ऐतिहासिक >> मेघवाहन मेघवाहनगुरुदत्त
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एक ऐतिहासिक उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रकाशकीय निवेदन
उपन्यासकार श्री गुरुदत्त जी का जीवन विगत 94 वर्षों से सतत साधनारत रहने
के फलस्वरूप तपकर ऐसा कुन्दन बन गया है कि जिसकी तुलना अब किसी अन्य से
नहीं अपितु उनसे ही की जा सकती है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार सागर और
आकाश की तुलना किसी अन्य से नहीं अपितु सागर और आकाश से ही की जा सकती है।
वर्षों पूर्व श्री गुरुदत्त जी के किसी अभिनन्दन समारोह में दिल्ली
विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के भूतपूर्व अध्यक्ष डॉ. विजयेन्द्र स्नातक
ने उनके प्रति अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए कहा
था—‘कोई
भी उनको बैठे उनके दैदीप्यमान मुखाकृति को देखे तो यही अनुभव करेगा मानो
मार्ग-निर्देशन करता हुआ-सा कोई तपस्वी बैठा है।’
आज से 94 वर्ष पूर्व लाहौर (अब पाकिस्तान) के निम्न मध्यवर्गीय पंजाबी आरोड़ा परिवार में उनका जन्म हुआ था।
बाल्यकाल से ही गुरुदत्त को लिखने-पढ़ने का चाव रहा। यही कारण है कि साधनहीन होने पर भी वे एम.एस-सी. की स्नातकोत्तर शिक्षा प्राप्त कर सके। तदुपरान्त उनकी विद्यालयीन शिक्षा का भले ही अन्त हो गया हो किन्तु विद्यार्थी जीवन तो आज 94 वर्ष की आयु में भी निरन्तर उसी प्रकार चल रही है।
वे सतत अध्ययनरत रहते हैं। विश्वविद्यालयीन शिक्षा पूर्ण कर अपने बाद के जीवन में उन्होंने भारतीय और पाश्चात्य साहित्य का गहन अध्ययन और विश्लेषण किया है। उन्होंने इतिहास का मंथन किया है, विश्व-भर के लेखकों की रचनाओं और जीवनियों को पढ़कर उनका विवेचन किया है। भारत की विभिन्न भाषाओं के कथा-साहित्य का परिचय प्राप्त किया है। साहित्य ही नहीं, वे राजनीति के भी विद्यार्थी रहे हैं।
विश्व की राजनीति पर वे विश्लेषणात्मक विचार प्रस्तुत करते हैं, उनको भले ही केवल हम जैसे ही कुछ लोग आज श्रेष्ठ विचार मानते हैं, किन्तु वह समय दूर नहीं जब भारत का हिन्दू एक स्वर से कहेगा कि गुरुदत्त ने जो लिखा, गुरुदत्त ने जो कहा, गुरुदत्त ने जो मार्ग-निर्देशन किया उस पर हम चले होते तो देश और देशवासियों की यह दशा नहीं होती।
एम.एस-सी. उत्तीर्ण करने के उपरान्त वे गवर्नमेट कॉलेज, लाहौर के विज्ञान विभाग में डिमांस्ट्रेटर के पद पर नियुक्त हुए। तदुपरान्त विवाह कर गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया था कि तभी स्वदेशी आंदोलन और अंग्रेज सरकार के प्रति असहोग की भावना ने उनके जीवन को ऐसा प्रभावित किया कि उन्होंने सरकारी नौकरी को त्याग दिया। कुछ दिनों बाद लाहौर के नेशनल स्कूल के मुख्याध्यापक-पद पर कार्य करने लगे।
