न ही उसे उठाकर अपने घर ले गया हूँ। वह चीज अपने को लावारिस समझ, वहाँ चली गई है।

‘‘मैंने उस चीज से पता किया है। वह कहती है कि वह लावारिस थी। उसका मतलब यह है कि वह बालिग हो चुकी थी और कानून से लावारिस मानी जाती थी।
‘‘और माताजी ! वह तो अभी भी अपने को किसी की मलकीयत नहीं समझती। मेरे घर में तो वह अपनी मर्जी से रह रही है और कहाँ वह मालकिन बन रहती है।’’
महादेवी इस संक्षिप्त से वार्तालाप से यह समझ गई कि गिला लड़के से नहीं करना चाहिए। यह तो उसकी लड़की है जो अपने माता-पिता का अपने पर कोई अधिकार नहीं समझती।

इस कारण वह निरुतर हो गई और उसने प्याले तथा प्लेटें सबके सम्मुख रख, उनमें मिठाई डालनी आरम्भ कर दी। मुहम्मद यासीन मुस्कराता हुआ साथ की कुर्सी पर बैठा अपने श्वसुर पण्डित रविशंकर से बातें करने लगा।
उसने श्वसुर को कहा, ‘‘कुछ गलती हमसे हुई है। यह मैं अब महसूस करता हूँ। मगर उस समय जब गलती हुई थी, मैं यह समझा था कि आप भी उसे गलती नहीं मानते। उसे हमारा ठीक अमल ही मानते हैं। आज का यह दावतनामा सुन मेरे ख्यालों में तबदीली हो गई है। मैं अपने और आपकी लड़की के ख्यालातों में गलती समझ गया हूँ। इसीलिए दावत की खबर पाते ही मैं चला आया हूँ।

‘‘आज मेरी तबीयत कुछ अलील थी। इसलिए मैं दुकान पर नहीं गया था और घर पर ही था। इस वजह से आपके दावतनामे को फौरन मंजूर करने में आपकी लड़की को दिक्कत नहीं हुई।
रविशंकर ने कुछ कहने के लिए कह दिया, ‘‘यह सब उमाशंकर की करनी का फल है।’’ और उसने अपने अमरीका से आए लड़के की ओर संकेत कर दिया।
मुहम्मद यासीन ने उमाशंकर को देखकर कह दिया, ‘‘भाई साहब ! आदाब अर्ज है। आपके दीदार आज पहली बार ही हुए हैं। आपकी बहन से पता चला है कि आप छः वर्ष से मुल्क से बाहर थे। मैं तो इस कालोनी में दो वर्ष से ही आया हूँ।’’
‘‘आप पीछे कहाँ के रहने वाले हैं ?’’

‘‘मेरे वालिद शरीफ बम्बई फोर्ट एरिया में सौदागरी की दुकान रखते हैं। मैंने दो साल हुए बी.ए. फाइनल किया तो वालिद शरीफ ने उसी वक्त यह फरमाया कि मुझे अपनी अम्मी को लेकर दिल्ली चले जाना चाहिए।
‘‘मेरी अम्मी उनकी पहली बीबी हैं। वालिद साहब की दो और बीवीयाँ हैं। उनसे मेरे सात भाई-बहन हैं। अपनी अम्मी की मैं अकेली ही औलाद हूँ। शायद यही वजह है कि वालिद शरीफ ने मुझे घर से अलैहदा कर दिया।
‘‘हमारे लिए उन्होंने इस कालोनी में हमारा मौजूदा मकान और मेरे लिए भारी पगड़ी देकर कनाट प्लेस, में एक दुकान ले दी और मैं यहाँ चला आया।’’

‘‘आपका शुभनाम ?’’
‘वालिद और अम्मी ने मुहम्मद यासीन रखा हुआ है और आपकी बहन ने मेरा एक दूसरा नाम रखा है।’’
उमाशंकर यह सुन कि उसके पिता की तीन पत्नियाँ हैं, समझ गया था कि उसका बहनोई मुसलमान है और अब नाम सुन उसको अपने अनुमान का समर्थन मिल गया। साथ ही, पिताजी के विचारों को जानते हुए, वह दोनों परिवारों में वैमनस्य का कारण भी समझ गया। इस पर भी उसने इस विषय पर अपनी सम्मति प्रकट नहीं की। उसने पूछ लिया, ‘‘तो प्रज्ञा ने आपका क्या नाम रखा है ?’’
‘‘उसने मेरा नाम ज्ञानस्वरूप रखा है ।’’

‘‘और आपने यह नाम स्वीकार कर लिया है ?’’
‘‘इन्कार कैसे कर सकता था ? प्रज्ञाजी बोलीं, मैं आपको ज्ञानस्वरूप मानती हूँ। आप अपने को जो चाहे, मानिए, मेरा उससे कोई सम्बन्ध नहीं।’
‘‘वह मेरे घर में जब आई थीं तो मैंने उनका एलाउन्स दो सौ रुपये महीना तय किया था। यह उनका पाकेट-खर्च है। घर के खर्च के लिए मैं अम्मी को एक हजार रुपये महीना देता हूँ।
‘‘प्रज्ञाजी हर महीने जो कुछ बचाती हैं, वह बैंक में जमा करा देती हैं। बैंक खाते में उन्होंने अपना नाम लिखाया है, प्रज्ञादेवी वाइफ ऑफ ज्ञानस्वरूप।’’
‘‘और आपकी अम्मी मान गई हैं ?’’

