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ममता

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :140
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5298
आईएसबीएन :81-88388-33-5

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धार्मिक विचारों व संस्कारों से ओतप्रोत स्त्री के जीवन पर आधारित उपन्यास...

Mamta

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारतीय साहित्यकार में श्री गुरुदत्त जी का नाम अजर व अमर है। इनके द्वारा लिखे गये उपन्यास कथानक व रोचकता की दृष्टि से अत्यन्त ही सफल हैं। अपने प्रथम उपन्यास से ही श्री गुरुदत्त चोटी के उपन्यासकारों की श्रेणी में आ गये थे और फिर एक के बाद एक इन्होंने अनेकों उपन्यासों का लेखन किया।

ममता गुरुदत्त जी की कलम से निकली एक अनमोल कृति है। इस उपन्यास रूपी कृति में गुरुदत्त जी ने भारतीय आदर्शों एवं संस्कारों तथा धार्मिक विचारों का अत्यन्त रोचक शैली में चित्रण किया है।
ममता एक ऐसी स्त्री की कहानी है जो धार्मिक विचारों व संस्कारों से ओतप्रोत है। वह जीवन भर अपने पुत्र के प्रेम के लिये तरसती रहती है किन्तु उसका पुत्र उससे घृणा करता है। फिर भी वह अपने पुत्र की रक्षा के लिये अपना जीवन होम कर देती है।
ममता की कथा अत्यन्त ही रोचक व दिल को छू लेने वाली है। जो निश्चय ही पाठकों के हृदय को मोह लेगी।

प्रकाशकीय

हमारे भारत की पवित्र व पावन भूमि से अनेकों महान साहित्यकारों ने जन्म लिया है जिनकी प्रसिद्धि व यश पूरे विश्व में भारत के नाम को आलोकित करता है।
ऐसे ही महान साहित्यकारों में श्री गुरुदत्त का नाम अजर व अमर है। अपने पहले उपन्यास ‘स्वाधीनता के पथ पर’ के प्रकाशन के बाद ये प्रसिद्धि व यश की सीढ़ियों पर चढ़ते गये और चोटी के उपन्याकारों की
श्रेणी में अपना एक अलग मुकाम बना लिया।
श्री गुरुदत्त का जन्म 1894 में लाहौर में हुआ था। तब लाहौर भारत का ही एक अंग था। ये आधुनिक विज्ञान के छात्र थे और पेशे से वैद्य थे। रसायन विज्ञान से एम.एस.सी. (स्नातकोत्तर) करने के बावजूद वैदिक साहित्य के व्याख्याता बने और साहित्य में लग गये और अनेकों उपन्यासों, संस्मरण और जीवनी साहित्य का सृजन किया।
आजीवन साहित्य सेवा करते हुए 8 अप्रैल 1989 को दिल्ली में इन्होंने शरीर त्याग दिया।
‘रजत प्रकाशन’ मेरठ से श्री गुरुदत्त के उपन्यासों का प्रकाशन प्रारम्भ करते हुये हमें अपार गौरव महसूस हो रहा है और हिन्दी पाठकों के लिये हर्ष का विषय है कि श्री गुरुदत्त जी का साहित्य अब उन्हें सुलभ प्राप्त हुआ करेगा।
प्रस्तुत उपन्यास ‘ममता’ श्री गुरुदत्त का लोकप्रिय उपन्यास है जो भाषा शैली, कथानक, शब्द संयोजन, मनोरंजन, व ज्ञान प्रत्येक दृष्टिकोण से उत्कृष्ट है।
आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि यह प्रयास आपको पसन्द आयेगा और आप भी गुरुदत्त के प्रशंसकों में अपना नाम शुमार करायेंगे।
एक पत्र द्वारा अपनी प्रतिक्रिया से अवश्य अवगत करायें।

वैदुष्य, संस्कृति और राजनीति की त्रिवेणी :

श्री गुरुदत्त का जीवन परिचय

8 दिसम्बर 1894 को जन्म लिया लाहौर (अब पाकिस्तान) में। मुख्य क्रीड़ा-भू बनी वर्तमान भारत-भू। नश्वर शरीर त्यागा 8 अप्रैल 1989 को वैदिक मंत्रोच्चार के साथ भारत की राजधानी दिल्ली में।
आधुनिक विज्ञान के छात्र तत्पश्चात पेशे से वैद्य लेकिन साहित्य-सृजन में की अनूठी साधना। स्नातकोत्तर (एम.एस.सी.) किया रसायन विज्ञान में, व्याख्याता बने वैदिक साहित्य के।
उपन्यास, संस्मरण और जीवन-साहित्य के महान सृजक बने। ज्ञान, राग और शब्द शिल्प के संगम के साथ-साथ और साहित्य के सेतु थे। ऋजु व्यक्तित्व और संशिष्ट चिन्तन के स्वामी थे। विद्या और विनय के संश्लेषण थे तो व्यक्तित्व की दृष्टि से स्थित-प्रज्ञ थे। सदाचार, संकल्प, निर्मल-मैत्री और पारस्परिक समझदारी उनके अलंकरण थे। हिंदुत्व के दृढ़ स्तम्भ थे तो रग-रग हिन्दू उनका परिचय था। आर्य समाज उनका प्राण था।