नेशनल स्कूल में रहते हुए उन्होंने अपने छात्रों में राष्ट्रीय वृत्ति के प्रचार-प्रसार का पुनीत कार्य किया। किन्तु ब्रिटिश राज्य में वह स्कूल भी सरकार की आँधी में ढह गया। जीविका का प्रश्न फिर सम्मुख आ गया। तभी अमेठी राज्य के राजा साहब कुवंर रणंजयसिंह (अब स्वर्गीय) के वे निजी सचिव नियुक्त हो गये। इस प्रकार उन्हें राजे-रजवाड़ों की रीति-नीति और राजनीति का अध्ययन करने का भी अवसर सुलभ हुआ।
दुर्दैव ने फिर भी पीछा नहीं छोड़ा। अमेठी रियासत कोर्ट ऑफ वार्ड्स में चली गई तो उनकी नौकरी भी उसके साथ ही गई। किसी प्रकार लखनऊ आकर जीवन चलाते हुए आयुर्वेद का अध्ययन किया और वहीं चिकित्सा भी करने लगे। किन्तु वैद्यकी इतनी नहीं चली कि अपने साथ-साथ परिवार का पेट पाल पाते। अतः 1933 में पुनः लाहौर आकर वैद्य का कार्य किया। वहाँ भी निर्वाह नहीं हो पाया तो 1937 में दिल्ली आ गये। दिल्ली में कार्य जमने में दो वर्ष लगे। तदपि 1939 तक वे अपने परिवार के सामान्य पालन-पोषण में समर्थ हो गये।
असुविधाओं की आँच में सिद्धमान साहित्यकार भी अपने तपबल से इतिहास बन सकता है, श्री गुरुदत्त इसके साक्षात प्रमाण और उदाहरण हैं। उन्होंने कष्टों और असुविधाओं को झेलते हुए अपनी आरंभिक जीवनी तैयार की है। सतत साधना और अनवरत प्रयास से उन्होंने उच्चता अर्जित की है। उनका लक्ष्य है जीवन के समस्त अंगों एवं सामर्थ्य से भारत माता, भारतीयता अथवा इन सबका पर्याय मानवता की सेवा की जाय। इसके लिए उन्होंने साहित्य क्षेत्र सर्वश्रेष्ठ और परमोपयोगी माना है। अपने इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए वे राजनीति के क्षेत्र में भी क्रियाशील रहे। चिकित्सा-क्षेत्र में भी उन्होंने अपने इसी उद्देश्य को सम्मुख रखा। मानव की ऐसी कोई भी समस्या नहीं जिसका उन्होंने अपनी रचनाओं में न उठाया हो और उसका समाधान न प्रस्तुत किया हो।
आज 94 वर्ष की आयु में, रुग्णावस्था में भी वे अपने उद्देश्य और ध्येय के प्रति निष्ठा से कार्यरत हैं। वे अधिकाधिक रूपेण अपने इस जीवन में अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए उत्साहवान हैं।
आज से 94 वर्ष पूर्व लाहौर (अब पाकिस्तान) के निम्न मध्यवर्गीय पंजाबी आरोड़ा परिवार में उनका जन्म हुआ था।
बाल्यकाल से ही गुरुदत्त को लिखने-पढ़ने का चाव रहा। यही कारण है कि साधनहीन होने पर भी वे एम.एस-सी. की स्नातकोत्तर शिक्षा प्राप्त कर सके। तदुपरान्त उनकी विद्यालयीन शिक्षा का भले ही अन्त हो गया हो किन्तु विद्यार्थी जीवन तो आज 94 वर्ष की आयु में भी निरन्तर उसी प्रकार चल रही है।