‘‘पहले तो नहीं मानी थीं। मगर पीछे प्रज्ञाजी ने अम्मी को इस नाम के मायने समझाए तो वह राजी हो गईं और अब वह भी, जब किसी नाम से बुलाना होता है तो ‘ज्ञान’ कहकर पुकारती हैं। उन्हें यह नाम लेना आसान लगता है।’’
‘‘और आप जानते हैं कि ज्ञानस्वरूप के क्या मायने हैं ?’’
‘‘हाँ ! मैंने शौकिया बी.ए. तक औप्शनल मजबून हिन्दी लिया था। ज्ञान के मायने हैं इल्म; और ज्ञानस्वरूप के मायने हुए इल्म रखने वाला।
‘‘प्रज्ञाजी का कहना है कि वह हैं बुद्धि और मैं हूँ ज्ञान। इस प्रकार एक का दूसरे से मेल है। इसीलिए हम खाविन्द बीवी हैं।’’
‘‘मगर आप जुबान तो फारसी बोलते हैं।’’

‘‘मैं इसके लिए शर्मिन्दा हूँ। वालिद शरीफ के घर में फारसी बोली जाती है। मेरी अपनी अम्मी पंजाब की रहने वाली हैं और दूसरी अम्मियों में एक अल्मोड़ा की और एक कश्मीर की हैं। ये तीनों ही अनपढ़ औरतें वही जुबान बोलने लगी हैं जो मेरे वालिद साहब बोलते हैं। वह फारसी के आलम-फाजिल हैं। इसीलिए हमारे घर की बोली फारसी है।’’
इस समय तक चाय खत्म हो चुकी थी। प्रज्ञा ने अपने स्थान पर बैठे-बैठे ही कहा, ‘‘दादा ! तुम विवाह कर भाभी को नहीं लाए, इसका मुझे अजहद अफसोस है।’
‘‘लाया तो हूँ। मैंने फोन पर बताया था न ?’’
‘‘कहाँ है वह, मेरा मतलब भाभी ?’’

‘‘वह देखो ! शिव ने उसे मेज पर बैठा दिया है।’’ उमाशंकर ने प्लास्टिक के डिब्बे में रखी गुड़िया की ओर संकेत कर दिया। प्रज्ञा ने उस ओर देखा तो उमाशंकर ने कह दिया, ‘‘अभी बीवी का मॉडल लाया हूँ। मतलब यह कि वैसी ही सुन्दर बीवी लाऊँगा।’’
सब हँस पड़े। शिवशंकर अपने स्थान से उठा और गुड़िया का प्लास्टिक का डिब्बा उठा लाया।
प्रज्ञा ने देखा और कह दिया, ‘‘मॉडल तो पसन्द है। परन्तु ऐसी लड़की तो शायद यहाँ मिल नहीं सकेगी।’’
‘‘क्यों नहीं मिल सकेगी ?’’ ज्ञानस्वरूप ने कह दिया, ‘‘अगर भाई उमाशंकर इजाजत दें तो मैं ऐसी, शायद इससे इक्कीस इनके लिए ला सकता हूँ।’’

‘‘तो जीजाजी, दिखा दीजिए, मगर एक बात कहे देता हूँ।’’
उमांकर ने कहा।
‘‘क्या ?’’
‘‘मैं परमात्मा को मानता हूँ।’’
‘‘वह तो मैं भी मानता हूँ। मेरी जुबान में उसका नाम कुछ दूसरा है। मैं और मेरे घरवाले उसे खुदा कहते हैं।’’
इस पर रविशंकर ने कह दिया,‘‘ मगर वह तो सातवें आसमान पर बैठा है ?’’
‘‘जी हां ! और वह सतवां आसमान यहीं तो है।’’
‘‘और फरिश्ते कहां से आते जाते हैं ?’’
‘‘वे यहीं से आते हैं और यहीं को जाते हैं।’’

अब प्रज्ञा ने बात बदलने के लिए कहा, ‘‘पिताजी ! परमात्मा कहीं भी रहे, उसको सब कुछ पता चलता रहता है। फरिश्तों के द्वारा अथवा किसी अन्य उपाय से, इसमें क्या अन्तर पड़ा जाता है ? जब परमात्मा है और उसको सबका ज्ञान है, यह माना जाए तो हम आस्तिक ही हैं।
‘‘इसलिए मैं समझती हूँ कि यह आपके दामाद मुसलमान हैं अथवा ईसाई हैं, इससे क्या फरक पड़ता है ? जब तक यह सच बोलते हैं, चोरी नहीं करते, शरीर मन और बुद्धि में सफाई रखते हैं तथा क्रोध नहीं करते, तब तक ये वहीं हैं जो दादा हैं, माताजी हैं अथवा आप हैं’’

इसने बात समाप्त कर दी। शिव ने पूछा, ‘‘और दीदी ! अब फिर कब आओगी ?’’
‘‘जब दादा अथवा माता-पिता बुलायेंगे ?’’
‘‘दादा ने तो माता-पिता की मंजूरी से बुला लिया है। अब तुम्हें स्वयं आना चाहिए अथवा हमें अपने घर बुलाना चाहिए।’’
ज्ञानस्वरूप ने कहा, ‘‘शिव ठीक कहता है। प्रज्ञादेवी ! अब आप इन सबको अपने घर बुलाइए।’’
‘‘तो अम्मी से पूछकर निमंत्रण दूँगी।’’

‘‘हाँ !’’ उमाशंकर ने कहा, ‘‘देखें ! कब देती हो ?
‘‘और हाँ, अपनी भाभी का मॉडल तुम ले आओ। जीजाजी इस नमूने की तुम्हारी भाभी लाने का वायदा कर चले हैं। इसलिए मुकाबला करने के लिए इसकी जरूरत पड़ेगी। यही विचार कर मैं दस हजार मील के अन्तर से इसे अपने साथ लाया हूँ।’’
सब हंसने लगे।



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