उपन्यास-जगत् के वे बेताज बादशाह थे। ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से आरम्भ हुआ उनका उपन्यास जगत् का सफर लगभग 200 उपन्यासों में से मां भारती के अंक को सुशोभित-सुगन्धित करते हुए ‘‘अस्ताचल की ओर’’ पर समाप्त होने से पूर्व सिद्ध कर गया कि वे हिन्दी साहित्य के एक देदीप्यमान नक्षत्र थे।

सूर्यकान्त त्रिपाठी की तरह कोटि-कोटि पाठकों के हृदय सम्राट होते हुए भी साहित्यिक व राजनीतिक अलंकरणों से वंचित रहे।
‘‘धर्म संस्कृति और राज्य’’ से लेकर ‘‘वेद मंत्रों के देवता’’ तक हिन्दू वाङ्मय के व्याख्याता बने, किंतु चापलूसों से घिरी सांस्कृतिक संस्थाओं में से किसी ने भी उस निर्भीक ऋषि के चरणों पर पुष्प नहीं चढ़ाए।
गीता पर उनके विचार और भाष्य अमूल्य निधि हैं तो भारत-विभाजन पर ‘‘देश की हत्या’’ उनका ऐतिहासिक दस्तावेज है। ‘‘भारत गांधी नेहरू की छाया में’’ उनके प्रखर चिंतन द्वारा राजनीति की कलुष कथा है।
उनके बहु आयामी व्यक्तित्व और कृतित्व को हमारा नमन।

प्रथम परिच्छेद

‘‘ ‘वाट ए फूल यू आर !’ तुम कितने मूर्ख हो काहन ! उस बूढ़ी औरत को समझाते क्यों नहीं ? तुम्हारे गाढ़े पसीने की कमाई को वह उन साधु, सन्त, महात्माओं में व्यर्थ गंवा रही है।’’
एक सूटेज-बूटेज ‘काला-साहब’ अपने सामने भूमि पर बैठे खौंचे वाले को समझा रहा था। खौंचे वाला चाट बेचता था। उसके पास दही-बड़े, पकौड़ी, पानी के बताशे, इमली की खट्टी-मीठी सौंठ होती थी, और साहब के बच्चे तथा उनकी विलायती बीवी उसकी चाट बहुत पसंद करते थे।
प्राय: सायंकाल चार बजे काहन कोठी के बाहर आवाज लगाता, ‘‘चटपटे गोल गप्पे’’ और काले-साहब मिस्टर साहनी के बच्चे काहन को कोठी में ले आते। उसकी कोठी के बरामदे में बैठा, फिर वे अपनी मम्मी और डैडी को आवाजें देने लगते।
डैडी डॉक्टर था। वह विलायत से डॉक्टरी पास करके आया था और निस्बत रोड की एक कोठी में चिकित्सा-कार्य करता था। वह सर्जन था। प्रात: 9 बजे से 11 बजे तक और सायं 6 बजे से 8 बजे तक अपने क्लिनिक में रहता था। लोगों के घरों में जाकर भी वह ऑपरेशन किया करता था। कभी कोई भूला-भटका रोगी चिकित्सा के लिए आता तो उसको भी नुसखा लिख देता था। इस प्रकार उसकी अच्छी-खासी आय हो जाती थी।