वे सतत अध्ययनरत रहते हैं। विश्वविद्यालयीन शिक्षा पूर्ण कर अपने बाद के जीवन में उन्होंने भारतीय और पाश्चात्य साहित्य का गहन अध्ययन और विश्लेषण किया है। उन्होंने इतिहास का मंथन किया है, विश्व-भर के लेखकों की रचनाओं और जीवनियों को पढ़कर उनका विवेचन किया है। भारत की विभिन्न भाषाओं के कथा-साहित्य का परिचय प्राप्त किया है। साहित्य ही नहीं, वे राजनीति के भी विद्यार्थी रहे हैं।
विश्व की राजनीति पर वे विश्लेषणात्मक विचार प्रस्तुत करते हैं, उनको भले ही केवल हम जैसे ही कुछ लोग आज श्रेष्ठ विचार मानते हैं, किन्तु वह समय दूर नहीं जब भारत का हिन्दू एक स्वर से कहेगा कि गुरुदत्त ने जो लिखा, गुरुदत्त ने जो कहा, गुरुदत्त ने जो मार्ग-निर्देशन किया उस पर हम चले होते तो देश और देशवासियों की यह दशा नहीं होती।
एम.एस-सी. उत्तीर्ण करने के उपरान्त वे गवर्नमेट कॉलेज, लाहौर के विज्ञान विभाग में डिमांस्ट्रेटर के पद पर नियुक्त हुए। तदुपरान्त विवाह कर गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया था कि तभी स्वदेशी आंदोलन और अंग्रेज सरकार के प्रति असहोग की भावना ने उनके जीवन को ऐसा प्रभावित किया कि उन्होंने सरकारी नौकरी को त्याग दिया। कुछ दिनों बाद लाहौर के नेशनल स्कूल के मुख्याध्यापक-पद पर कार्य करने लगे।
नेशनल स्कूल में रहते हुए उन्होंने अपने छात्रों में राष्ट्रीय वृत्ति के प्रचार-प्रसार का पुनीत कार्य किया। किन्तु ब्रिटिश राज्य में वह स्कूल भी सरकार की आँधी में ढह गया। जीविका का प्रश्न फिर सम्मुख आ गया। तभी अमेठी राज्य के राजा साहब कुवंर रणंजयसिंह (अब स्वर्गीय) के वे निजी सचिव नियुक्त हो गये। इस प्रकार उन्हें राजे-रजवाड़ों की रीति-नीति और राजनीति का अध्ययन करने का भी अवसर सुलभ हुआ।
दुर्दैव ने फिर भी पीछा नहीं छोड़ा। अमेठी रियासत कोर्ट ऑफ वार्ड्स में चली गई तो उनकी नौकरी भी उसके साथ ही गई। किसी प्रकार लखनऊ आकर जीवन चलाते हुए आयुर्वेद का अध्ययन किया और वहीं चिकित्सा भी करने लगे। किन्तु वैद्यकी इतनी नहीं चली कि अपने साथ-साथ परिवार का पेट पाल पाते। अतः 1933 में पुनः लाहौर आकर वैद्य का कार्य किया। वहाँ भी निर्वाह नहीं हो पाया तो 1937 में दिल्ली आ गये। दिल्ली में कार्य जमने में दो वर्ष लगे। तदपि 1939 तक वे अपने परिवार के सामान्य पालन-पोषण में समर्थ हो गये।
असुविधाओं की आँच में सिद्धमान साहित्यकार भी अपने तपबल से इतिहास बन सकता है, श्री गुरुदत्त इसके साक्षात प्रमाण और उदाहरण हैं। उन्होंने कष्टों और असुविधाओं को झेलते हुए अपनी आरंभिक जीवनी तैयार की है। सतत साधना और अनवरत प्रयास से उन्होंने उच्चता अर्जित की है। उनका लक्ष्य है जीवन के समस्त अंगों एवं सामर्थ्य से भारत माता, भारतीयता अथवा इन सबका पर्याय मानवता की सेवा की जाय। इसके लिए उन्होंने साहित्य क्षेत्र सर्वश्रेष्ठ और परमोपयोगी माना है। अपने इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए वे राजनीति के क्षेत्र में भी क्रियाशील रहे। चिकित्सा-क्षेत्र में भी उन्होंने अपने इसी उद्देश्य को सम्मुख रखा। मानव की ऐसी कोई भी समस्या नहीं जिसका उन्होंने अपनी रचनाओं में न उठाया हो और उसका समाधान न प्रस्तुत किया हो।