डॉक्टर बी.आर.साहनी विलायत से ही, अपनी हाउस-कीपर की पुत्री, लिल्ली, हैंडरसन को विवाह कर लाया था। उसके डॉक्टर बनने से पूर्व ही लिल्ली के एक लड़का उत्पन्न हो चुका था। डॉक्टर की दूसरी संतान एक कन्या थी। हिन्दुस्तान में आने के बाद उत्पन्न हुई थी। बड़ा लड़का विन्सेन्ट इस समय पांच वर्ष का था और लड़की फ्लोरा तीन वर्ष की थी। दोनों ही बच्चे चाट के बहुत शौकीन थे। डॉक्टर की पत्नी भी काहन की आवाज सुनकर, अपने मुख मे टपकती लार को रोक नहीं पाती थी। बच्चों के आवाज़ देते ही वह भी बरामदे में आ जाती थी। कभी, उस समय, डॉक्टर घर पर होता तो वह भी चाट खाने के लिये आ जाता।
आज एक बजे वह एक ऑपरेशन करने के लिये गया और वहां से साढ़े तीन बजे लौटा था। ऑपरेशन अपेन्डिसाइटिस का था और वह सफल हुआ था। उसकी उसको एक सौ रुपया फीस मिली थी। वह अभी अपने क्लिनिक में अपना ऑपरेशन-किट संभाल कर रख ही रहा था कि बाहर से बच्चों की आवाज़ सुनाई दी। वह समझ गया और हाथ धोकर बरामदे में आ गया। बाहर बरामदे में रखी कुर्सी पर लिल्ली बैठी थी। काहन ने अपना खौंचा उनके सामने बरामदे में फर्श पर रखा हुआ था। वह स्वयं भूमि पर बैठा था। खौंचे पर से उसने सफेद चादर, जिससे सामान ढका हुआ था, उठा ली और बच्चों की मां से पूछने लगा, ‘‘क्या बनाऊं ?’’
‘‘पहले इन बच्चों को बना दो।’’

काहन जब से निस्बत रोड की कोठियों में चक्कर लगाने लगा था, वह स्वयं साफ-सुथरे कपड़े पहनने लगा था और खौंच को नित धुली चादर से ढंकने लगा था। साथ ही पत्तों के साथ चीनी की प्लेटे भी रखता था और पढ़े-लिखे ग्राहकों को प्लेटों में सामान लगाकर खिलाता था।
डॉक्टर साहब की कोठी पर नित्य रुपया-डेढ़ रुपया की बिक्री होती थी। इस कारण उसने इनके खाने के लिए चाँदी के गिलट किये हुए चम्मच भी रखे हुए थे। डॉक्टर आया तो वह अपनी पत्नी के समीप बैठ गया और जब काहन बच्चे के लिए दही और सौंठ की पकौड़ी बना रहा था, डॉक्टर उससे पूछने लगा, ‘‘काहन ! तीन दिन तक तुम आये नहीं। क्या बात थी ?’’
‘‘भैया ! मां ने चौमासा रखा हुआ था और चौमासा समाप्त होने पर उसने भागवत की कथा रखाई हुई थी। परसों कथा का भोग पड़ा था। उस दिन मां ने साधु-संत महात्माओं को मध्याह्न के समय का भोजन दिया था। कल अपने संबंधियों को भोज दिया था। दोनों दिन उसमें लगा रहा हूं। इस कारण न तो सामान बन पाया और न बेचने आ सका।’’
‘‘कितने साधु आये होंगे।’’
‘‘पचास से ऊपर ही थे।’’

‘‘और क्या-कुछ खिलाया था ?’’
‘‘साधुओं को तो खीर-पुरी, साग था। हां, कल संबंधियों को सात व्यंजन, खीर, पुरी, पुलाव, चटनी, अचार आदि था। कल भी कोई सौ आदमियों का खाना हुआ है।’’
‘‘बहुत रुपया खर्च कर दिया है ?’’
‘‘हां भैया ! इन दोनों दावतों और कथा पर मिलाकर पांच सौ रुपये से ऊपर ही खर्च हो गया होगा।’’
‘‘बहुत रुपया व्यर्थ गंवाया है।’’
‘‘मां ने कहां तो मैं टाल नहीं सका।’’
इस पर डॉक्टर ने वह ‘फूल’ वाली बात कही थी। काहन अंग्रेजी तो समझा नहीं, इस पर भी ‘फूल’ शब्द के तो वह तो अर्थ जानता था। लाहौर में रहते हुए इतना जान जाना स्वाभाविक था।
काहन ने मुस्कारकर कहा, ‘‘भैया ! मैं ‘भूल’ नहीं हूं। मां के लिए तो यह कुछ भी नहीं। और वह बूढ़ी भी नहीं है। मां तो कभी बूढ़ी होती ही नहीं।’’

काहन डॉक्टर साहनी का बचपन का साथी था। दोनों एक ही मोहल्ले में पैदा हुए और पले थे। दोनों के पिता मकान साथ-साथ ही थे। डॉक्टर साहनी के पिता की हवेली बड़ी और पक्की थी। काहन का बाप एक हलवाई का नौकर था और डॉक्टर के पिता के पड़ोस में एक डेढ़-मंजिले छोटे-से मकान में रहता था। मकान के फर्श कच्चे थे, जिनमें सप्ताह में एक बार गोबर का लेप कर, सफाई की जाती थी। काहन और बलराम शिशुकाल से इकट्ठे खेले थे, और कभी अपनी बाल-मित्रता का प्रथम दिन स्मरण करने लगते, तो वे अतीत के धुंधियाले में विलीन होते दिखाई देते थे।