आज 94 वर्ष की आयु में, रुग्णावस्था में भी वे अपने उद्देश्य और ध्येय के प्रति निष्ठा से कार्यरत हैं। वे अधिकाधिक रूपेण अपने इस जीवन में अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए उत्साहवान हैं।
मेघवाहन- एक परिचय
श्री गुरुदत्त के प्रतिनिधि ऐतिहासिक उपन्यासों की श्रृंखला में
‘विक्रमादित्य साहसांक’ के उपरांत
‘मेघवाहन’ का
कथानक आता है। उपन्यास का आरम्भ यद्यपि गान्धार से होता है किंतु इसका
कथानक कश्मीर के इतिहास से है। उपन्यास का नायक मेघवाहन कश्मीर के राजवंश
का अंश था, किंतु परिस्थिति वश उसके पूर्वज गान्धार में जाकर बस गये थे।
‘विक्रमादित्य साहसांक’ उपन्यास के नायक विक्रमादित्य
ने
नागकन्या से भी विवाह किया था और उस नागकन्या की कन्या कश्मीरनरेश
खिखलान्य कश्मीर को विवाही गई थी।
खिखलान्य कश्मीर के बाद उसका पुत्र युधिष्ठर अन्ध राजसिंहासन पर बैठा। वह इतना सरलचित्त और उदार था कि उसके मन्त्री ही उसको राज्यच्युत करने का षड्यन्त्र रचने लगे। युधिष्ठिर अन्ध को इसका ज्ञान हो गया। उसका परिणाम यह हुआ कि उस कथित दयालु राजा ने स्वयं ही राज्य छोड़ दिया और अपने परिवार को साथ लेकर भटकता हुआ वह गान्धार देश जा पहुँचा। गान्धार-नरेश ने उसको शरण दी और परिवार-पालन के लिए कुछ भूमि दे दी। मेघवाहन उसी युधिष्ठिर का प्रपौत्र था।
मेघवाहन ने अपने पिता से जब अपने पूर्वजों का इतिहास सुना तो उसक मन में प्रकाश होने लगा और उसने अपने खोये हुए अतीत को पुनः प्राप्त करने का निश्चय कर लिया। वह समझ रहा था कि यदि महाराज युधिष्ठिर सेना को अपने साथ रखते तो संभव है मन्त्रिमन्डल का षड्यन्त्र सफल न हो पाता। मेघवाहन यह भी अनुभव कर रहा था कि राजा, प्रजा और सेना इन तीनों के मिलने से ही राज्य बनता है,
मात्र किसी के राजकुल में उत्पन्न हो जाने से ही कोई राजा नहीं बन जाता।
मेघवाहन ने अपना खोया हुआ राज्य तो वापस प्राप्त कर लिया था किन्तु उसको स्थिर करना इतना सरल नहीं था। कश्मीर के पड़ोसी राजा अपने सींग उठाने लगे थे क्योंकि तब तक उनको कश्मीर से बहुत कुछ प्राप्त हो रहा था। वह उनके अधीनस्थ राज्यों में गिना जाता था। किन्तु वह स्वतन्त्र हो गया, तो पड़ोसी राज्यों की आय का एक बहता हुआ स्रोत बन्द-सा होने लगा था। मेघवाहन को जब इसकी गन्ध मिली तो उसने राज्यों और राजाओं के साथ साम-दाम-दण्ड-भेद नीति का आश्रय लेना श्रेयस्कर समझा।
यह वह काल था जब समस्त भारत वर्ष में बौद्ध मत के साथ-साथ शाकर मत का प्रचार भी प्रभूत मात्रा में होने लगा था। दोनों मतों में प्रतिद्वनिद्विता थी। कश्मीर का राजा मेघवाहन इन दोनों में से किसी के प्रति आकर्षित नहीं था किन्तु वहाँ की प्रजा में अधिकांश बौद्धमतावलम्बी थे। मेघवाहन की रानी अमृत-प्रभा प्राग्ज्योतिषपुर की होने के कारण शाक्त मतावलम्बनी थी। उसके अनेक समर्थक भी कश्मीर राज्य में स्थान प्राप्त करने लगे थे।
इस सबके विपरीत महाराज मेघवाहन और उसके महामन्त्री गोविन्दानन्द भारत को आन्तरिक झगड़ों और विदेशियों की महत्वाकाक्षाँओं के भय से मुक्त करने के लिए भारत भार के राज्यों की प्रजा में एकता स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील थे। इसके लिए महामात्य ने सभी प्रमुख नरेशों से सम्पर्क स्थापित कर भारत-खण्ड की एकता की दिशा में परस्पर सांस्कृतिक सन्धियों का प्रस्ताव किया था। इसके साथ ही कश्मीर राज्य ने अपनी सैनिक शक्ति पर भी विशेष ध्यान देना आरम्भ कर दिया था। क्योंकि जिसके पास शक्ति होती है उसी की बात सुनी जाती है। शक्ति-हीन की बात कोई नहीं सुनता।
कालान्तर में कश्मीर के मार्तण्ड (जो अब मटन कहलाता है) स्थान पर एक वृह्त सम्मेलन का आयोजन किया गया। उस सम्मेलन का उद्घाटन महाराज मेघवाहन ने किया। इस सम्मेलन में अनेक विषयों पर विचार-विमर्श हुआ। बहुत मन्थन किया गया। दो मास तक सम्मेलन चला और उसके उपरान्त एक सन्धि-पत्र तैयार करके सभी राज्यों में वितरित कर दिया गया। उस सन्धि-पत्र पर विभिन्न राज्यों की प्रतिक्रिया जानने के लिए एक विद्वत्परिषद् गठित कर दी गई।
विद्वत्परिषद् ने उन प्रस्तावों पर गम्भीरता से विचार-विनिमय किया जो विभिन्न राज्यों की प्रतिक्रिया-स्वरूप प्राप्त किए हुए थे। उनमें भी पर्याप्त ऊहापोह होता रहा और अन्त में निश्चय किया गया कि प्रति तीन वर्ष बाद देश के किसी एक विभाग में एक महासम्मेलन आयोजिक किया जाय। कुम्भ का अवसर उसके लिए उचित माना गया।
उस अवसर की महत्ता के प्रयास पर विचार किया गया। इस प्रकार देश की सांस्कृतिक एकता का प्रयास किया जाने लगा। इसका प्रथम महासम्मेलन तीन वर्ष उपरान्त वैशाख प्रतिप्रदा को प्रथम कुम्भ के रूप में हरिद्वार में करने का निश्चय भी उस सभी ने किया। समिति के सभी विद्वानों को देश-भ्रमण का कार्य सौंपा गया जिससे कि वे देशवासियों के मन में कुम्भ की आवश्यकता और महत्ता के विषय में प्रकाश डालकर उन्हें सम्मिलित होने की प्रेरणा दे सकें।
निष्कर्ष रूप में उपन्यासकार का इस उपन्यास के माध्यम से यही कथन हैं कि जब तक भारत सांस्कृतिक रूप से एक नहीं होगा तब तक राजनीतिक एकता स्थायी नहीं रह सकती। जिस भी शासक ने इस सांस्कृतिक एकता की महत्ता को समझकर उसके लिए प्रयास किया, समझिये कि उसने देश में स्थायी शान्ति की स्थापना के साथ देश की एकता के लिए प्रयास किया है।