बलराम के स्कूल जाने के दिनों तक दोनों का साथ रहा था। काहन पांच वर्ष का हुआ तो अपने पिता के साथ हलवाई की दुकान पर, चार आने रोज पर, नौकर हो गया और बलराम से उसका संबंध-विच्छेद हुआ। बलराम काहन को मैले-कुचैले कपड़ों में अपने उस्ताद की दुकान पर जाता देखता तो उसके लिए अपने मन में सहानुभूति अनुभव करता था।
1907 का घोर प्लेग पड़ा तो बलराम का पिता अपने पूर्ण परिवार को लेकर हरिद्वार चला गया। वहां से वह लौटा तो फिर शहर वाले मकान में नहीं आया। वह अनारकली बाजार में अपने एक अन्य मकान में रहने लगा। इसके अनन्तर काहन और बलराम में तब भेंट हुई, जब बलराम डॉक्टर साहनी बन और विलायत से अपना परिवार लेकर निस्बत रोड की कोठी में आकर रहने लगा।

कोठी को ठीक कराकर उसमें अपना क्लिनिक खोल, डॉक्टर साहनी को आकर रहते हुए छ: माह हो चुके थे। डॉक्टर गोल-गप्पे वाले को रोज सड़क पर से गुजरते देखता और ‘चटपटे गोलगप्पे’ की आवाज सुनता था। इस आवाज में उसके मुख में लार टपकने लगती थी। एक दिन उससे नहीं रहा गया। नौकर को भेज, उसने चाट वाले को बुलवा लिया। उसको बगल वाले बरामदे में बैठाकर, वह लिल्ली को वहां ले आया। लिल्ली पूछने लगी, ‘‘क्या है ?’’
‘‘देखो, यह मेरे बचपन का एक अतिप्रिय ‘स्नैक’ है।’’
बलराम को इस बात से संतोष हुआ था और खौंचे पर भी उसने चादर डाल रखी थी। चाट वाला बैठा तो पति-पत्नी स्वयं कुर्सियों पर बैठ गये। काहन बलराम को देख, मुसकरा रहा था। वह चादर उठा पूछने लगा, ‘‘हां, तो साहब ! फरमाइये, क्या खिलाऊं ?’’

डॉक्टर को पानी के बताशे बहुत प्रिय थे। उसने कहा तो काहन ने चीनी के दो डोंगे निकाल कर उसमें ही दो-दो बताशे आलू तथा पानी से भर कर दे दिये। लिल्ली अपने पति से पूछने लगी, ‘‘कैसे खाऊं ?’’
‘‘मेरी ओर देखो ।’’ डॉक्टर ने कहा। लिल्ली ने बताशे खाये तो उसको बहुत पसंद आये। इस प्रकार दो-दो कर खौंचे वाला देता गया और वे लेते गये। इतने में विंसेंट आ गया। वह इस समय लगभग तीन वर्ष का था। उसको दही की पकौड़ी खिलाई तो उसे वह बहुत पसंद आई।
जब ये लोग खा-पीकर तृप्त हुए तो कुल बिल बना, एक रुपया दो आने। डॉक्टर अपने विलायत जाने के पूर्व से भाव का अन्दाजा लगाता था तो उसे दाम तिगुने लगते थे। इस कारण उसने दाम देने से पहले कुछ गंभीर होकर कहा, ‘‘कितने पैसे हुए ?’’

‘‘वैसे तो दाम एक रुपया दो आने बनते हैं, परन्तु आज आपसे कुछ नहीं लूँगा।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘आप ने मुझे पहचाना नहीं बलराम जी ?’’
यह सुन, डॉक्टर ने ध्यान से उसकी ओर देखा तो उसे पहचान गया। पहचानते ही वह कुर्सी से उठकर कहने लगा, ‘‘ओह, काहन भाई ! बहुत तरक्की कर ली है तुमने !’’
‘‘हां, भैया ! मैं तो आते ही पहचान गया था और देख रहा था कि कब पहचानते हैं बलराम जी। भैया ! विलायत गए हुए थे ?’’

‘‘हां, डॉक्टरी पढ़ने गया हुआ था।’’
‘‘और यह भाभी वही का मेवा है ?’’
‘‘हां, वही विवाह किया था और यह बच्चा वहीं हो गया था।’’


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