खिखलान्य कश्मीर के बाद उसका पुत्र युधिष्ठर अन्ध राजसिंहासन पर बैठा। वह इतना सरलचित्त और उदार था कि उसके मन्त्री ही उसको राज्यच्युत करने का षड्यन्त्र रचने लगे। युधिष्ठिर अन्ध को इसका ज्ञान हो गया। उसका परिणाम यह हुआ कि उस कथित दयालु राजा ने स्वयं ही राज्य छोड़ दिया और अपने परिवार को साथ लेकर भटकता हुआ वह गान्धार देश जा पहुँचा। गान्धार-नरेश ने उसको शरण दी और परिवार-पालन के लिए कुछ भूमि दे दी। मेघवाहन उसी युधिष्ठिर का प्रपौत्र था।
मेघवाहन ने अपने पिता से जब अपने पूर्वजों का इतिहास सुना तो उसक मन में प्रकाश होने लगा और उसने अपने खोये हुए अतीत को पुनः प्राप्त करने का निश्चय कर लिया। वह समझ रहा था कि यदि महाराज युधिष्ठिर सेना को अपने साथ रखते तो संभव है मन्त्रिमन्डल का षड्यन्त्र सफल न हो पाता। मेघवाहन यह भी अनुभव कर रहा था कि राजा, प्रजा और सेना इन तीनों के मिलने से ही राज्य बनता है,
मात्र किसी के राजकुल में उत्पन्न हो जाने से ही कोई राजा नहीं बन जाता।
मेघवाहन ने अपना खोया हुआ राज्य तो वापस प्राप्त कर लिया था किन्तु उसको स्थिर करना इतना सरल नहीं था। कश्मीर के पड़ोसी राजा अपने सींग उठाने लगे थे क्योंकि तब तक उनको कश्मीर से बहुत कुछ प्राप्त हो रहा था। वह उनके अधीनस्थ राज्यों में गिना जाता था। किन्तु वह स्वतन्त्र हो गया, तो पड़ोसी राज्यों की आय का एक बहता हुआ स्रोत बन्द-सा होने लगा था। मेघवाहन को जब इसकी गन्ध मिली तो उसने राज्यों और राजाओं के साथ साम-दाम-दण्ड-भेद नीति का आश्रय लेना श्रेयस्कर समझा।
यह वह काल था जब समस्त भारत वर्ष में बौद्ध मत के साथ-साथ शाकर मत का प्रचार भी प्रभूत मात्रा में होने लगा था। दोनों मतों में प्रतिद्वनिद्विता थी। कश्मीर का राजा मेघवाहन इन दोनों में से किसी के प्रति आकर्षित नहीं था किन्तु वहाँ की प्रजा में अधिकांश बौद्धमतावलम्बी थे। मेघवाहन की रानी अमृत-प्रभा प्राग्ज्योतिषपुर की होने के कारण शाक्त मतावलम्बनी थी। उसके अनेक समर्थक भी कश्मीर राज्य में स्थान प्राप्त करने लगे थे।
इस सबके विपरीत महाराज मेघवाहन और उसके महामन्त्री गोविन्दानन्द भारत को आन्तरिक झगड़ों और विदेशियों की महत्वाकाक्षाँओं के भय से मुक्त करने के लिए भारत भार के राज्यों की प्रजा में एकता स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील थे। इसके लिए महामात्य ने सभी प्रमुख नरेशों से सम्पर्क स्थापित कर भारत-खण्ड की एकता की दिशा में परस्पर सांस्कृतिक सन्धियों का प्रस्ताव किया था। इसके साथ ही कश्मीर राज्य ने अपनी सैनिक शक्ति पर भी विशेष ध्यान देना आरम्भ कर दिया था। क्योंकि जिसके पास शक्ति होती है उसी की बात सुनी जाती है। शक्ति-हीन की बात कोई नहीं सुनता।
कालान्तर में कश्मीर के मार्तण्ड (जो अब मटन कहलाता है) स्थान पर एक वृह्त सम्मेलन का आयोजन किया गया। उस सम्मेलन का उद्घाटन महाराज मेघवाहन ने किया। इस सम्मेलन में अनेक विषयों पर विचार-विमर्श हुआ। बहुत मन्थन किया गया। दो मास तक सम्मेलन चला और उसके उपरान्त एक सन्धि-पत्र तैयार करके सभी राज्यों में वितरित कर दिया गया। उस सन्धि-पत्र पर विभिन्न राज्यों की प्रतिक्रिया जानने के लिए एक विद्वत्परिषद् गठित कर दी गई।
विद्वत्परिषद् ने उन प्रस्तावों पर गम्भीरता से विचार-विनिमय किया जो विभिन्न राज्यों की प्रतिक्रिया-स्वरूप प्राप्त किए हुए थे। उनमें भी पर्याप्त ऊहापोह होता रहा और अन्त में निश्चय किया गया कि प्रति तीन वर्ष बाद देश के किसी एक विभाग में एक महासम्मेलन आयोजिक किया जाय। कुम्भ का अवसर उसके लिए उचित माना गया।
उस अवसर की महत्ता के प्रयास पर विचार किया गया। इस प्रकार देश की सांस्कृतिक एकता का प्रयास किया जाने लगा। इसका प्रथम महासम्मेलन तीन वर्ष उपरान्त वैशाख प्रतिप्रदा को प्रथम कुम्भ के रूप में हरिद्वार में करने का निश्चय भी उस सभी ने किया। समिति के सभी विद्वानों को देश-भ्रमण का कार्य सौंपा गया जिससे कि वे देशवासियों के मन में कुम्भ की आवश्यकता और महत्ता के विषय में प्रकाश डालकर उन्हें सम्मिलित होने की प्रेरणा दे सकें।
निष्कर्ष रूप में उपन्यासकार का इस उपन्यास के माध्यम से यही कथन हैं कि जब तक भारत सांस्कृतिक रूप से एक नहीं होगा तब तक राजनीतिक एकता स्थायी नहीं रह सकती। जिस भी शासक ने इस सांस्कृतिक एकता की महत्ता को समझकर उसके लिए प्रयास किया, समझिये कि उसने देश में स्थायी शान्ति की स्थापना के साथ देश की एकता के लिए प्रयास किया है।
प्रथम परिच्छेद
1
गान्धार की राजनधानी के एक उपेक्षित क्षेत्र में, एक प्राचीन निर्मित,
पर्याप्त बड़े भवन में एक प्रौढ़ावस्था का व्यक्ति राज्य के महामन्त्री
ईशानदेव से वार्तालाप कर रहा था। वार्तालाप बहुत देर तक चलता रहा। घर के
स्वामी गोपादित्य के परिवार के सभी व्यक्ति उस समय उस स्थान से हटा दिए
गये थे।
वार्तालाप समाप्त हुआ और महामन्त्री निवास के द्वार पर खड़े रथ में सवार होकर चला गया। गोपादित्य महामन्त्री को द्वार पर छोड़ने आया था। महामन्त्री का रथ दृष्टि से ओझल हो जाने के उपरान्त वह घर के बैठक को चला तो उसे अपना पुत्र मेघवाहन घर के प्रांगण में खड़ा मिला।
वास्तव में महामन्त्री के आने पर घर के सब प्राणी इस भेंट का कारण जानने के लिए उत्सुक थे। मेघवाहन की माता सौराष्ट्री भी महामन्त्री को विदा कर प्रतिक्षा कर रही थी। गोपादित्य का भाई प्रतापदित्य भी महामन्त्री को विदा कर लौटते हुए भाई को आते देख अपने आगार से निकल आया था। परिवार की इस व्यग्रता से यह स्पष्ट है कि महामन्त्री की इस भेंट से परिवार का कुछ विशेष कार्य सिद्ध होने वाला है।
मेघवाहन ने पूछा, ‘‘पिताजी ! महामन्त्री क्या कहते थे ?’
‘‘वह कुछ ऐसा कहता था जो मैं स्वीकार नहीं कर सका।’’
‘‘यह तो आपके चिन्तित मुख से प्रतीत हो रहा है। परन्तु वह बात क्या थी, जो आप स्वीकार नहीं कर सके ?’’
इस समय पिता-पुत्र उसी बैठकघर में पहुँच गये जहाँ थोड़ी देर पहले गोपादित्य महामन्त्री से भेंट कर रहा था। मेघवाहन की माता सौराष्ट्री वहाँ पति की प्रतीक्षा कर रही थी। गोपादित्य का छोटा भाई भी वहीं आ गया और उसे साथ ही उसकी पत्नी और युवा लड़की पद्मिनी भी आ गयीं।
जब सब बैठ गये तो गोपादित्य ने भेंट का वर्णन करते हुए बताया, ‘‘भेंट के दो अंग हैं। एक गोपनीय है। वह मैं नहीं बताऊँगा। उसके किसी को न बताने की सौगन्ध मुझसे ली गयी है। मैं केवल दूसरा अंग ही बता रहा हूँ।
‘‘प्राग्ज्योतिषपुर के नरेश की कन्या आमृतप्रभा का स्वंयवर हो रहा है। महामन्त्री जी की इच्छा है कि मेघवाहन इस स्वयंवर में जाये और अपने भाग्य की परीक्षा करे।
वार्तालाप समाप्त हुआ और महामन्त्री निवास के द्वार पर खड़े रथ में सवार होकर चला गया। गोपादित्य महामन्त्री को द्वार पर छोड़ने आया था। महामन्त्री का रथ दृष्टि से ओझल हो जाने के उपरान्त वह घर के बैठक को चला तो उसे अपना पुत्र मेघवाहन घर के प्रांगण में खड़ा मिला।
वास्तव में महामन्त्री के आने पर घर के सब प्राणी इस भेंट का कारण जानने के लिए उत्सुक थे। मेघवाहन की माता सौराष्ट्री भी महामन्त्री को विदा कर प्रतिक्षा कर रही थी। गोपादित्य का भाई प्रतापदित्य भी महामन्त्री को विदा कर लौटते हुए भाई को आते देख अपने आगार से निकल आया था। परिवार की इस व्यग्रता से यह स्पष्ट है कि महामन्त्री की इस भेंट से परिवार का कुछ विशेष कार्य सिद्ध होने वाला है।
मेघवाहन ने पूछा, ‘‘पिताजी ! महामन्त्री क्या कहते थे ?’
‘‘वह कुछ ऐसा कहता था जो मैं स्वीकार नहीं कर सका।’’
‘‘यह तो आपके चिन्तित मुख से प्रतीत हो रहा है। परन्तु वह बात क्या थी, जो आप स्वीकार नहीं कर सके ?’’
इस समय पिता-पुत्र उसी बैठकघर में पहुँच गये जहाँ थोड़ी देर पहले गोपादित्य महामन्त्री से भेंट कर रहा था। मेघवाहन की माता सौराष्ट्री वहाँ पति की प्रतीक्षा कर रही थी। गोपादित्य का छोटा भाई भी वहीं आ गया और उसे साथ ही उसकी पत्नी और युवा लड़की पद्मिनी भी आ गयीं।
जब सब बैठ गये तो गोपादित्य ने भेंट का वर्णन करते हुए बताया, ‘‘भेंट के दो अंग हैं। एक गोपनीय है। वह मैं नहीं बताऊँगा। उसके किसी को न बताने की सौगन्ध मुझसे ली गयी है। मैं केवल दूसरा अंग ही बता रहा हूँ।
‘‘प्राग्ज्योतिषपुर के नरेश की कन्या आमृतप्रभा का स्वंयवर हो रहा है। महामन्त्री जी की इच्छा है कि मेघवाहन इस स्वयंवर में जाये और अपने भाग्य की परीक्षा करे।
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